जरासन्ध की घटना का विवरण सुनने के पश्चात महाराज युधिष्ठिर अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उन्होंने इस प्रकार कहना आरम्भ किया, "मेरे प्रिय श्रीकृष्ण ! आनन्द एवं ज्ञान के हे शाश्वत स्वरूप, श्रीब्रहमा, श्रीशिव एवं राजा इन्द्र सहित इस भौतिक जगत् के कार्यकलापों के उच्च निर्देशक भी आपसे आदेश पाकर उसे सम्पन्न करने के लिए उत्सुक रहते हैं और जब भी वे सौभाग्यवश ऐसे आदेश पाते हैं, वे तत्काल ही उन्हें ग्रहण करके अपने हृदय में अवस्थित करते हैं । हे कृष्ण ! आप अनन्त हैं और यद्यपि हम स्वयं को शाही राजा एवं जगत् के शासक के रूप देखते हैं तथा अपनी निकृष्ट स्थितियों से फूल जाते हैं, तथापि हम हृदय से अत्यन्त दरिद्र हैं । वास्तव में हम आपके द्वारा दण्डित होने के योग्य हैं परन्तु अद्भुत बात यह है कि हमें दण्डित करने के स्थान पर आप हमारे आदेशों को उदारता एवं दयालुतापूर्वक ग्रहण करते हैं और उनका उचित ढंग से पालन करते हैं । आप किसी नाटकीय कलाकार की ही भाँति इन क्रियाओं को निभा रहे हैं । आपकी वास्तविक स्थिति सदैव उच्च है, ठीक सूर्य के समान, जो अपने उदय और अस्त होते समय भी एक ही तापमान पर बना रहता है । यद्यपि उदीयमान सूर्य एवं अस्तंगत सूर्य के बीच तापमान में हम अन्तर का अनुभव करते हैं, तथापि सूर्य का तापमान कभी नहीं बदलता । आप हमेशा ही आध्यात्मिक दृष्टि से साम्यावस्था में रहते हैं, अत: भौतिक क्रियाकलापों की किसी भी परिस्थिति से आप चिन्तित अथवा प्रसन्न नहीं होते । आप परम ब्राह्म, श्रीभगवान् हैं तथा आपके लिए कोई सम्बन्धी नहीं है । मेरे प्रिय माधव ! आप किसी से भी पराजित नहीं हो सकते ।” यह मैं हूँ”, “यह तुम हो”, “यह तुम्हारा है”, “यह मेरा है ।” जैसी भौतिक उपाधियाँ आपमें स्पष्ट रूप से अविद्यमान हैं । ऐसे भेद प्रत्येक के जीवन में दृष्टिगोचर होते हैं, यहाँ तक कि पशुओं के भी, परन्तु जो विशुद्ध भक्त हैं, वे इन मिथ्या भेदों से मुक्त हो जाते हैं । चूँकि ये भेद आपके भक्तों में अविद्यमान हैं, इसलिए वे आपमें विद्यमान नहीं हो सकते ।" इस प्रकार श्रीकृष्ण को सन्तुष्ट करने के पश्चात् महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ सम्पन्न करने का प्रबन्ध किया । उन्होंने सभी योग्य ब्राह्मणों एवं ऋषियों को हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया तथा यज्ञ-शाला में विभिन्न पदों पर पुरोहितों के रूप में नियुक्त किया । उन्होंने अत्यन्त निपुण ब्राह्मणों एवं ऋषियों को आमंत्रित किया, जिनके नाम इस प्रकार हैं : कृष्णद्वैपायन, व्यासदेव, भरद्वाज, सुमन्तु, गौतम, असित, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा, वीरसेन तथा अकृतव्रण । इन सभी ब्राह्मणों एवं ऋषियों के अतिरिक्त उन्होंने द्रोणाचार्य, कुरुओं के पितामह भीष्म, कृपाचार्य तथा धृतराष्ट्र जैसे आदरणीय वयोवृद्ध व्यक्तियों को भी आमंत्रित किया । उन्होंने दुर्योधन के नेतृत्व में धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को भी आमंत्रित किया तथा महान् भक्त विदुर को भी आमंत्रित किया गया । महाराज युधिष्ठिर द्वारा आयोजित महायज्ञ को देखने के लिए विश्व के विभिन्न भागों से राजाओं एवं उनके मंत्रियों तथा सचिवों को भी आमंत्रित किया गया । बुद्धिमान ब्राह्मणों, वीर क्षत्रियों, सम्पन्न वैश्यों तथा निष्ठावान् शूद्रों के साथ साथ नागरिकों ने भी इस समारोह में भाग लिया । इस यज्ञ-सम्बन्धी समारोह के अधिकारी ब्राह्मण-पुजारियों एवं ऋषियों ने प्रथा के अनुसार स्वर्ण के हल से यज्ञ-शाला का निर्माण किया । उन्होंने वैदिक कृत्यों के अनुसार महाराज युधिष्ठिर को इस महायज्ञ का सम्पादनकर्ता के रूप में दीक्षित किया । अनेक वर्षों पूर्व जब वरुण ने इसी प्रकार का महायज्ञ सम्पन्न किया था तब यज्ञ में उपयोग किए गए सभी पात्र स्वर्ण से निर्मित थे । उसी प्रकार, महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के लिए आवश्यक सभी पात्र स्वर्णिम थे । महाराज युधिष्ठिर के द्वारा आयोजित इस महायज्ञ में हिस्सा लेने के लिए ब्रह्माजी, शिवजी तथा स्वर्ग के राजा इन्द्र जैसे उच्च देवतागण उपस्थित थे । उनके साथ सहयोगी भी थे । इसके अतिरक्त गन्धर्वलोक, सिद्धलोक, जनलोक, तपोलोक, नागलोक, यक्षलोक, राक्षसलोक, पक्षीलोक तथा चारणलोक जैसे उच्चलोकों के श्रेष्ठ देवतागण तथा सुप्रसिद्ध राजा एवं उनकी रानियाँ सभी महाराज युधिष्ठिर के निमंत्रण पर उपस्थित थे । वहाँ पर उपस्थित सभी सम्माननीय ऋषियों, राजाओं तथा देवताओं ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया कि राजसूय महायज्ञ को करने की जिम्मेदारी सँभालने के लिए वे पूर्णरूपेण सक्षम थे । इस तथ्य के विषय में असहमति रखने वाला एक भी व्यक्ति न था । वे सभी महाराज युधिष्ठिर की स्थिति को पूर्ण रूप से जानते थे, क्योंकि वे श्रीकृष्ण के एक महान् भक्त थे तथा उनके लिए कोई भी उपलब्धि असाधारण नहीं थी । गुणी ब्राह्मणों एवं पुजारियों ने इस बात का ध्यान रखा कि महाराज युधिष्ठिर द्वारा आयोजित महायज्ञ का सम्पादन ठीक उसी प्रकार हो जिस प्रकार पूर्व युगों में वरुण देवता के द्वारा हुआ था । वैदिक पद्धति के अनुसार जब भी यज्ञ के लिए व्यवस्था की जाती है, तो यज्ञ में भाग लेने वाले सदस्यों को "सोम" नामक पौधे का रस पिलाया जाता है । "सोम" पौधे का रस एक प्रकार का प्राणदायक पेय है । सोमरस को निकालने के दिन महाराज युधिष्ठिर ने उस विशेष पुरोहित का आदरपूर्वक स्वागत किया, जिसे यज्ञ-सम्बन्धी विधियों की औपचारिक गलतियों को खोज निकालने में संलग्न किया गया था । कहने का भाव यह है वैदिक मंत्रों का सही रीति से उच्चारण करना चाहिए एवं सही स्वराघात के साथ उसका कीर्तन करना चाहिए । यदि इस कार्य में रत पुरोहित कोई गलती करता है, तो जाँचकर्ता एवं निर्णायक पुरोहित उसकी विधि में सुधार करता है । इस प्रकार कर्मकाण्डी कृत्यों को सही रीति से सम्पन्न किया जाता है । जब तक उन्हें ठीक से सम्पन्न नहीं किया जाता, तब तक कोई यज्ञ आवश्यक परिणाम उत्पन्न नहीं कर सकता । इस कलियुग में ऐसा जानकार ब्राह्मण अथवा पुरोहित उपलब्ध नहीं है, अतएव ऐसे सभी यज्ञों पर प्रतिबन्ध लगाया गया है । शास्त्रों में संस्तुत एकमात्र यज्ञ हरे कृष्ण महामंत्र का जप है । अन्य महत्त्वपूर्ण विधि यह है कि ऐसे यज्ञ समारोह में उपस्थित सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को अग्रपूजा अर्पित की जाती है । जब युधिष्ठिर महाराज के यज्ञ के लिए सभी व्यवस्था पूरी हो गई, तब दूसरा विचारणीय विषय था कि समारोह में किसकी उपासना करनी चाहिए । यह अग्रपूजा राष्ट्रपति के चुनाव के समान ही है । यज्ञ-सभा में सभी सदस्य श्रेष्ठ थे । कुछ व्यक्तियों ने अग्रपूजा स्वीकार करने के लिए एक व्यक्ति को योग्य प्रत्याशी बताया, तो अन्य लोगों ने किसी दूसरे व्यक्ति को बताया । जब यह विषय अनिर्णीत रहा, तो श्रीसहदेव ने भगवान् श्रीकृष्ण के पक्ष में कहा, "इस सभा में यदु वंश के सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ तथा अपने भक्तों के संरक्षक श्रीकृष्ण ही सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं । अतएव मेरा विचार है कि बिना किसी आपत्ति के श्रीकृष्ण की सर्वप्रथम पूजा करके उन्हें सम्मान देना चाहिए । यद्यपि ब्रह्माजी, शिवजी, स्वर्गलोकों के राजा इन्द्र के समान देवतागण एवं अनेक श्रेष्ठ व्यक्ति इस सभा में उपस्थित हैं, तथापि कोई भी व्यक्ति देश, काल, धन, शक्ति, प्रसिद्धि, बुद्धि, ज्ञान, वैराग्य अथवा अन्य किसी भी सन्दर्भ में श्रीकृष्ण से श्रेष्ठ अथवा उनके समान नहीं हो सकता । जिस वस्तु को भी ऐश्वर्यवान् माना जाता है, वह वस्तु मूल रूप से श्रीकृष्ण में विद्यमान है । जिस प्रकार एक व्यष्टि आत्मा ही उसके भौतिक शरीर के विकास का मौलिक सिद्धान्त है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण इस विराट जगत् के परमआत्मा हैं । सभी प्रकार के वैदिक कर्मकाण्डी समारोह, जैसे-यज्ञों का सम्पादन, अग्नि में बलि का अर्पण, वैदिक मंत्रों का संकीर्तन तथा रहस्यमय योग का अभ्यास-ये सभी श्रीकृष्ण का साक्षात्कार करने के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं । चाहे कोई व्यक्ति सकाम कर्मो का मार्ग अपनाता है या दार्शनिक चिन्तन का मार्ग, परम लक्ष्य श्रीकृष्ण ही हैं । आत्म-साक्षात्कार के सभी प्रामाणिक ढंग श्रीकृष्ण को समझने के उपयोग में लाए जाते हैं । भाइयो और बहनो ! श्रीकृष्ण के विषय में चर्चा करना अनावश्यक है, क्योंकि आप सभी श्रेष्ठ व्यक्ति परब्राह्म भगवान् श्रीकृष्ण को जानते हैं । श्रीकृष्ण के लिए शरीर एवं आत्मा, शक्ति तथा शक्तिमान, अथवा शरीर के दो विभिन्न अंगों के बीच कोई भौतिक अन्तर नहीं है । प्रत्येक व्यक्ति भगवान् श्रीकृष्ण का विभिन्न अंश है, अतएव श्रीकृष्ण एवं सभी जीवात्माओं में कोई अन्तर नहीं है । श्रीकृष्ण की शक्तियाँ अग्नि के ताप और प्रकाश के समान हैं । ताप एवं प्रकाश तथा अग्नि में कोई अन्तर नहीं है । "इसके अतिरिक्त, अपने शरीर के किसी भी अंग से वे कोई भी कार्य कर सकते हैं । हम अपने शरीर के विशेष अंग से एक विशेष कार्य ही कर सकते हैं, परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण अपने शरीर के किसी भी अंग से कोई भी कार्य कर सकते हैं । उनका दिव्य शरीर सनातन आनन्द एवं ज्ञान से परिपूर्ण है, अतएव उनको छह प्रकार के भौतिक परिवर्तनों-जन्म, अस्तित्त्व, विकास, सकाम कर्म, क्षरण और अंत में विनाश-को नहीं झेलना पड़ता । किसी भी बाह्य शक्ति की सहायता के बिना श्रीकृष्ण सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के निर्माण एवं विनाश के परम कारण हैं । मात्र श्रीकृष्ण की कृपा से प्रत्येक व्यक्ति धार्मिकता, आर्थिक इन्द्रियतृप्ति तथा अन्तत: भौतिक बन्धन से मुक्ति के कार्यों में संलग्न रहता है । विकासशील जीवन के इन चार सिद्धान्तों को श्रीकृष्ण की कृपा के द्वारा ही क्रियाशील बनाया जा सकता है । अतएव महायज्ञ की अग्रपूजा श्रीकृष्ण को प्रदान की जानी चाहिए एवं किसी भी व्यक्ति को इससे असहमत नहीं होना चाहिए । जिस प्रकार वृक्ष की जड़ में जल डालने से टहनियों, डालों, पत्तियों एवं फूलों में जल डालने का कार्य अपने-आप ही सम्पन्न हो जाता है, अथवा उदर को भोजन देने से शरीर के सभी अंगों को आहार की पूर्ति स्वयं ही हो जाती है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण की अग्रपूजा करने से महान् देवताओं सहित इस सभा में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति सन्तुष्ट हो जाएगा । यदि कोई पुरुष अत्यन्त दानी है, तो केवल श्रीकृष्ण को ही दान देना उसके लिए हितकर होगा, जो प्रत्येक व्यक्ति के परम-आत्मा हैं, चाहे उस व्यक्ति का जैसा भी शरीर अथवा व्यक्तित्व हो । परम-आत्मा के रूप में श्रीकृष्ण प्रत्येक जीवात्मा में विद्यमान हैं और यदि हम उन्हें सन्तुष्ट कर सकते हैं, तो स्वयं ही प्रत्येक जीवात्मा सन्तुष्ट हो जाएगा ।" श्री सहदेव को श्रीकृष्ण की लीलाओं का ज्ञान होने का सौभाग्य प्राप्त था तथा उनकी लीलाओं का संक्षेप में वर्णन करने के पश्चात् उन्होंने बोलना समाप्त किया । इस भाषण के पश्चात् सभा में उपस्थित सभी सदस्यों ने सहदेव का अनुमोदन किया तथा उनके शब्दों की पुष्टि करते हुए इस प्रकार कहा, "तुम्हारे कहे गए प्रत्येक वाक्य सत्य हैं । तुम्हारे कहे गए प्रत्येक वाक्य सत्य हैं ।" सभी उपस्थित जनों, विशेषकर ब्राह्मणों एवं गुणी ऋषियों द्वारा पुष्टि होने के पश्चात् महाराज युधिष्ठिर ने वैदिक आदेशों के सिद्धान्तों के अनुसार श्रीकृष्ण की पूजा की । सर्वप्रथम महाराज युधिष्ठिर, उनके भ्राताओं, पत्नियों, बच्चों, अन्य सम्बन्धियों एवं मंत्रियों ने भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों को धोकर उस जल को अपने सिर पर छिड़का । इसके पश्चात्, श्रीकृष्ण को विभिन्न प्रकार के पीले रंग के रेशमी वस्त्र अर्पित किए गए तथा आभूषणों का, एक विशाल अम्बार उनके उपयोग के लिए प्रस्तुत किया गया ।
अपने परम प्रिय भगवान् श्रीकृष्ण को सम्मानित करके महाराज युधिष्ठिर ने इतने अधिक आनन्द का अनुभव किया कि उनके नेत्रों से अश्रु टपक पड़े और चाहने पर भी वे श्रीकृष्ण को ठीक प्रकार से देख नहीं सके । इस प्रकार महाराज युधिष्ठिर के द्वारा श्रीकृष्ण की पूजा की गई । उस समय सभा में उपस्थित सभी सज्जन हाथ जोड़कर खड़े हो गए और "जय ! जय ! नमः ! नम: !" का उच्चार करने लगे । जब श्रीकृष्ण की सादर वन्दना करने के लिए सभी उपस्थित जन एकत्रित हो गए, तब आकाश में से फूलों की वर्षा होने लगी । उस सभा में राजा शिशुपाल भी उपस्थित था । अनेक कारणों से वह श्रीकृष्ण का प्रत्यक्ष शत्रु था, विशेषकर इसलिए कि श्रीकृष्ण ने विवाह समारोह से रुक्मिणी देवी का अपहरण किया था । अतएव, वह श्रीकृष्ण का इतना सम्मान एवं उनके गुणों की कीर्ति को सहन नहीं कर पाया । श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन सुनकर प्रसन्न होने के स्थान पर वह अत्यन्त क्रोधित हो उठा । जब सभी ने उठकर श्रीकृष्ण का सम्मान किया, तो वह अपनी गद्दी पर बैठा रहा । परन्तु जब श्रीकृष्ण के सम्मानित किए जाने पर वह क्रोधित हो उठा, तब वह अचानक ही उठा और हाथ उठा उठाकर दृढ़तापूर्वक एवं बिना किसी भय के भगवान् श्रीकृष्ण के विरुद्ध बोलने लगा । वह कुछ इस प्रकार कहने लगा, जिससे श्रीकृष्ण को उसके कथन स्पष्ट रूप से सुनाई दे सकें ।
“भाइयो एवं बहनो ! अब मैं वेदों का यह कथन कि काल एक प्रबल तत्त्व है स्वीकार करता हूँ । उसके विरुद्ध अनेक प्रयास करने के पश्चात् भी काल तत्त्व किसी विरोध के बिना अपनी योजना कार्यान्वित करता है । उदारहण के लिए, कोई व्यक्ति जीवित रहने के लिए अत्यन्त प्रयास कर सकता है, परन्तु जब मुत्यु का समय आता है, तो उसे कोई नहीं बचा सकता । यहाँ मैं देख रहा हूँ कि यद्यपि इस सभा में अनेक निष्ठावान् व्यक्ति उपस्थित हैं, किन्तु काल का प्रभाव इतना बलवान् है कि वे एक लड़के के कथन से पथभ्रमित हो गए हैं, जिसने श्रीकृष्ण के विषय में इतनी मूर्खतापूर्वक बात कही है । यहाँ पर अनेक गुणी ऋषि एवं वयोवृद्ध व्यक्ति उपस्थित हैं, फिर भी उन्होंने एक मूर्ख लड़के के कथन को स्वीकार कर लिया है । इसका अर्थ यह हुआ कि काल के प्रभाव से इस सभा में उपस्थित इतने सम्मानित व्यक्तियों की बुद्धि भी दिग्भ्रमित हो सकती है । यहाँ उपस्थित आदरणीय व्यक्तियों से मैं पूर्णतया सहमत हूँ कि अग्रपूजा करने के योग्य व्यक्ति का चयन करने में वे सक्षम हैं । परन्तु मैं सहदेव के समान लड़के के वक्तव्य से सहमत नहीं हो सकता, जिसने यज्ञ में श्रीकृष्ण की अग्रपूजा को उचित बताया है । मैं देख सकता हूँ कि इस सभा में ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जो कठोर तपस्या कर चुके हैं, जो अत्यन्त सुशिक्षित हैं और जिन्होंने अनेक त्याग किए हैं । अपने ज्ञान एवं मार्गदर्शन के द्वारा वे उन अनेक व्यक्तियों का उद्धार कर सकते हैं, जो भौतिक बन्धन में दुःख भोग रहे हैं । यहाँ पर ऐसे अनेक ऋषि हैं जिनके ज्ञान की कोई सीमा नहीं है । अतएव मैं सोचता हूँ कि उनमें से किसी को भी अग्रपूजा के योग्य चुना जा सकता था, क्योंकि वे महान् देवता गण, राजाओं एवं महाराजाओं के लिए भी पूजनीय हैं । मैं समझ नहीं पा रहा कि आपने इस ग्वाले, श्रीकृष्ण, को क्यों चुना है और अन्य सभी महान् व्यक्तियों को अनदेखा कर दिया है । मैं श्रीकृष्ण को एक कौवे से अधिक कुछ नहीं मानता । वह इस महान् यज्ञ में अग्रपूजा को स्वीकार करने के लिए किस प्रकार योग्य हो सकता है ?
"हम दृढ़तापूर्वक यह भी नहीं कह सकते कि श्रीकृष्ण किस जाति का है और उसका वास्तविक व्यावसायिक कर्तव्य क्या है ?" वास्तव में, श्रीकृष्ण की कोई जाति नहीं है और न ही उन्हें किसी व्यावसायिक कर्तव्य का पालन करना पड़ता है । वेदों में यह कहा गया है कि परम भगवान् को निर्धारित कर्तव्य के रूप में कुछ भी नहीं करना पड़ता है । उन्हें जो कुछ भी करना होता है, वह उनकी विभिन्न शक्तियों के द्वारा सम्पन्न हो जाता है ।
शिशुपाल ने आगे कहा: "श्रीकृष्ण किसी उच्च परिवार से सम्बन्धित नहीं है । वह इतना स्वतंत्र है कि कोई भी व्यक्ति उसके धार्मिक जीवन के सिद्धान्तों को नहीं जानता । ऐसा प्रतीत होता है कि वह सभी धार्मिक सिद्धान्तों के अधिकार-क्षेत्र से परे है । वैदिक आदेशों एवं नियामक सिद्धान्तों की परवाह न करते हुए वह सदैव स्वतंत्र रूप से कार्य करता है । यह सत्य है, क्योंकि वह श्रीभगवान् है । वह निर्गुण है का अर्थ है कि श्रीकृष्ण के एक भी भौतिक गुण नहीं हैं । चूँकि वह भगवान् है, इसलिए वह रूढ़ियों सामाजिक या धार्मिक सिद्धान्तों की चिन्ता किए बिना वह स्वतंत्र रूप से कार्य करता हैं । इन परिस्थितियों में, वह इस यज्ञ में अग्रपूजा को स्वीकार करने के योग्य किस प्रकार हो सकता हैं ? श्रीकृष्ण इतना मूर्ख है कि उसने उस मथुरा को त्याग दिया है, जो वैदिक संस्कृति का पालन करने वाले उन्नत व्यक्तियों से बसा हुआ है । उसने सागर में शरण ली है, जहाँ वेदों की चर्चा मात्र भी नहीं होती । खुलकर रहने के बजाय उसने जल के भीतर एक किला बना लिया है तथा वह ऐसे वातावरण में रह रहा है, जहाँ वेदों के विषय में कोई चर्चा नहीं होती । और वह जब किले से बाहर आता है, तब वह बिना कारण डाकू, चोर-लुटेरों के समान नागरिकों को परेशान करता हैं ।” सभा में सर्वप्रथम पूजनीय व्यक्ति के रूप में श्रीकृष्ण का चयन होने के कारण शिशुपाल पागल हो गया । वह इतनी गैर-जिम्मेदारी से बोलने लगा कि ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह अपना सारा सौभाग्य खो बैठा है । दुर्भाग्य से आच्छन्न होकर, शिशुपाल श्रीकृष्ण को पुन: अपमानित करने लगा । श्रीकृष्ण बिना विरोध किए शान्तिपूर्वक उसे सुनते रहे । जिस प्रकार सियार के झुंड़ के हुआने पर सिंह कोई चिन्ता नहीं करता, उसी प्रकार श्रीकृष्ण शान्त एवं अनुत्तेजित रहे । शिशुपाल द्वारा लगाए गए एक भी आरोप का श्रीकृष्ण ने उत्तर नहीं दिया, परन्तु सभा में उपस्थित जन क्रोधित हो उठे-कुछ को छोड़कर, जो शिशुपाल का समर्थन करते थे क्यों कि एक आदरणीय व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह भगवान् अथवा उनके भक्त की निन्दा नहीं सहे । उनमें से कुछ व्यक्ति, जिनका विचार था कि वे शिशुपाल का ठीक प्रकार से सामना नहीं कर सकते, विरोध में सभा छोड़कर चले गए । उन्होंने अपने हाथों से कान ढँक रख थे, जिससे वे आगे के आरोप न सुन सकें । यह वैदिक आदेश है कि जब भी श्रीभगवान् की निन्दा होती है, तब व्यक्ति को तत्काल ही उस स्थान से प्रस्थान करना चाहिए । यदि वह ऐसा नहीं करता है, तो वह अपने पुण्यकर्मों से वंचित हो जाता है और निम्न जीवन को प्राप्त होता है । वहाँ उपस्थित कुरु वंश, मत्स्य वंश, केकय वंश एवं सृंजय वंश के राजा-गण अत्यन्त क्रोधित हो उठे और शिशुपाल का वध करने के लिए तत्काल ही हाथ में तलवार और ढाल ले ली । यद्यपि सभी उपस्थित राजा-गण उसे मारने के लिए तत्पर थे, तथापि शिशुपाल इतना मूर्ख था कि वह जरा भी नहीं घबराया । उसने अपनी मूर्खतापूर्ण बातों के परिणाम के विषय में विचार नहीं किया और जब उसने देखा कि सभी राजा-गण उसे मारने के लिए तैयार हैं, तो चुप होने के स्थान पर वह हाथ में तलवार और ढाल लेकर लड़ने के लिए तत्पर हो गया । जब भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि शुभ राजसूय महायज्ञ के स्थान पर वे युद्ध आरम्भ करने जा रहे हैं, तो उन्होंने व्यक्तिगत रूप से उन्हें शान्त किया । अपनी अहैतुकी कृपा के द्वारा उन्होंने स्वयं ही शिशुपाल का वध करने का निश्चय किया । जब अपने ऊपर आक्रमण करने जा रहे राजाओं की शिशुपाल निन्दा कर रहा था, तब उन्होंने उस्तरे की धार वाला अपना चक्र उठाया और तुरन्त शिशुपाल के सिर को उसके शरीर से अलग कर दिया ।
इस प्रकार जब शिशुपाल का वध हुआ, तब सभा की भीड़ से एक चिल्लाहट की ध्वनि निकली । परिस्थिति का लाभ उठाते हुए शिशुपाल के समर्थक अपने प्राणों के जाने के भय से जल्दी ही सभा छोड़ बैठे । परन्तु इस घटना के पश्चात् भी सभी सदस्यों की उपस्थिति में शिशुपाल की आत्मा भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर में विलीन हो गयी, जिस प्रकार एक जलता हुआ उल्का पृथ्वी की सतह पर गिरता है । शिशुपाल की आत्मा का श्रीकृष्ण के दिव्य शरीर में विलीन हो जाना हमें जय और विजय की गाथा का स्मरण कराता है, जो चार कुमारों के द्वारा शाप दिए जाने पर वैकुण्ठ लोक से भौतिक जगत् में गिर गए थे । वैकुण्ठ जगत् में उनकी वापसी के लिए यह निश्चित था कि तीन क्रमिक जन्मों तक जय और विजय दोनों श्रीभगवान् के कट्टर शत्रु के रूप में कार्य करेंगे और इन जन्मों के अन्त में वे पुन: वैकुण्ठ जगत् में लौटे जाएँगे और श्रीभगवान् और उनके साथियों की सेवा करेंगे ।
यद्यपि शिशुपाल श्रीकृष्ण का शत्रु बनकर कार्य कर रहा था, तथापि वह एक क्षण के लिए भी कृष्णभावनामृत से पृथक् नहीं था । वह सदैव श्रीकृष्ण के ध्यान में लीन रहता था । अतएव सर्वप्रथम उसे सायुज्य-
मुक्ति की प्राप्ति हुई । वह परमात्मा के अस्तित्त्व में लीन हुआ और अन्तत: व्यक्तिगत सेवा की अपनी स्थिति में उसकी पुनर्स्थापना हुई । श्रीमद्भगवद्गीता इस तथ्य की पुष्टि करती है कि यदि मृत्यु के समय व्यक्ति परम भगवान् के ध्यान में मग्न रहता है, तो वह इस भौतिक शरीर को त्यागने के पश्चात् तत्काल ही श्रीभगवान् के धाम में प्रवेश करता है । शिशुपाल के उद्धार के पश्चात् महाराज युधिष्ठिर ने यज्ञ-सभा में उपस्थित सभी सदस्यों को भेंटें दीं । उन्होंने पुजारियों एवं विद्वान ऋषियों को यज्ञ में सहायता के लिए उपयुक्त मात्रा में उपयुक्त पारिश्रमिक दिया और इन नित्य कर्मों को संपन्न करके उन्होंने स्नान किया । यज्ञ के अन्त में यह स्नान भी शास्त्रीय होता है । इस विधि को अवभूथ स्नान कहते हैं ।
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने राजसूय यज्ञ को सफलतापूर्वक संपन्न होने के योग्य बनाया । उनके सगे-सम्बन्धियों के आग्रह पर वे कुछ और महीनों के लिए हस्तिनापुर में ही रहे । यद्यपि महाराज युधिष्ठिर एवं उनके भ्राता हस्तिनापुर से श्रीकृष्ण का प्रस्थान करना नहीं चाहते थे, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने द्वारका लौटने के लिए महाराज से अनुमति लेने का प्रबन्ध किया और इस प्रकार अपनी रानियों एवं मंत्रियों के साथ वे अपने धाम लौटे ।
जय और विजय के वैकुण्ठ लोक से भौतिक जगत् में गिर जाने की कहानी का वर्णन श्रीमद्-भागवत के सप्तम अध्याय में किया गया है । शिशुपाल के वध का प्रत्यक्ष सम्बन्ध जय और विजय के वृतान्त से है, परन्तु इस घटना से हमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण उपदेश यह मिलता है कि श्रीभगवान् पूर्ण होने से प्रत्येक व्यक्ति को मुक्ति प्रदान कर सकते हैं, चाहे व्यक्ति उनके मित्र के रूप में कार्य करे या शत्रु के रूप में । अतएव यह एक गलत धारणा है कि श्रीभगवान् एक व्यक्ति से मित्र की तरह कार्य करते हैं तथा अन्य व्यक्ति से शत्रु का व्यवहार करते हैं । उनका मित्र अथवा शत्रु होना सदैव परम स्तर पर होता है । इसमें कोई भौतिक भेद नहीं है ।
यज्ञ के पश्चात् स्नान करके जब महाराज युधिष्ठिर सभी विद्वान ऋषियों एवं ब्राह्मणों के मध्य खड़े हुए, तब वे स्वर्ग के देवता के समान प्रतीत हो रहे थे और इसीलिए वे अत्यन्त सुन्दर लग रहे थे । महाराज युधिष्ठिर ने यज्ञ में उपस्थित सभी देवताओं को उचित रूप से पुरस्कृत किया तथा उन सभी देवताओं ने पूर्णरूपेण सन्तुष्ट होकर महाराज के कार्यों की प्रशंसा करते हुए एवं भगवान् श्रीकृष्ण की जय - जयकार करते हुए प्रस्थान किया ।
जब शुकदेव गोस्वामी श्रीकृष्ण के द्वारा शिशुपाल के वध एवं महाराज युधिष्ठिर द्वारा सफलतापूर्वक महायज्ञ सम्पन्न होने की घटनाओं का वर्णन कर रहे थे, तब उन्होंने इस बात की ओर संकेत किया कि सफल समाप्ति के पश्चात् वहाँ केवल एक ही व्यक्ति था, जो अप्रसन्न था । वह था दुर्योधन । अपने पापपूर्ण जीवन के कारण दुर्योधन स्वभाव से ही ईर्ष्यालु था । अपने सम्पूर्ण परिवार का विनाश करने वाले साकार भयंकर रोग के रूप में दुर्योधन प्रकट हुआ था ।
शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को आश्वासन दिया कि भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाएँ-शिशुपाल एवं जरासन्ध का वध और बन्दी राजाओं की मुक्ति-सभी दिव्य ध्वनियाँ है तथा जो व्यक्ति इन कथाओं को प्रामाणिक व्यक्तियों के द्वारा श्रवण करेगा, वह तत्काल ही अपने जीवन के सभी पापपूर्ण कर्म के फलों से मुक्त हो जाता है ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “शिशुपाल का उद्धार” नामक चौहत्तरवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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