बलरामजी ने बल्वलासुर का सामना करने के लिए तैयारी की । उसी समय उस असुर ने उस पवित्र स्थान पर आक्रमण किया, उस समय एक भयंकर ओला-वृष्टि हुई, सम्पूर्ण आकाश धूल से ढक गया तथा वातावरण दुर्गन्ध से भर गया । इसके कुछ ही समय बाद, दुष्ट बल्वलासुर ने यज्ञ की वेदी पर प्रचुर मात्रा में मल एवं मूत्र तथा अन्य अशुद्ध पदार्थों की वर्षा की । इस अभ्याघात के पश्चात्, असुर अपनी भुजाओं में एक त्रिशूल लिए प्रकट हुआ । वह एक विशाल व्यक्ति था तथा उसका काला शरीर कोयले के एक विशाल ढेर के समान था । उसके केश, उसकी दाढ़ी तथा मूंछ ताम्बे की भाँति लाल प्रतीत हो रही थीं तथा उसकी बड़ी दाढ़ी और मूंछ से उसका चेहरा अत्यन्त भयानक प्रतीत हो रहा था । जैसे ही बलराम ने उस असुर को देखा, वैसे ही वे उस पर आक्रमण करने के लिए तैयार हो गए । वे सर्वप्रथम यह विचार करने लगे कि किस प्रकार उस असुर के टुकड़े-टुकड़े कर सकते हैं । बलरामजी ने अपनी गदा एवं हल का स्मरण किया तथा वे दोनों वस्तुएँ तत्काल ही उनके सम्मुख प्रकट हो गयीं । बल्वलासुर आकाश में उड़ रहा था तथा प्रथम अवसर पर ही श्रीबलराम ने अपने हल के द्वारा उसे नीचे घसीट लिया और क्रोधित होकर अपनी गदा से असुर के सिर को चूर कर डाला । बलरामजी के द्वारा आक्रमण करने पर असुर का ललाट फट गया । उसके ललाट में से अत्यधिक रक्त बहने लगा तथा वह जोर-जोर से चीखने लगा । इस प्रकार वह असुर जो धर्मपरायण ब्राह्मणों के लिए घोर अशान्ति का कारण था, धरती पर गिर पड़ा । उसका गिरना विशाल पर्वत की रक्त वर्ण वाली चोटी पर वज्रपात होने तथा धरती पर टूट पड़ने के समान था । नैमिषारण्य के निवासी, विद्वान ऋषि तथा ब्राह्मण, यह दृश्य देखकर प्रसन्न हो उठे तथा उन्होंने अपनी सादर वन्दनाएँ बलराम जी को अर्पित कीं । उन्होंने हार्दिक आशीर्वाद अर्पित किए तथा सभी ने स्वीकार किया कि कुछ-भी करने का श्रीबलराम का प्रयास कभी-भी असफल नहीं होता । ऋषियों एवं ब्राह्मणों ने तत्पश्चात् श्रीबलराम-धर्मानुष्ठान-स्नान-
समारोह सम्पन्न कराया जैसे राजा इन्द्र को असुरों पर विजय पाने के अवसर पर देवताओं द्वारा स्नान कराया जाता है । ब्राह्मणों एवं ऋषियों ने श्रीबलराम को सर्वोत्तम नवीन वस्त्र तथा आभूषण और विजय की कमल-पुष्प-माला भेंट में देकर सम्मानित किया । वह माला सर्व-सौन्दर्य का भण्डार थी, जो कभी न सूखकर सदैव ताजा रहने वाली थी ।
इस घटना के पश्चात्, श्रीबलराम ने नैमिषारण्य में उपस्थित सभी ब्राह्मणों से आज्ञा ली तथा अन्य ब्राह्मणों सहित, वे कौषिकी नदी के तट पर पहुँचे । इस पवित्र स्थल पर स्नान करने के पश्चात् वे सरयू नदी की ओर बढ़े तथा अन्ततः वे प्रयाग पहुँच गए, जहाँ पर गंगा, यमुना एवं सरस्वती का संगम होता है । यहाँ पर भी उन्होंने नियमित रूप से स्नान किया, भगवान् के स्थानीय मन्दिरों के दर्शन किए तथा, जैसाकि वैदिक साहित्य में आदेश दिया गया है, पितरों एवं ऋषियों को तर्पण किया । अन्तत: वे पुलह ऋषि के आश्रम में पहुँचे तथा वहाँ से गोमती नदी पर स्थित गण्डकी गए । विपाशा नदी में स्नानोपरान्त क्रमश: वे शोण नदी के तट पर आए । (आज भी शोण नदी बिहार प्रदेश की बड़ी नदियों में से एक के रूप में बह रही है ।) उन्होंने वहाँ पर भी स्नान किया तथा वैदिक कर्मकाण्ड सम्पन्न किया । उन्होंने अपनी यात्रा को चालू रखा तथा क्रमश: वे तीर्थनगर गया में पहुँचे, जहाँ पर श्रीविष्णु का एक प्रसिद्ध मन्दिर है । अपने पिता वसुदेव के परामर्श के अनुसार उन्होंने इसी विष्णु-मन्दिर में अपने पूर्वजों को तर्पण किया । यहाँ से वे गंगा नदी के मुहाने पर पहुँचे, जहाँ पवित्र गंगा नदी बंगाल की खाड़ी में मिलती है । इस पवित्र स्थान को गंगासागर कहा जाता है तथा जनवरी के अन्त में हर वर्ष, आज भी सन्त पुरुषों एवं पुण्यपुरुषों की विशाल सभा होती है, जिस प्रकार हर वर्ष प्रयाग में सन्त पुरुषों की सभा होती है-जिसे माघ-मेला कहते हैं ।
गंगासागर में स्नान तथा अन्य कर्मकाण्डीय समारोहों की समाप्ति करने के उपरान्त, बलरामजी महेन्द्र पर्वत की ओर अग्रसर हुए । इस स्थान पर वे श्रीकृष्ण के अवतार श्रीपरशुराम से मिले तथा उन्होंने उनके सम्मुख झुककर वन्दना करके उनको सम्मानित किया । इसके पश्चात् अन्तत: वे दक्षिण भारत की ओर मुड़े तथा उन्होंने गोदावरी नदी के दर्शन किए । गोदावरी नदी में स्नान करने तथा आवश्यक कार्मकाण्ड सम्पन्न करने के पश्चात्, उन्होंने अन्य नदियों के दर्शन किए जो इस प्रकार हैं-वेणा, पम्पा तथा भीमरथी । भीमरथी नदी के तट पर “स्वामी कार्तिकेय" नामक श्रीमूर्ति है । कार्तिकेय के दर्शन करने के उपरान्त, श्रीबलराम जी शैलपुर नामक महाराष्ट्र के तीर्थ स्थान की ओर बढ़े । शैलपुर महाराष्ट्र प्रदेश के बड़े जिलों में से एक है । तत्पश्चात् वे द्रविड़ देश की ओर अग्रसर हुए । दक्षिण भारत पाँच भागों में विभाजित है, जिन्हें पंचद्रविड़ कहते हैं । उत्तर भारत भी पाँच भागों में विभाजित है, जिन्हें पंचगौड़ कहते हैं । आधुनिक युग के सभी महत्त्वपूर्ण आचार्य, जैसे शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, विष्णुस्वामी तथा निम्बार्क, इन द्रविड़ प्रदेशों में प्रकट हुए । भगवान् श्री चैतन्य बंगाल में प्रकट हुए, जो पंचगौड़ देशों का एक अंग है ।
दक्षिण भारत, अर्थात् द्रविड़ का सर्वोच्च महत्त्वपूर्ण दर्शनीय स्थान वेंकटाचल है, जो सामान्यत: बालाजी के नाम से प्रसिद्ध है । इस स्थान का भ्रमण करने के पश्चात् बलराम जी विष्णुकांची की ओर बढ़े तथा वहाँ से वे कावेरी नदी के तट की ओर अग्रसर हुए । उन्होंने कावेरी में
स्नान किया, तत्पश्चात् वे रंगक्षेत्र पहुँचे । विश्व का सबसे बड़ा मन्दिर रंगक्षेत्र में है तथा वहाँ पर विद्यमान श्री विष्णु की श्रीमूर्ति श्री रंगनाथ के नाम से प्रख्यात है । उसी प्रकार का रंगनाथ का मन्दिर वृन्दावन में भी है, तथापि वह रंगक्षेत्र के मन्दिर के समान भव्य नहीं है ।
विष्णुकांची को जाते हुए श्रीबलराम ने शिवकांची का भी भ्रमण किया । रंगक्षेत्र का दर्शन करने के उपरान्त, वे क्रमश: मदुरा की ओर बढ़े, जो सामान्य: "दक्षिण भारत का मथुरा" के नाम से प्रसिद्ध है । इस स्थान का दर्शन करने के उपरान्त व सेतुबन्ध की ओर बढ़े । सेतुबन्ध वह स्थान है जहाँ श्रीरामचन्द्र जी ने भारत से लंका (सीलोन) के बीच चट्टानों का पुल बाँधा था । इस विशेष पवित्र स्थान पर, बलरामजी ने स्थानीय ब्राह्मण पुजारियों के बीच दस हजार गायों का वितरण किया । यह एक वैदिक प्रथा है कि जब कोई धनी दर्शनार्थी किसी भी तीर्थ-स्थान पर जाता है, तो वह स्थानीय पुजारियों को भेंट में घोड़े, आभूषण तथा वस्त्र का दान देता है । तीर्थ-स्थानों का भ्रमण करने की एवं स्थानीय ब्राह्मण-पुजारियों के जीवन की आवश्यकताओं की अभिपूर्ति करने की प्रथा इस कलियुग में भ्रष्ट हो गई है । जनसंख्या का धनी वर्ग, वैदिक संस्कृति के पतन हो जाने के कारण, इन तीर्थस्थानों से तनिक भी आकृष्ट नहीं होता तथा जो ब्राह्मण पुजारी ऐसे दर्शनार्थियों पर निर्भर करते थे, उनकी सहायता करने के अपने व्यावसायिक कर्तव्य में उनका भी पतन हो गया है । इसका अर्थ हुआ कि वे पूर्व में अत्यन्त विद्वान ब्राह्मण हुआ करते थे तथा दर्शनार्थियों को वहाँ आने के हर उद्देश्य के विषय में उनका मार्गदर्शन करते थे । इस प्रकार दोनों दर्शनार्थी तथा पुजारी पारस्परिक सहयोग से लाभान्वित होते थे ।
श्रीमद्भागवत के वर्णन से यह स्पष्ट है कि जब श्रीबलराम विभिन्न तीर्थ-स्थलों का भ्रमण कर रहे थे, तब उन्होंने उचित रूप से वैदिक प्रणाली का पालन किया । सेतुबन्ध में गायों का वितरण करने के पश्चात्, श्रीबलराम कृतमाला तथा ताम्रपर्णी नदियों की ओर अग्रसर हुए । इन दोनों नदियों को पवित्र माना जाता है तथा बलरामजी ने दोनों में स्नान किया । तत्पश्चात् वे मलय पहाड़ी की ओर अग्रसर हुए । यह मलय पहाड़ी अत्यन्त भव्य है तथा कहा जाता है कि वह मलय पहाड़ कहलाने वाली सात चोटियों में से एक है । महर्षि अगस्त्य वहीं रहा करते थे । बलरामजी ने उनके दर्शन किए तथा उनके सम्मुख झुककर उन्हें प्रणाम किया । ऋषि का आशीर्वाद लेने के पश्चात्, उनकी अनुमति से बलरामजी हिन्द महासागर की ओर बढ़े ।
अन्तरीप के बिन्दु पर दुर्गादेवी का एक भव्य मन्दिर है, जहाँ उसे कन्याकुमारी के नाम से जाना जाता है । इस कन्याकुमारी मन्दिर के दर्शन श्रीरामचन्द्रजी ने भी किए थे, अतएव यह मानना चाहिए कि वह मन्दिर लाखों वर्षों से विद्यमान है । वहाँ से बलरामजी फाल्गुनतीर्थ नामक तीर्थ स्थान का दर्शन करने हेतु आगे बढ़े, जो हिन्द महासागर अर्थात् दक्षिण महासागर के तट पर स्थित है । फाल्गुनतीर्थ का महत्त्व है, क्योंकि अनन्त के अपने अवतार के रूप में भगवान् श्रीविष्णु वहाँ पर विराजमान हैं । फाल्गुनतीर्थ से श्रीबलराम ने प्रस्थान किया और उन्होंने पंचाप्सरस नामक एक अन्य तीर्थस्थान के दर्शन किए । शास्त्रीय नियमों के अनुसार वहाँ पर भी उन्होंने स्नान किया तथा धार्मिक कर्मकाण्ड सम्पन्न किया । इस स्थल का महत्त्व भगवान् विष्णुकी श्रीमूर्ति के कारण है, अतएव, श्रीबलराम ने स्थानीय ब्राह्मण पुजारियों को दस हजार गायें वितरित कीं ।
कन्याकुमारी अन्तरीप से श्रीबलराम केरल की ओर बढ़े । केरल देश वर्तमान में भी दक्षिण भारत में दक्षिण केरल के नाम से विद्यमान है । इस स्थान का दर्शन करने के उपरान्त वे गोकर्णतीर्थ में आए, जहाँ शिवजी की नित्य उपासना की जाती है । तब बलराम आर्यादेवी के मन्दिर गए, जो जल से घिरा हुआ है । उस द्वीप से वे शूरपारक नामक स्थान पर गए । तत्पश्चात्, उन्होंने तापी, पयोष्णी तथा निर्विध्या नामक नदियों में स्नान किया तथा वे दण्डकारण्य नामक वन में पहुँचे । यह वही दण्डकारण्य वन है जहाँ वनवास के समय रामचन्द्रजी रहे थे । तत्पश्चात् श्रीबलराम नर्मदा नदी के तट पर आए, जो मध्य भारत की सबसे बड़ी नदी है । इस पवित्र नर्मदा नदी के तट पर महिष्मती पुरी नामक तीथस्थल है । वहाँ स्नान करने के उपरान्त, शास्त्रीय नियमों के अनुसार, श्रीबलराम प्रभासतीर्थ को लौटे, जहाँ से उन्होंने अपनी यात्रा आरम्भ की थी ।
जब बलरामजी प्रभासतीर्थ को लौटे, तो उन्होंने ब्राह्मणों से सुना कि अधिकतर क्षत्रिय कुरुक्षेत्र में मारे जा चुके थे । उन्होंने यह सुनकर स्वयं को मुक्त अनुभव किया कि विश्व का भार घट चुका है । श्रीकृष्ण और बलरामजी उच्चाभिलाषी क्षत्रिय राजाओं द्वारा उत्पन्न सैन्य शक्ति के भार को घटाने के हेतु इस धरती पर प्रकट हुए थे । यह भौतिकतापूर्ण जीवन की विधि है : जीवन की परम आवश्यकताओं से सन्तुष्ट न होकर, लोग महत्त्वाकांक्षापूर्वक अन्य आवश्यकताओं की उत्पत्ति करते हैं तथा उनकी अवैधानिक कामनाओं का अवरोधक प्रकृति के नियमों
अथवा भगवान् के नियमों द्वारा किया जाता है, जो अकाल, युद्ध, महामारी तथा इस प्रकार के अनर्थों के रूप में प्रकट होते हैं । श्रीबलराम ने सुना कि यद्यपि अधिकतर क्षत्रियों की मृत्यु हो गई थी, तथापि कुरु अभी भी युद्ध में संलग्न थे । अतएव वे युद्धस्थल पर उसी समय लौटे जब भीमसेन और दुर्योधन द्वंद्व युद्ध में संलग्न थे । दोनों का शुभचिन्तक होने के कारण, श्रीबलराम इन्हें रोकना चाहते थे, परन्तु वे रुकने को तैयार नहीं थे ।
जब बलरामजी युद्धस्थल पर प्रकट हुए, तब महाराज युधिष्ठिर तथा उनके छोटे भ्राता नकुल एवं सहदेव, भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीअर्जुन ने उनकी सादर वन्दना की, परन्तु उन्होंने तनिक भी वार्तालाप नहीं किया । उनके शान्त रहने का कारण यह था कि श्रीबलराम को दुर्योधन के प्रति स्नेह था तथा दुर्योधन ने श्रीबलराम के द्वारा ही गदा से युद्ध करने की कला सीखी थी । इस प्रकार जब उनका युद्ध चल रहा था, तब महाराज युधिष्ठिर तथा अन्यों ने सोचा कि दुर्योधन का पक्ष लेने श्री बलराम वहाँ आ सकते हैं, अतएव वे शान्त रहे । दुर्योधन और भीमसेन दोनों युद्ध करने के अत्यन्त उत्सुक थे तथा असंख्य दर्शकों के मध्य वे एक दूसरे पर कलात्मक रूप से आक्रमण करने का प्रयत्न कर रहे थे और उनको ऐसा करने का प्रयास करते हुए देखकर प्रतीत होता कि वे नृत्य कर रहे हैं । यद्यपि वे नृत्य करते हुए प्रतीत हो रहे थे, परन्तु यह स्पष्ट था कि दोनों अत्यन्त क्रोधित थे ।
युद्ध को रोकने के हेतु बलरामजी ने कहा, "मेरे प्रिय राजन्, दुर्योधन और भीमसेन ! मुझे ज्ञात है कि आप दोनों महान् योद्धा हैं तथा सम्पूर्ण विश्व में महान् वीर के रूप में सर्वप्रसिद्ध हैं, परन्तु तो भी शारीरिक शक्ति में भीमसेन दुर्योधन से श्रेष्ठ है । दूसरी ओर, गदा के द्वारा लड़ने की कला में दुर्योधन भीमसेन से श्रेष्ठ है । इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए, मेरा मत है कि युद्ध-कला में तुम दोनों में से कोई भी आपस में श्रेष्ठ नहीं है । इन परिस्थितियों में तुम में से एक का दूसरे के द्वारा पराजित होने की संभावना अत्यन्त कम है । अत: मैं तुम दोनों से अनुरोध करता हूँ कि इस प्रकार लड़कर अपना समय व्यर्थ न करो । मैं चाहता हूँ कि तुम दोनों इस अनावश्यक युद्ध की समाप्ति करो ।” भीमसेन और दुर्योधन को श्रीबलराम द्वारा दिया गया अच्छा उपदेश दोनों के समान लाभ के लिए था । परन्तु एक दूसरे के विरुद्ध क्रोध में वे इतने उलझ गए थे कि वे केवल अपनी लम्बी शत्रुता का ही स्मरण कर सके । प्रत्येक यही सोचता था कि किस प्रकार दूसरे का वध किया जाय । उन्होंने बलरामजी के उपदेश को अधिक महत्त्व नहीं दिया । तत्पश्चात् दोनों पागल आदमियों की भाँति बन गए और वे परस्पर दुर्व्यवहार एवं एक-दूसरे पर लगाए गए क्रूर आरोप का स्मरण करने लगे । इसे प्रारब्ध समझते हुए श्रीबलराम इस विषय में आगे कुछ नहीं कहना चाहते थे । अतएव, वहाँ पर न ठहर कर उन्होंने द्वारका लौटने का निर्णय किया ।
जब वे द्वारका लौटे, तो सम्बन्धियों एवं मित्रों द्वारा अत्यन्त उत्साह के साथ उनका स्वागत किया गया । इसका नेतृत्व महाराज उग्रसेन तथा अन्य वयोवृद्ध व्यक्तियों ने किया । उनका स्वागत करने के लिए वे सभी आगे आए । इसके पश्चात् वे पुनः नैमिषारण्य नामक तीर्थ स्थान पर गए, जहाँ ऋषियों, सन्त पुरुषों एवं ब्राह्मणों ने उठकर उनका स्वागत किया । वे समझ गए कि यद्यपि बलरामजी क्षत्रिय हैं, किन्तु अब वे युद्ध के कार्य से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं । ब्राह्मण तथा ऋषि, जो सदैव सुख-
शान्ति के पक्ष में थे, इसपर अत्यन्त प्रसन्न हुए । सभी ने अत्यन्त स्नेहपूर्वक श्रीबलराम का आलिंगन किया तथा नैमिषारण्य नामक पवित्र स्थान में विभिन्न प्रकार के यज्ञ करने के लिए प्रेरित किया । वास्तव में, साधारण मानवों के निमित्त यज्ञों को सम्पन्न करना बलरामजी का कार्य नहीं था, वे श्रीभगवान् हैं, अत: वे सभी यज्ञों के भोगकर्ता हैं । यज्ञों का सम्पादन करने में उनका अनुकरणीय कार्य सामान्य मनुष्य को पाठ पढ़ाने के लिए है कि किस प्रकार व्यक्ति को वेदों के आदेश का पालन करना चाहिए ।
भगवान् बलरामजी ने नैमिषारण्य में ऋषियों एवं सन्त पुरुषों को इस विराट जगत् के साथ जीवों के सम्बन्ध के विषय में, उपदेश दिया कि इस ब्रह्माण्ड को किस प्रकार स्वीकार किया जाय तथा सिद्धि का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त करने के लिए किस तरह ब्रह्माण्ड से अपने को सम्बन्धित किया जाय, कि सम्पूर्ण विराट जगत् भगवान् पर आश्रित है, कि भगवान् अपने परमात्मा रूप में सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणु के भी भीतर सर्वव्यापी हैं ।
श्रीबलराम ने तत्पश्चात् अवभूथ स्नान किया, जिसे यज्ञ सम्बन्धी क्रियाओं की समाप्ति के उपरान्त स्वीकार किया जाता है । स्नान करने के पश्चात् उन्होंने नवीन कौशेय (रेशमी) वस्त्र धारण किए तथा अपने सम्बन्धियों एवं मित्रों के मध्य स्वयं को सुन्दर आभूषणों से सज्जित किया । वे आकाश में अनेक नक्षत्रों के बीच प्रकाशमय पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रतीत हो रहे थे । बलरामजी स्वयं भगवान् अनन्त हैं, अतएव वे शरीर, मन अथवा बुद्धि की समझ के क्षेत्र से परे हैं । वे मनुष्य के समान अवतरित हुए तथा स्वयं के हेतु उन्होंने इस प्रकार व्यवहार किया । हम उनके कार्यों को केवल श्रीभगवान् की लीलाओं के रूप में स्पष्ट कर सकते हैं । उनकी लीलाओं के अनन्त प्रदर्शनों की सीमा का अनुमान कोई नहीं लगा सकता, क्योंकि वे सर्वशक्तिमान हैं । श्रीबलराम मूल विष्णु हैं, अतएव जो व्यक्ति प्रात:काल और सायंकाल बलरामजी की लीलाओं का स्मरण करेगा वह निश्चय ही श्रीभगवान् का महान् भक्त बनेगा और इस प्रकार प्रत्येक दृष्टि से उसका जीवन सफल हो जाएगा ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “बल्वल का उद्धार तथा बलरामजी का पवित्र स्थानों में भ्रमण करना” नामक उन्यासीवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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