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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 73: भगवान् श्रीकृष्ण की हस्तिनापुर में वापसी  » 
 
 
 
 
 
जरासन्ध की मुत्यु के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा मुक्त किए गए राजा विश्व के विभिन्न भागों के शासक थे । सैन्य बल में जरासन्ध इतना शक्तिशाली था कि उसने इन सभी राजकुमारों एवं राजाओं को पराजित कर दिया था, जिनकी संख्या 20,800 थी । वे सभी पहाड़ की एक गुफा में बन्दी थे, जिसे किले के रूप में विशेष रूप से निर्मित किया गया था । उन्हें काफी समय तक इस प्रकार रखा गया था । जब भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से उन सबको मुक्त किया गया, तो वे अत्यन्त दुखी दिख रहे थे, वे फटेहाल थे तथा उनके चेहरे उचित शारीरिक देखभाल की कमी के कारण सूख गए थे । भूख के कारण वे अत्यंत कमजोर हो गए थे तथा उनके चेहरे पर सुन्दरता एवं चमक का अभाव था । राजाओं के द्वारा इतने लम्बे काल तक बन्दी रहने की वजह से उनके शरीर का प्रत्येक भाग सुस्त एवं दुर्बल हो गया था । परन्तु जीवन की उस दुःखमय स्थिति में पीड़ा उठाने के पश्चात् भी उनके पास भगवान् श्रीविष्णु को स्मरण करने का अवसर था । अब अपने सम्मुख उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण का दिव्य शरीर देखा, जो आकाश में आए हुए नवीन बादल के वर्ण के समान था । वे उनके सम्मुख सुन्दर, पीले रेशमी वस्त्रों में विष्णु के समान चार भुजाओं सहित तथा हाथों में गदा, शंख, चक्र तथा कमल पुष्प धारण किए प्रकट हुए । उनकी छाती पर स्वर्ण रेखाओं के निशान थे तथा उनके वक्ष के स्तनाग्र कमल पुष्प के चक्र के समान प्रतीत हो रहे थे । उनके नेत्र कमलपुष्प की पंखुड़ियों के समान लग रहे थे तथा उनका मुस्कराता चेहरा सनातन शान्ति एवं सम्पन्नता के लक्षण प्रकट कर रहा था । उनके चमकते हुए कर्णफूल सुन्दर लग रहे थे तथा उनका मुकुट बहुमूल्य रत्नों से अलंकृत था । श्रीभगवान् की मोतियों की माला तथा कंगन उनके शरीर पर बहुत ही उपयुक्त जगह पर स्थित थे । वे दिव्य सुन्दरता के कारण चमक रहे थे । उनकी छाती पर लटकता हुआ कौस्तुभ मणि अत्यधिक कान्ति के साथ चमक रहा था । श्रीभगवान् ने पुष्प की एक सुन्दर माला पहन रखी थी । इतनी दुःखद स्थिति के पश्चात् जब राजाओं एवं राजकुमारों ने सुन्दर दिव्य रूप वाले भगवान् श्रीकृष्ण को देखा, तो वे जी-भर उनकी ओर देखते रहे, मानो अपने नेत्रों से अमृत का रसास्वादन कर रहे हों, उनके शरीर को अपनी जिह्वा से चाट रहे हों, अपने नाक से उनके शरीर की सुगन्ध ले रहे हों तथा अपनी भुजाओं से उनका आलिंगन कर रहे हों । श्रीभगवान् के सम्मुख होने से उनके पापपूर्ण कार्यों के सारे फल धुल गए । अतएव बिना संकोच किए उन्होंने श्रीभगवान् के चरणकमलों की शरण ली । भगवद्-गीता में यह कहा गया कि जब तक व्यक्ति अपने पापपूर्ण कार्यों से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक वह पूर्णतया श्रीभगवान् के चरणकमलों में समर्पित नहीं हो सकता । वे सभी राजकुमार, जिन्होंने श्रीकृष्ण के दर्शन किए, अपने पिछले सभी कष्ट भूल गए । वे हाथ जोड़कर तथा अत्यन्त भक्ति के साथ इस प्रकार श्रीकृष्ण की सादर वन्दना करने लगे । "प्रिय भगवान् ! देवाताओं के स्वामी ! आप भक्तों की सभी पीड़ा को दूर कर सकते हैं, क्योंकि भक्तगण आपके प्रति पूर्णतया समर्पित होते हैं । हे श्रीकृष्ण ! दिव्य आनन्द एवं ज्ञान के सनातन श्रीमूर्ति ! आप अविनाशी हैं और हम आपके चरणकमलों में सादर वन्दना अर्पित करते हैं । यह आपकी अहैतुकी कृपा है कि हम जरासन्ध के बन्धन से मुक्त हो गए हैं, परन्तु अब हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमें भौतिक जगत् की इस भ्रामक शक्ति के बन्धन से मुक्त करें । अत: कृपापूर्वक जन्म और मृत्यु के हमारे निरन्तर चक्र को रोकिए । जीवन की इस दुःखमय भौतिक स्थिति का हमें उपयुक्त अनुभव हो गया है, जिसमें हम पूर्णतया लीन हैं तथा उसकी कटुता का आस्वादन करने के पश्चात् हम आपके चरणकमलों की शरण लेने के लिए आए हैं । हे भगवान् ! हे मधु राक्षस को मारनेवाले ! हम अब स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि इसमें जरासन्ध की जरा भी गलती नहीं थी । यह वास्तव में आपकी अहैतुकी कृपा के कारण हुआ है कि हम अपने राज्य से वियुक्त हो गए, क्योंकि हम स्वयं को राजा-महाराजा कहने में अत्यन्त अभिमान का अनुभव करते थे । जो भी शासक अथवा राजा मिथ्या अहंकार एवं शक्ति के कारण फूल जाता है, वह अपनी वास्तविक मूलभूत स्थिति एवं सनातन जीवन को समझने का अवसर नहीं प्राप्त करता । भ्रामक माया के प्रभाव में ऐसे तथाकथित शासक एवं राजा अपनी उपाधि पर छल से गर्व रखते हैं, वे उस मूर्ख व्यक्ति के समान हैं, जो समझता है कि रेगिस्तान में मृगमरीचिका पानी का एक भण्डार हैं । मूर्ख व्यक्ति सोचते हैं कि उनकी भौतिक उपलब्धियाँ उनकी रक्षा करेंगी तथा जो इन्द्रिय-तृप्ति में संलग्न हैं, वे इस भौतिक जगत् को सनातन आनन्दोपभोग का स्थान मानते हैं । हे भगवान ! हम स्वीकार करते हैं कि इससे पूर्व हम अपने भौतिक ऐश्वर्यों से फूल गए थे, क्योंकि हम एक दूसरे से ईष्या करते थे और एक दूसरे को जीतने की चाह में सत्ता के लिए युद्ध में संलग्न हो गए और हमने अपने नागरिकों के जीवन तक की चिन्ता नहीं की ।" राजनीतिक शक्ति का यही रोग है । जैसे ही कोई राजा अथवा राष्ट्र भौतिक ऐश्वर्यों में सम्पन्न होता है, वैसे ही सैन्य आक्रमण के द्वारा वह अन्य राष्ट्रों पर शासन करना चाहता है । इसी प्रकार, व्यापारिक पुरुष किसी विशेष प्रकार के व्यवसाय पर एकाधिकार प्राप्त करना चाहते हैं

तथा अन्य व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर नियंत्रण रखना चाहते हैं । मिथ्या अहंकार के द्वारा पदच्युत करने तथा भौतिक ऐश्वर्यों के द्वारा मोहित होने के पश्चात्, कृष्णभावनामृत की प्राप्ति का प्रयास करने के बजाय मानवसमाज अस्त-व्यस्तता उत्पन्न करता है तथा शान्तिमय जीवन को भंग करता है । अतएव लोग जीवन का वास्तविक उद्देश्य भूल जाते हैं, जो कि भगवान् श्रीविष्णु की कृपादृष्टि प्राप्त करना है ।

राजाओं ने आगे कहा, "हे भगवान् ! हम नागरिकों को मारने एवं उन्हें बिना कारण मारे जाने के लिए मोहित करने के घृणित कार्य में संलग्न थे तथा अपनी राजनीतिक सनक को सन्तुष्ट कर रहे थे । हमने यह बात नहीं समझी कि दुष्ट मृत्यु के रूप में आप हमारे सम्मुख सदैव उपस्थित हैं । हम इतने मूर्ख बन गए थे कि अपनी स्वयं की आसन्न मृत्यु को भूलकर हम दूसरों के लिए मौत का कारण बनते रहे । परन्तु प्रिय भगवन् ! आपके प्रतिनिधि काल (समय) के प्रतिशोध पर अवश्य ही विजय प्राप्त नहीं की जा सकती । काल तत्त्व इतना बलवान् है कि कोई भी व्यक्ति उसके प्रभाव से बच नहीं सकता । अतएव अपने पाशविक कार्यों के फल को हमने प्राप्त कर लिया है तथा अब हम सभी समृद्धि से मुक्त हैं और आपके सम्मुख भिखारियों के समान खड़े हैं । हम अपनी स्थिति को अपने ऊपर आपकी अहैतुकी विशुद्ध कृपा मानते हैं, क्योंकि अब हम समझ सकते हैं कि हम धोखे से घमण्डी थे तथा आपकी इच्छा से हमारे भौतिक ऐश्वर्यों को हमसे हटाया जा सकता था । यह आपकी अहैतुकी कृपा है, जिसके कारण हम आपके चरणकमलों का स्मरण कर पाये हैं । यही हमारा सर्वोत्तम लाभ है । प्रिय भगवन् ! यह प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञात है कि यह शरीर व्याधि-मन्दिर है । अब हम पर्याप्त वृद्ध हो चुके हैं एवं अपने शरीर की शक्ति पर अभिमान करने के बजाय हम प्रत्येक दिन दुर्बल होते जा रहे हैं । हम अब इन्द्रिय-तृप्ति में अथवा भौतिक शरीर से प्राप्त मिथ्या आनन्द में जरा भी रुचि नहीं रखते । आपकी कृपा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि भौतिक आनन्द के लिए उत्कण्ठा करना रेगिस्तान की मृगमरीचिका में जल की खोज करने के समान है । हम अपने पुण्यकर्मों के परिणाम में रुचि नहीं रखते । उदाहरणार्थ स्वर्गीय लोकों को प्राप्त करने के लिए महायज्ञों का सम्पादन करने में, हमारी रुचि नहीं है । अब हम समझते हैं कि जीवन के उच्च भौतिक स्तर में उन्नति आकर्षक लग सकती है, परन्तु वास्तव में इस भौतिक जगत् में आनन्द नहीं हो सकता । हम आप श्रीमान् से प्रार्थना करते हैं कि आप हमें यह बताने की कृपा करें कि किस प्रकार हमें आपके चरणकमलों की दिव्य सेवा में संलग्न होना चाहिए जिससे हम आप श्रीमान् से अपने शाश्वत सम्बन्ध को कभी न भूल सकें । हम इस भौतिक बन्धन से मुक्ति नहीं चाहते । आपकी इच्छा से हम जीवन की किसी भी योनि में जन्म ले सकते हैं । हम केवल यही प्रार्थना करते हैं कि किसी भी परिस्थति में आपके चरणकमलों को न भूलें । प्रिय भगवन् ! अब हम आपकी सादर वन्दना करके आपके चरणकमलों में समर्पित होते हैं, क्योंकि आप परम भगवान् वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण हैं । आप प्रत्येक के हृदय में स्थित परम-आत्मा हैं तथा आप भगवान् श्रीहरि हैं, जो भौतिक अस्तित्त्व की दुःखद स्थितियों को छीन सकते हैं । प्रिय भगवान् ! आपका नाम आनन्द का भण्डार, श्रीगोविन्द, है । जो व्यक्ति आपकी इन्द्रियों को तृप्त करने में लीन रहता है, वह अपने-आप ही अपनी इन्द्रियों को तृप्त कर लेता है ।

अतएव आपको गोविन्द के नाम से जाना जाता है । प्रिय प्रभु ! आप नित्य प्रसिद्ध हैं क्योंकि आप अपने भक्तों के सभी दुखों को दूर कर सकते हैं । अतएव कृपा करके आप हमें अपना समर्पित सेवक स्वीकार करें ।” जरासन्ध के बन्दीगृह से छूटे हुए सभी राजाओं की प्रार्थनाएँ सुनने के पश्चात्, बद्ध जीवात्माओं के रक्षक एवं भक्तों के लिए कृपा-सागर श्रीकृष्ण ने अपनी मधुर दिव्य ध्वनि में उत्तर दिया, जो गंभीर एवं अर्थपूर्ण थी "मेरे प्रिय राजाओ ! मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ । इस दिन से तुम सदैव मेरी भक्ति में अवश्य ही संलग्न रहोगे । मैं तुम्हें यह वरदान देता हूँ, जैसी कि तुम्हारी इच्छा थी । तुम्हें मैं सूचित करता हूँ कि मैं सदैव तुम्हारे हृदय में परमात्मा बनकर निवास करता हूँ और चूँकि तुम लोगों ने अब मेरा आश्रय लिया है, अत: सबका स्वामी, मैं तुम्हें अच्छा परामर्श दूँगा जिससे तुम मुझे कभी नहीं भूलोगे और जिससे तुम धीर-धीरे अपने धाम, भगवत्-धाम, को पुनः वापस आ जाओगे । मेरे प्रिय राजाओ । भौतिक आनन्द को त्यागकर मेरी भक्ति करने की तुम लोगों की धारणा वास्तव में तुम्हारे सौभाग्य का लक्षण है । अब से तुम सदैव आनन्दमय जीवन का भोग करोगे । मैं इस बात की पुष्टि करता हूँ कि तुम लोगों ने अपनी प्रार्थना में मेरे विषय में जो कुछ कहा है, वह सत्य है । यह तथ्य है कि जो व्यक्ति कृष्ण-भक्त नहीं है, उसकी भौतिक ऐश्वर्यपूर्ण स्थिति ही उसके पतन एवं भ्रामक शक्ति का शिकार बनने का कारण बनती है । भूतकाल में अनेक विद्रोही राजा हुए हैं, जैसे हैहय, नहुष, वेन, रावण तथा नरकासुर । इनमें से कुछ देवता थे, परन्तु अपनी उपाधि के गलत बोध के कारण वे अपने श्रेष्ठ पदों से गिर गए तथा इस प्रकार वे अपने राज्यों के राजा बने नहीं रह पाए ।"

"बद्ध जीवन के बन्धन में खोकर तुम सबको यह समझना चाहिए कि प्रत्येक भौतिक वस्तु का प्रारम्भिक बिन्दु, उत्पत्ति, विकास, विनाश तथा अन्ततः तिरोभाव होता है । सभी भौतिक शरीर इन छह स्थितियों के अधीन होते हैं । इस शरीर के द्वारा जो भी सम्बद्ध उपलब्धियाँ एकत्रित की जाती हैं, उनका नाश अवश्य ही होता है । अतएव किसी भी व्यक्ति को नाशवान् वस्तुओं से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए । जब तक व्यक्ति इस प्राकृत शरीर में बद्ध रहता है, तब तक उसे सांसारिक कार्यकलापों से सावधान रहना चाहिए । इस भौतिक जीवन का सर्वश्रेष्ठ मार्ग मेरी दिव्य भक्ति में समर्पित हो जाना और ईमानदारी के साथ जीवन की अपनी विशेष स्थिति के निर्धारित कर्तव्यों का पालन करना है । जहाँ तक तुम लोगों का प्रश्न है, तुम लोग तो क्षत्रिय वंश के हो । अतएव तुम्हें राजोचित पद्धति के योग्य निर्धारित कर्तव्यों के अनुसार ईमानदारी के साथ जीवन व्यतीत करना चाहिए । तुम्हें अपने नागरिकों को प्रत्येक दृष्टि से प्रसन्न रखना चाहिए । क्षत्रिय जीवन के स्तर को बनाए रखो । इन्द्रियतृप्ति के कारण बच्चों की उत्पत्ति मत करो, अपितु सामान्यतः लोगों के कल्याण का कार्यभार सँभालो । अपने पिछले जीवन की दूषित इच्छाओं के कारण प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक जगत् में जन्म लेता है । इस प्रकार वह प्रकृति के कठोर नियमों, जैसे जन्म तथा मृत्यु, सुख और दुःख, लाभ एवं हानि के अधीन हो जाता है । व्यक्ति को द्विविध विचारों से विचलित नहीं होना चाहिए, वरन् मेरी सेवा में स्थिर रहना चाहिए । जो इस प्रकार यह जान कर कि सभी वस्तुएँ मेरे द्वारा उपलब्ध करायी जाती हैं, मन में स्थिर रहते हैं तथा सभी परिस्थितियों में सन्तुष्ट रहते हैं । और मेरी भक्ति में संलग्न रहकर उसमें अविचलित रहते हैं, वे इस प्रकार इस भौतिक परिस्थिति में रहकर भी सुखी एवं शान्तिमय जीवन व्यतीत कर सकते हैं । दूसरे शब्दों में, प्रत्येक व्यक्ति को इस शरीर तथा उसकी उत्पत्ति के प्रति निर्मम रहना चाहिए तथा उससे अप्रभावित रहना चाहिए । उसे जीवात्मा के लाभ के लिए पूर्णतया सन्तुष्ट रहना चाहिए तथा स्वयं को परमात्मा की सेवा में व्यस्त रखना चाहिए । व्यक्ति को अपना मन मुझ पर केन्द्रित करना चाहिए, उसे मेरा भक्त बनना चाहिए, उसे मेरी उपासना करनी चाहिए तथा उसे केवल मेरी ही सादर वन्दना करनी चाहिए । इस प्रकार व्यक्ति बहुत सरलतापूर्वक अज्ञान के महासागर को पार करके अन्त में मुझे प्राप्त कर सकता है । निष्कर्ष तुम्हारा जीवन सदैव मेरी सेवा में लगा रहना चाहिए ।

राजाओं एवं राजकुमारों को उपदेश देने के पश्चात्, भगवान् श्रीकृष्ण ने तत्काल उनके विश्राम की व्यवस्था की तथा अनेक सेवकों एवं सेविकाओं को उनकी देखरेख करने के लिए कहा । श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के पुत्र सहदेव से निवेदन किया कि वे राजाओं की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करें तथा उनके प्रति पूर्ण आदर एवं सम्मान का प्रदर्शन करें । श्रीकृष्ण के आदेश का निष्पादन करते हुए श्रीसहदेव ने उन्हें पूर्ण सम्मान दिया तथा उनको आभूषण, वस्त्र, मालाएँ तथा अन्य सामग्रियाँ भेंट में दीं । स्नान करके एवं नवीन वस्त्र धारण करने के पश्चात् सभी राजा प्रसन्न एवं सौम्य प्रतीत हुए । तत्पश्चात् उन्हें अच्छी भोजन-सामग्री उपलब्ध करायी गई । भगवान् श्रीकृष्ण ने उनकी सुविधा के लिए सब कुछ उपलब्ध कराया, जो कि उनकी राजकीय स्थिति के अनुकूल था । राजाओं के साथ श्रीकृष्ण ने अत्यन्त दयालुता से व्यवहार किया, अतएव उन्होंने परम आनन्द का अनुभव किया । उनके चमकते चेहरे बरसात के मौसम के बाद आकाश में प्रकट होने वाले तारों के समान प्रतीत हो रहे थे । वे बहुत ही उत्तम रीति से सुसज्जित तथा अलंकृत थे एवं उनके कर्णफूल चमक रहे थे । उसके पश्चात् प्रत्येक राजा को स्वर्ण एवं रत्नों से अलंकृत रथ पर बिठाया गया जिन्हें सुसज्जित घोड़े खींच रहे थे । यह देखने के पश्चात् कि सभी की देखभाल की गई है, श्रीकृष्ण ने अपनी मधुर ध्वनि में राजाओं को अपने-अपने निजी राज्यों में लौट जाने के लिए कहा । विश्व के इतिहास में अपने अद्वितीय व्यवहार के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण ने उन सभी राजाओं को मुक्त कर दिया, जो जरासन्ध के चंगुल में फँसे हुए थे । पूर्णतया सन्तुष्ट होकर सभी राजा उनके पवित्र नाम का गान करने, उनके पवित्र रूप का स्मरण करने तथा श्रीभगवान् के रूप में उनकी दिव्य लीलाओं को महिमामण्डित करने के कार्य में संलग्न हो गए ।

इस प्रकार श्रीभगवान् की सेवा में संलग्न होकर वे अपने निजी राज्यों में लौट गए । उनके राज्यों के नागरिक उन्हें वापस आया देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और जब उन्होंने श्रीकृष्ण के उदार व्यवहार के विषय में सुना, तो वे अत्यधिक प्रसन्न हुए । भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेशों के अनुसार सभी राजाओं ने अपने राज्यों के कार्यों को संचालित किया तथा उन सभी राजाओं एवं उनकी प्रजा ने अपना जीवन आनन्दपूर्वक व्यतीत किया । कृष्णभावनामृत संघ इसका सजीव उदाहरण है । यदि इस विश्व के सभी लोग समाज को अपने भौतिक गुणों के अनुसार भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए चार वर्णों में विभाजित कर दें, जो श्रीकृष्ण पर केन्द्रित हों और भगवद्-गीता के अनुसार श्रीकृष्ण के उपदेशों का पालन करते हों, तो सम्पूर्ण मानव-समाज अवश्य ही प्रसन्नचित रहेगा ।

अत: भीमसेन के द्वारा जरासन्ध का विनाश करने तथा जरासन्ध के पुत्र सहदेव के द्वारा उचित रूप से सम्मानित होने के पश्चात् भीमसेन एवं अर्जुन सहित श्रीकृष्ण हस्तिनापुर लौटे । जब वे हस्तिनापुर के सीमा-क्षेत्र में आ गए, तब उन्होंने अपना निजी शंख बजाया तथा उसकी ध्वनि सुनकर एवं जानकर कि कौन आ रहा है, सभी लोग अत्यन्त प्रफुल्लित हो उठे । परन्तु उस शंख की ध्वनि सुनकर श्रीकृष्ण के शत्रु अत्यन्त उदास हो गए । इन्द्रप्रस्थ के नागरिकों ने श्रीकृष्ण के शंख की ध्वनि सुनने मात्र से अपने हृदय में आनन्द का अनुभव किया, क्योंकि वे समझ सकते थे कि जरासन्ध का वध हो चुका है । अब महाराज युधिष्ठिर द्वारा राजसूय यज्ञ का सम्पन्न होना लगभग निश्चित हो गया था । भगवान् श्रीकृष्ण, श्रीअर्जुन एवं श्रीभीमसेन महाराज युधिष्ठिर के सम्मुख आए तथा उन्होंने महाराज को अपना सम्मान प्रदर्शित किया । महाराज युधिष्ठिर ने ध्यानपूर्वक जरासन्ध के वध और राजाओं की मुक्ति के विषय में सुना । उन्होंने श्रीकृष्ण द्वारा अपनायी गई युक्ति के विषय में भी सुना । महाराज युधिष्ठिर स्वाभाविक रूप से श्रीकृष्ण के प्रति स्नेही थे, परन्तु सम्पूर्ण कथन सुनने के पश्चात् श्रीकृष्ण के प्रति उनका प्रेम और अधिक बढ़ गया । उनके नेत्रों से आनन्द के आँसू बह चले तथा वे इतने चकित हो उठे कि वे बोलने में लगभग असमर्थ थे ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “भगवान् श्रीकृष्ण की हस्तिनापुर में वापसी” नामक तिहत्तरवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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