गोस्वामी ने सामान्य मनुष्य का अभिनय कर रहे श्रीकृष्ण के विभिन्न कार्यों का वर्णन करते हुए यदुवंश एवं शाल्व नामक असुर के बीच हुए युद्ध के इतिहास का भी वर्णन किया, जो सौभ नामक अद्भुत विमान प्राप्त करने में समर्थ हो गया था । राजा शाल्व शिशुपाल का घनिष्ठ मित्र था । जब शिशुपाल रुक्मिणी से विवाह करने गया, तब शाल्व वरमण्डली के सदस्यों में से एक था । जब यदुवंश के सैनिकों एवं विरोधी दल के राजाओं के बीच युद्ध हुआ, तब यदुवंश के सैनिकों द्वारा शाल्व पराजित हो गया । परन्तु अपनी पराजय के पश्चात् उसने सभी राजाओं के समक्ष यह प्रतिज्ञा की कि भविष्य में वह सम्पूर्ण विश्व से यदुवंश का अस्तित्त्व मिटा देगा । रुक्मिणी के विवाह के मध्य हुए युद्ध के समय से वह भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति एक अविस्मरणीय ईर्ष्या बनाए था । वास्तव में, वह मूर्ख था क्योंकि उसने श्रीकृष्ण का वध करने की प्रतिज्ञा की थी । सामान्य रूप से ऐसे मूर्ख राक्षस अपनी परोक्ष योजनाओं को सम्पन्न करने के लिए शिवजी के समान देवताओं की शरण लेते हैं । अतएव, शक्ति एवं बल की प्राप्ति के लिए शाल्व ने शिवजी के चरणकमलों की शरण ली । उसने कठोर तपस्या की, जिसके मध्य वह मुट्ठी भर भस्म के अतिरिक्त और किसी भी पदार्थ का सेवन नहीं करता था । पार्वती के पतिदेव शिवजी साधारणतया अत्यन्त दयालु हैं तथा यदि उन्हें प्रसन्न करने के लिए कोई कठोर तपस्या करता है, तो तुरन्त ही सन्तुष्ट हो जाते हैं । अत: शाल्व द्वारा एक वर्ष तक कठोर तपस्या किए जाने पर शिवजी प्रसन्न हो गए और उन्होंने शाल्व से अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए वर माँगने को कहा ।
शाल्व ने शिवजी से ऐसे विमान की माँग की, जो इतना शक्तिशाली हो कि उसका किसी भी देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग अथवा राक्षस के द्वारा नाश न हो सके । इसके अतिरिक्त, उसने इच्छा प्रकट की कि उसके इच्छानुसार वह विमान कहीं भी उड़कर जा सके तथा यदु-वंश के लिए खतरनाक एवं भय का कारण हो । शिवजी उसे वह वरदान देने के लिए तैयार हो गए और शाल्व ने इस लोहे के विमान का निर्माण करने के लिए मयासुर की सहायता ली । वह विमान इतना शक्तिशाली और भयानक था कि उसका ध्वंस कोई नहीं कर सकता था । वह एक अत्यन्त भव्य यंत्र था, लगभग एक महानगर के समान तथा वह इतनी ऊँचाई तक और इतनी अधिक गति से उड़ सकता था कि उसकी स्थिति का पता लगाना लगभग असम्भव था, अत: उसपर आक्रमण का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था । चाहे बाहर की ओर कितना ही अंधकार क्यों न हो, उसका चालक उस यान को कहीं भी और प्रत्येक स्थान पर ले जा सकता था । ऐसे अद्भुत विमान को प्राप्त करके, शाल्व उसे द्वारका नगर में उड़ाकर ले गया, क्योंकि उसका प्रमुख उद्देश्य यदुओं के राज्य पर आक्रमण करना था, जिनके प्रति वह सदैव वैर-भाव रखता था ।
इस प्रकार शाल्व ने न केवल द्वारका नगर पर आक्रमण किया, अपितु उसने उस नगर को पैदल सेना से घेर लिया । जमीन पर सैनिकों ने नगर के सुन्दर स्थलों पर आक्रमण करना आरम्भ कर दिया । वे स्नानगृहों, नगर-द्वारों, महलों एवं गगनचुम्बी भवनों का विध्वंस करने लगे । उन्होंने नगर की चारों दिशाओं में स्थित ऊँची दीवारों तथा मनोरंजन के लिए उपयोग में लाए जाने वाले सुन्दर महलों को भी नहीं छोड़ा । एक ओर जहाँ जमीन पर सैनिक हमला कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर उसका विमान चट्टानों, वृक्ष के तनों, वज्रों, विषैले सर्पों तथा अन्य अनेक घातक वस्तुओं की वर्षा करने लगा । शाल्व ने सफलतापूर्वक नगर में ऐसा शक्तिशाली चक्रवात उत्पन्न किया कि धूल के द्वारा आकाश के ढँक जाने पर सम्पूर्ण द्वारका में अंधकार छा गया । शाल्व के द्वारा अधिकृत विमान ने सम्पूर्ण द्वारका पर ठीक उसी प्रकार का संकट उत्पन्न कर दिया जैसे कि पृथ्वी पर अनेकानेक वर्षों पूर्व त्रिपुरासुर की गतिविधियों के द्वारा उत्पन्न हुआ था । द्वारकापुरी के निवासी इतने परेशान हो गए कि उन्हें एक क्षण के लिए भी शान्ति नहीं थी ।
प्रद्युम्न के समान अधिकारियों के नेतृत्व में द्वारका नगर के महान् वीरों ने शाल्व के विमान और सैनिकों पर प्रत्याक्रमण किया । जब उन्होंने नागरिकों के अत्यन्त दुर्भाग्य को देखा, तब श्रीप्रद्युम्न ने तुरन्त ही सैनिकों की व्यवस्था की तथा नागरिकों को सुरक्षा का आश्वासन देकर प्रोत्साहित करते हुए वे स्वयं एक रथ पर सवार हुए । उनके आदेश का पालन करते हुए सात्यकि, चारुदेष्ण तथा साम्ब के समान अनेक वीर, प्रद्युम्न के सभी छोटे भ्राता तथा अक्रूर, कृतवर्मा, भानुविन्द, गद, शुक तथा सारण-सभी शाल्व से युद्ध करने के लिए नगर से बाहर आ गए । ये सभी महान् योद्धा थे, प्रत्येक वीर हजारों व्यक्तियों से लड़ने का सामथ्रय रखते थे । सभी वीर आवश्यक अस्त्रों से लैस तथा हजारों सारथियों, हाथियों, घोड़ों तथा पैदल सैनिकों से परिपूर्ण थे । दोनों दलों में भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ, जिस प्रकार भूतकाल में देवताओं एवं असुरों में हुआ करता था । युद्ध अत्यन्त भीषण था तथा जिसने भी उस लड़ाई की भयानक प्रकृति को देखा, उसने अनुभव किया कि उसके रोंगटे खड़े हो गए हैं ।
श्रीप्रद्युम्न ने तत्काल ही शाल्व के विमान के द्वारा उत्पन्न रहस्यमय प्रदर्शन को निष्फल कर दिया । विमान की रहस्यमय शक्ति के द्वारा, शाल्व ने रात के समान घने अंधकार को उत्पन्न कर दिया था, परन्तु अचानक ही उदीयमान सूर्य के समान प्रद्युम्न प्रकट हुए । जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही रात का अंधकार लुप्त हो जाता है, उसी प्रकार प्रद्युम्न के प्रकट होने पर शाल्व द्वारा प्रदर्शित शक्ति शून्य एवं प्रभावहीन हो गयी । प्रद्युम्न के प्रत्येक बाण में एक स्वर्ण पंख लगा हुआ था तथा उसका अगला भाग लोहे का होने के कारण अत्यन्त तीक्ष्ण था । ऐसे पच्चीस बाणों को छोड़कर श्रीप्रद्युम्न ने शाल्व के सेनापति को गम्भीर रूप से घायल कर दिया । उसके पश्चात् उन्होंने प्रत्येक सैनिक को एक-एक बाण मार कर जख्मी कर डाला तथा प्रत्येक सारथि पर दस-दस बाण छोड़कर उन्हें मार डाला । घोड़ों एवं हाथियों जैसे संवाहक उनकी ओर छोड़े गए तीन बाणों से मारे गए । जब युद्धस्थल में उपस्थित सभी जनों ने प्रद्युम्न के इस अद्भुत साहसिक कार्य को देखा, तब दोनों दलों के महान् योद्धा उनके शौर्य के कार्यों की प्रशंसा करने लगे ।
फिर भी शाल्व के द्वारा अधिकृत विमान अत्यन्त रहस्यमय था । वह इतना असाधारण था कि कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता कि आकाश में अनेकानेक विमान हैं और कभी लगता कि एक भी विमान नहीं है । कभी वह दृष्टिगोचर होता था और कभी अदृश्य होता था, इससे यदुवंश के वीर उस रहस्यमय विमान के विषय में भ्रमित हो गए । वे विमान को कभी धरती पर, तो कभी आकाश में उड़ता हुआ पाते थे । कभी वे उसे पहाड़ की चोटी पर पाते, तो कभी पानी पर तैरता हुआ । वह अद्भूत विमान पवन में उड़ते हुए जुगनू के समान आकाश में उड़ रहा था-वह एक क्षण के लिए भी स्थिर नहीं था । परन्तु वायुयान के रहस्यमय दुरुपयोग के उपरान्त, यदुवंश के सेनापति एवं सैनिक शाल्व की ओर दौड़ पड़ते, फिर चाहे वह जहाँ भी अपने विमान एवं सैनिकों के साथ होता । यदुवंश के द्वारा छोड़े गए बाण सूर्य के समान प्रकाशित तथा सर्पों की जिह्वा के समान खतरनाक थे ।
शाल्व के पक्ष में लड़ रहे सभी सैनिक यदुवंश के वीरों द्वारा निरन्तर छोड़े गए बाणों से व्यथित हो गए तथा इन बाणों के आक्रमण से स्वयं शाल्व भी अचेत पड़ गया । शाल्व के पक्ष में लड़ रहे सैनिक एवं योद्धा भी अत्यन्त बलवान थे एवं उनके द्वारा भी बाण छोड़ने पर यदुवंश के वीर परेशान हो गए । परन्तु इसके पश्चात् भी यादव इतने शक्तिशाली और दृढ़ थे कि वे अपनी निश्चित स्थितियों से विचलित नहीं हुए । यदुवंश के वीर युद्धभूमि पर मरने अथवा विजय प्राप्त करने के लिए दृढ़ थे । वे इस सत्य के विषय में इतने विश्वस्त थे कि यदि वे लड़ते-लड़ते मर गए, तो वे वैकुण्ठ लोक को प्राप्त करेंगे और यदि वे विजयी रहे, तो वे इस विश्व का आनन्दस्वादन करेंगे । शाल्व के सेनापति का नाम द्युमान था । वह अत्यन्त बलवान था । यद्यपि वह प्रद्युम्न के पच्चीस बाणों से घायल था तथापि उसने अचानक ही अपनी भयानक गदा से इतना भरपूर वार किया कि प्रद्युम्न अपनी चेतना खो बैठे । तत्काल ही सर्वत्र यह ध्वनि गूँज उठी, "अब वह मर चुका है । अब वह मर चुका है ।" प्रद्युम्न की छाती पर गदा का वार अत्यन्त खतरनाक था जिससे सामान्य व्यक्ति की छाती के टुकड़े-टुकड़े किए जा सकते थे ।
प्रद्युम्न के रथ का सारथि दारुक का पुत्र था । वैदिक सैन्य-सिद्धान्तों के अनुसार सारथि एवं रथ पर उपस्थित वीर को युद्ध के मध्य एक दूसरे का सहयोग करना पड़ता है, अतएव सारथि का यह कर्तव्य था कि वह युद्धस्थल पर आपत्ति काल में अपने रथ पर विद्यमान वीर की सहायता करे । इसलिए दारुक ने युद्धभूमि से प्रद्युम्न के शरीर को हटा लिया ।
दो घण्टों के पश्चात् शान्त स्थान पर प्रद्युम्न की चेतना वापस लौट आई तथा जब उन्होंने देखा कि वे युद्धभूमि के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान पर हैं, तो उन्होंने सारथि को सम्बोधन किया और वे उसकी निन्दा करने लगे -
"ओह ! तुमने अत्यन्त घृणित कार्य किया है । तुमने मुझे युद्धभूमि से क्यों हटाया ? प्रिय सारथि ! मैंने यह कभी नहीं सुना कि हमारे वंश में किसी को कभी युद्धभूमि से हटाया गया हो । उनमें से कोई भी लड़ते हुए युद्धभूमि छोड़कर नहीं गया । मुझे इस प्रकार हटाकर, तुमने मुझे अत्यन्त निन्दित किया है । अब ऐसी चर्चा होगी कि मैं युद्ध के बीच से युद्धभूमि छोड़कर चला गया । मेरे प्रिय सारथि ! मैं तुमपर आरोप लगाता हूँ-तुम एक कायर तथा नपुंसक हो । मुझे बताओ तो, मैं अपने ताऊ बलराम जी तथा पिता श्रीकृष्ण के सम्मुख क्या मुख लेकर जाऊँगा तथा मैं उनसे क्या कहूँगा ? सभी लोग मेरे विषय में चर्चा करेंगे तथा कहेंगे कि मैं युद्धभूमि छोड़ कर चला गया तथा जब इस विषय में वे मुझसे पूछ-ताछ करेंगे, तो मेरा क्या उत्तर होगा ? मेरी भाभियाँ इस प्रकार व्यंग्यपूर्ण शब्दों में मेरी खिल्ली उड़ाएँगी, “मेरे प्रिय वीर ! आप कब से कायर बन गए हैं ? क्या आप नपुंसक बन गए हैं ? क्या आप अपने विरोधीदल के योद्धाओं की दृष्टि में इतने गिर गए हैं ?” मेरे प्रिय सारथी! मेरा विचार है,कि तुमने मुझे युद्धभूमि से हटाकर एक भयंकर अपराध किया है ।” प्रद्युम्न के सारथि ने उत्तर दिया, "प्रिय महोदय ! मैं आपकी दीर्घायु की कामना करता हूँ । मेरे विचार से मैंने कोई भी गलत कार्य नहीं किया है, क्योंकि आपात्काल में रथ के योद्धा की रक्षा करना सारथि का कर्तव्य है । महोदय ! आप युद्धविद्या में पूर्णरूपेण सुनिपुण हैं । सारथि एवं योद्धा का यह पारस्परिक कर्तव्य है कि वे खतरनाक स्थिति में एक-दूसरे की सहायता करें । मैं युद्ध के सिद्धान्तों से पूर्णतया परिचित था तथा मैंने अपना कर्तव्य निभाया है । शत्रु ने अचानक ही अपनी गदा से आप पर इतने भयंकर रूप से आक्रमण किया कि आप अपनी चेतना खो बैठे । आप अपने शत्रुओं से घिरे हुए एक खतरनाक स्थिति में थे । अतएव मैं इस प्रकार कार्य करने के लिए बाध्य था ।"
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “यदुवंश के सदस्यों एवं शाल्व के बीच युद्ध” नामक छिहत्तरवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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