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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 77: शाल्व का उद्धार  » 
 
 
 
 
 
दारुक के पुत्र अर्थात् अपने सारथि के साथ वार्ता करने के पश्चात् श्रीप्रद्युम्न ने वास्तविक स्थिति समझ ली, अतएव अपना मुख एवं भुजाएँ धोकर उन्होंने ने स्वयं में पुन: स्फूर्ति का संचार किया । स्वयं के बाण एवं धनुष संभालकर करके, उन्होंने अपने सारथि से कहा कि मुझे शाल्व के सेनापति के समीप ले चलो । युद्धस्थल से श्रीप्रद्युम्न की क्षणिक अनुपस्थिति के मध्य शाल्व का सेनापति, द्युमान, यदुवंश के सैनिकों पर विजय प्राप्त करता जा रहा था । युद्धभूमि में प्रकट होकर प्रद्युम्न ने उसे तत्काल ही रोक दिया और उस पर आठ बाणों की वर्षा की । चार बाणों से उन्होंने उसके चार घोड़े मार डाले, एक बाण से उसके सारथि का वध कर दिया तथा एक और बाण से उसने धनुष के दो टुकड़े कर दिए, एक अन्य से उसके झंडे के अनेकानेक टुकड़े कर दिये तथा एक से उन्होंने उसके सिर को अलग कर दिया । दूसरे भाग में गद, सात्यकि तथा साम्ब जैसे वीर योद्धा शाल्व के सैनिकों का वध करने में संलग्न थे । जो सैनिक शाल्व के साथ विमान में बैठे थे वे युद्ध में मारे गए और सागर में गिर पड़े । दोनों दल अपने विरोधी दलों पर गम्भीरतापूर्वक आक्रमण करने लगे । युद्ध भयानक और खतरोंपूर्ण था तथा सत्ताईस दिनों तक अनवरत चलता रहा । जब द्वारका नगर में युद्ध हो रहा था, तब श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों एवं महाराज युधिष्ठिर के साथ रह रहे थे । शाल्व के साथ युद्ध की यह घटना शिशुपाल के वध तथा महाराज युधिष्ठिर के द्वारा राजसूय यज्ञ के सम्पादन के पश्चात् घटी । जब भगवान् श्रीकृष्ण को ज्ञात हुआ कि द्वारका नगर में चारों ओर संकटपूर्ण स्थिति पैदा हो रही है, तो उन्होंने पाण्डव परिवार के वयोवृद्ध सदस्यों, विशेषकर अपनी बुआ कुन्ती देवी से अनुमति लेकर द्वारका के लिए प्रस्थान किया ।

भगवान् श्रीकृष्ण विचार करने लगे कि शिशुपाल के वध के पश्चात् जब वे बलराम के साथ हस्तिनापुर आ रहे थे, तब शिशुपाल के साथियों ने द्वारका पर आक्रमण किया होगा, द्वारका पहुँचने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि सम्पूर्ण नगर अति संकटापन्न था । नगर की सुरक्षा के हेतु श्रीकृष्ण ने श्रीबलराम को एक महत्त्वपूर्ण स्थिति में स्थापित कर दिया तथा अपने सारथि दारुक को आगे बढ़ने के लिए सूचित किया । उन्होंने कहा, "दारुक ! मुझे उस स्थान पर ले चलो जहाँ शाल्व है । तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि शाल्व एक अत्यन्त शक्तिशाली तथा रहस्यमय व्यक्ति है । तुम तनिक भी उससे न ड़रो ।" जैसे ही दारुक को भगवान् श्रीकृष्ण से आज्ञा प्राप्त हुई, वैसे ही दारुक ने श्रीकृष्ण को रथ पर बिठाया तथा शीघ्र ही शाल्व की ओर चल पड़ा ।

भगवान् श्रीकृष्ण के रथ पर गरुड़ के चिह्न का झंडा था और यदुवंश के सैनिकों तथा वीरों ने उस झंडे को देखा, तो वे समझ गए कि श्रीकृष्ण युद्धस्थल पर पहुँच गए हैं । इस समय तक शाल्व के लगभग सभी सैनिकों का वध हो चुका था, परन्तु जब शाल्व ने देखा कि श्रीकृष्ण युद्धभूमि पर पहुँच गए हैं, तब उसने एक भव्य शक्तिशाली अस्त्र छोड़ा, जो भव्य उल्का के समान गर्जन करते हुए गगन की ओर उड़ चला । वह इतना प्रकाशमय था कि उसकी उपस्थिति मात्र से सम्पूर्ण आकाश प्रकाशित हो उठा । परन्तु प्रकट होते ही श्रीकृष्ण ने अपना एक बाण छोड़कर उस भयानक अस्त्र के सैकड़ों-हजारों टुकड़े कर दिए ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने सोलह बाण शाल्व की ओर छोड़े तथा बाणों की वर्षा करके उन्होंने विमान को पराजित कर दिया, जिस प्रकार सूर्य सम्पूर्ण निर्मल अम्बर को अपनी किरणों के अनन्त अणुओं से अभिभूत कर लेता है । शाल्व ने श्रीकृष्ण की बायीं ओर भयानक रूप से आक्रमण किया, जिधर श्रीभगवान् ने अपना "शारंग" नामक धनुष धारण कर रखा था । इससे श्रीकृष्ण के हाथ से धनुष गिर पड़ा । धनुष का इस प्रकार गिरना निस्सन्देह अद्भुत था । महान् व्यक्ति एवं देवतागण, जो श्रीकृष्ण एवं शाल्व के बीच इस युद्ध का अवलोकन कर रहे थे, अत्यन्त उद्विग्न हो उठे तथा वे हाय ! हाय ! करने लगे ।

शाल्व ने सोचा कि वह विजयी हो गया है, अत: गर्जन के साथ वह श्रीकृष्ण को इस प्रकार सम्बोधित करने लगा, "दुष्ट कृष्ण ! तुमने हमारी उपस्थिति में बलपूर्वक रुक्मिणी का अपहरण किया । तुमने मेरे मित्र शिशुपाल के साथ छल करके स्वयं रुक्मिणी से विवाह किया । युधिष्ठिर महाराज के राजसूय यज्ञ में जब मेरे मित्र शिशुपाल का ध्यान दूसरी ओर बँट गया था, तब तुमने उसका वध करने का सुअवसर प्राप्त कर लिया । सभी लोग सोचते हैं कि तुम एक महान् योद्धा हो और तुम्हें कोई पराजित नहीं कर सकता, अतएव अब तुम्हें अपनी शक्ति का प्रमाण प्रस्तुत करना होगा । मेरा विचार है कि यदि तुम मेरे सम्मुख और अधिक खड़े रहे, तो तीक्ष्ण बाण के द्वारा मैं तुम्हें ऐसे स्थान पर पहुँचा दूँगा जहाँ से तुम कभी भी लौटकर नहीं आ सकोगे ।” इसपर श्रीभगवान् ने उत्तर दिया, "मूर्ख शाल्व ! तुम मूर्खतापूर्वक बातें कर रहे हो । तुम्हें ज्ञात नहीं है कि तुम्हारी मौत का क्षण समीप आ गया है । जो वीर होते हैं, वे अधिक बातें नहीं करते हैं । वे अपना पराक्रम उदात्त कार्यों के व्यावहारिक प्रदर्शन के द्वारा प्रमाणित करते हैं ।" ऐसा कहने के पश्चात् अत्यन्त क्रोध में आकर श्रीकृष्ण ने गदा से शाल्व की हँसली पर इतनी कठोरतापूर्वक वार किया कि भीतर ही भीतर रक्त-स्राव होने लगा तथा वह कुछ इस प्रकार काँपने लगा मानो वह अत्यन्त ठण्ड के कारण प्राणरहित हो जाने वाला है । तथापि इससे पहले कि श्रीकृष्ण उस पर पुन: आक्रमण कर पाते, शाल्व अपनी रहस्यमय शक्ति की सहायता से अदृश्य हो गया ।

कुछ ही क्षणों में, एक रहस्यमय अज्ञात व्यक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के सम्मुख आया । वह श्रीभगवान् के चरणकमलों में झुका और उनसे कहा, "आप अपने पिता वसुदेव के अति प्रिय पुत्र हैं, अतएव माता देवकी ने मुझे आपके पास यह सूचित करने के लिए भेजा है कि आपके पिता को शाल्व ने बन्दी बनाकर उन्हें बलपूर्वक अपने अधिकार में ले लिया है । वह उन्हें ठीक उसी प्रकार ले गया, जिस प्रकार एक कसाई पशु को निर्दयता के साथ ले जाता है ।" जब भगवान् श्रीकृष्ण ने इस अज्ञात व्यक्ति से इस दुर्भाग्यपूर्ण समाचार को सुना, तो सर्वप्रथम सामान्य व्यक्ति की भाँति वे अत्यन्त उद्विग्न हुए । उनका मुख दुःख के चिह्न प्रदर्शित कर रहा था तथा वे दयनीय मुद्रा में चिल्ला उठे, "ऐसा कैसे सम्भव हो सकता है ? मेरे भ्राता श्री बलराम वहाँ पर उपस्थित हैं तथा बलरामजी को पराजित करना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है । वे द्वारका नगर के अधिकारी हैं तथा मुझे ज्ञात है कि वे सदैव सचेत रहते हैं । शाल्व किस प्रकार नगर में प्रवेश करके मेरे पिताजी को ऐसे बन्दी बना सकता है ? चाहे वह कुछ भी हो, शाल्व की शक्ति सीमित है, अतएव यह कैसे सम्भव हो सकता है कि बलरामजी के बल को पराजित करके उसने मेरे पिताजी को बन्दी बना लिया है, जैसाकि इस व्यक्ति ने वर्णित किया है ? आह ! अन्तत: भाग्य बहुत बलवान है ।"

जब श्रीकृष्ण इस प्रकार सोच रहे थे तब शाल्व उनके सम्मुख एक ऐसे व्यक्ति को ले आया, जो पूर्णतया उनके पिता के समान प्रतीत हो रहा था । ये सभी शाल्व की रहस्यमय शक्तियों की रचनाएँ थीं । शाल्व श्रीकृष्ण को सम्बोधन करने लगा, "मूर्ख कृष्ण ! देखो । यह तुम्हारे पिता हैं जिन्होंने तुम्हें जन्म दिया तथा जिनकी कृपा से तुम अभी भी जीवित हो । अब तुम देखते रहो कि किस प्रकार मैं तुम्हारे पिता का वध करता हूँ । यदि तुममें तनिक भी बल है, तो तुम उनकी रक्षा करने का प्रयत्न करो ।" रहस्यमय जादूगर शाल्व ने इस प्रकार श्रीकृष्ण के सम्मुख कहते हुए तत्काल ही नकली वसुदेव का सिर काट डाला और बिना हिचकिचाहट के उसने उस मृत शरीर को लेकर विमान में रख दिया । श्रीकृष्ण स्वयं में पूर्ण श्रीभगवान् हैं, तथापि वे एक मानव का अभिनय कर रहे थे, अतएव एक क्षण के लिए वे अत्यन्त निराश हो उठे । उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सचमुच ही उनके पिता का वध हो चुका है । परन्तु अगले ही क्षण वे समझ गए कि उनके पिता का वध एवं बन्दी बनाना शाल्व की रहस्यमय शक्तियों का प्रदर्शन हैं, जिन्हें शाल्व ने मयासुर से सीखा था । अपनी वास्तविक चेतना में लौटने के पश्चात्, वे समझ गए कि वहाँ न तो कोई दूत था और न ही उनके पिता का सिर, परन्तु केवल शाल्व ही अपने विमान से आया था, जो पास ही उड़ रहा था । तब वे शाल्व का वध करने की सोचने लगे ।

श्रीकृष्ण की यह प्रतिक्रिया महान् अधिकारियों एवं सन्त पुरुषों में विवादास्पद विषय है । सम्पूर्ण ज्ञान एवं शक्ति के भण्डार भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार कैसे भ्रान्त हो सकते थे ? विलाप, खिन्नता तथा घबड़ाहट बद्ध जीवात्माओं वाले व्यक्तियों की विशेषता है, परन्तु ऐसी वस्तुएँ परम पुरुष को कैसे प्रभावित कर सकती हैं, जो ज्ञान, शक्ति एवं सभी ऐश्वर्यों में परिपूर्ण हो ? वास्तव में, यह सम्भव ही नहीं है कि शाल्व की रहस्यमय चातुरी से भगवान् श्रीकृष्ण भ्रमित हो गए । वे मानव के अभिनय में अपनी लीला का प्रदर्शन कर रहे थे । महान् सन्त पुरुष एवं ऋषि, जो भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की भक्तिसेवा में संलग्न हैं तथा जिन्होंने इस प्रकार आत्म साक्षात्कार की चरम सिद्धि प्राप्त कर ली है, जीवन की शारीरिक धारणाओं की सम्भ्रान्तियों को पार कर चुके हैं । ऐसे सन्त पुरुषों को लिए भगवान् श्रीकृष्ण ही परम लक्ष्य है । तब भगवान् श्रीकृष्ण शाल्व की रहस्यमय चातुरी से कैसे भ्रमित हो सकते थे ? निष्कर्ष यह है कि भगवान् श्रीकृष्ण का किंकर्तव्यविमूढ़ होना उनका एक अन्य ऐश्वर्य है ।

जब शाल्व ने सोचा कि श्रीकृष्ण उसके रहस्यमय प्रदर्शन के कारण भ्रान्त हो गए हैं, तब वह अत्यन्त प्रेरित हो उठा और अनेकानेक बाणों की वर्षा करके अधिक शक्ति एवं बल के साथ श्रीभगवान् पर आक्रमण करने लगा । परन्तु शाल्व के उत्साह की तुलना पतंगों के द्वारा तेजी से अग्नि में जाने के कार्य से की जा सकती है । भगवान् श्रीकृष्ण ने अपार शक्ति के साथ बाण चलाकर शाल्व को घायल कर दिया, जिससे उसके कवच, धनुष तथा रत्न-जटित शिरस्त्राण टुकड़े-टुकड़े हो गए । श्रीकृष्ण की गदा के भयंकर प्रहार से शाल्व के विमान के टुकड़े-टुकड़े हो गए । शाल्व अत्यन्त सावधान था तथा विमान के साथ नीचे गिरने के स्थान पर वह धरती पर छलाँग लगाने में समर्थ हो गया । वह पुन: श्रीकृष्ण की ओर लपका । शाल्व जब अत्यन्त तेज गति से श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने के हेतु दौड़ा, तब श्रीकृष्ण ने उसका हाथ काट लिया, जो गदा-सहित धरती पर गिर पड़ा । अन्तत: उसका वध करने का निश्चय करके श्रीभगवान् ने अद्भुत चक्र धारण किया, जो भौतिक सृष्टि के विनाश के काल में प्रकाशमय सूर्य के समान चमक रहा था । जब शाल्व का वध करने के लिए श्रीकृष्ण उठे, तब वे पर्वत पर उदीयमान लाल सूर्य के समान प्रतीत हो रहे थे । तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण ने उसका सिर काट डाला । कर्णफूलों एवं शिरस्त्राण सहित उसका सिर धरती पर गिर पड़ा । इस प्रकार शाल्व का वध ठीक उसी प्रकार हुआ, जैसे स्वर्ग के राजा इन्द्र द्वारा वृत्रासुर का वध हुआ था ।

जब शाल्व का वध हो गया, तो उसके सभी सैनिक तथा अनुयायी “हाय ! हाय !" करके चिल्लाने लगे । जब शाल्व के सैनिक इस प्रकार चिल्ला रहे थे, तब स्वर्गलोकों से देवताओं ने श्रीकृष्ण पर फूलों की वर्षा की तथा ढोल और बिगुल बजाकर उनकी विजयघोषणा की । इसी क्षण दन्तवक्र आदि शिशुपाल के अन्य मित्र उसकी मुत्यु का बदला लेने के हेतु श्रीकृष्ण से लड़ने के लिए घटनास्थल पर प्रकट हुए । श्रीकृष्ण के समक्ष जब दन्तवक्र प्रकट हुआ, तब वह अत्यन्त क्रोधित था ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “शाल्व का उद्धार” नामक सतहत्तरवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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