महाराज परीक्षित श्रीकृष्ण एवं बलराम की लीलाओं का वर्णन शुकदेव गोस्वामी से श्रवण कर रहे थे । ये लीलाएँ आध्यात्मिक दृष्टि से श्रवण करने में अत्यन्त सुखद हैं तथा महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी को इस प्रकार सम्बोधित कियाः "प्रिय भगवन् ! भगवान् श्रीकृष्ण एकसाथ ही मुक्ति एवं भगवत्-प्रेम दोनों के प्रदाता हैं । जो व्यक्ति श्रीभगवान् का भक्त बनता है, वह अपने आप ही बिना प्रयत्न किए मुक्ति प्राप्त कर लेता है । श्रीभगवान् अनन्त हैं और इसी प्रकार इस सम्पूर्ण विराट जगत् की सृष्टि, संरक्षण एवं विनाश करने की उनकी लीलाएँ और गतिविधियाँ भी अनन्त हैं । अत: मैं उनकी अन्य लीलाओं का श्रवण करने की इच्छा रखता हूँ, जिनका आपने अभी तक वर्णन नहीं किया है । मेरे प्रिय स्वामी ! इस भौतिक जगत् की बद्ध जीवात्माएँ इन्द्रिय-तृप्ति के द्वारा प्राप्त आनन्द के सुख की खोज करके निराश हो चुकी हैं । भौतिक आनन्द के लिए ऐसी कामनाएँ सदैव बद्ध जीवात्माओं के हृदयों को छेदती रहती हैं । परन्तु वास्तव में मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि किस प्रकार श्रीकृष्ण की लीलाओं का आध्यात्मिक विषय व्यक्ति को इन्द्रिय-तृप्ति करने वाले भौतिक कार्यों से प्रभावित होने से बचा सकता है । मेरा विचार है कि कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति श्रीभगवान् की दिव्य लीलाओं का अनेकानेक बार श्रवण करने की इस पद्धति को अस्वीकृत नहीं कर सकता, केवल श्रवण करने से व्यक्ति दिव्य सुख में लीन रहता है । इस प्रकार कोई व्यक्ति भौतिक इन्द्रिय-तृप्ति से आकृष्ट नहीं होगा ।" इस कथन में, महाराज परीक्षित ने दो महत्त्वपूर्ण शब्दों का उपयोग किया है – विषण्ण:, तथा विशेषज्ञ/ विषण्णः का अर्थ होता है "उदास ।" भौतिकतावादी पूर्णरूपेण सन्तुष्ट होने के लिए अनेक मार्गों एवं विधियों की खोज कर रहे हैं, परन्तु वास्तव में वे उदास रहते हैं । यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि कभी-कभी अध्यात्मवादी भी उदास रहते हैं । तथापि परीक्षित महाराज ने "विशेषज्ञ:" शब्द का प्रयोग किया है । अध्यात्मवादी दो प्रकार के होते हैं-निराकार उपासक तथा साकार उपासक । "विशेषज्ञ:" साकार उपासक की ओर संकेत करता है, जो विविधता में रुचि रखते हैं । भक्तगण परम भगवान् श्रीकृष्ण के साकार कार्यों के वर्णन सुनकर प्रफुल्लित हो उठते हैं, जबकि श्रीकृष्ण के निराकार रूप से आकृष्ट होने वाले लोग श्रीभगवान् के साकार कार्यों से बाहरी रूप से आकृष्ट मात्र होते हैं । श्रीकृष्ण की लीलाओं से सम्पर्क स्थापित करने के पश्चात् भी निराकार उपासक उसमें से प्राप्त करने योग्य लाभ को नहीं समझ पाते और इस प्रकार वे सकाम कर्मों के कारण भौतिकतावादियों के साथ उसी उदास स्थिति में रहते हैं ।
महाराज परीक्षित ने आगे कहा, "वार्तालाप करने की क्षमता को श्रीकृष्ण के इन्द्रियातीत गुणों के वर्णन से पूर्ण किया जा सकता है । किसी व्यक्ति की अपने हाथों से कार्य करने की क्षमता तभी सफल हो सकती है जब व्यक्ति उन हाथों से श्रीभगवान् की सेवा में संलग्न होता है । इसी प्रकार, व्यक्ति का मस्तिष्क तभी शान्त हो सकता है जब वह पूर्ण कृष्णभावनाभावित होकर केवल श्रीकृष्ण का स्मरण करे । इसका यह अर्थ नहीं है कि व्यक्ति का अत्यन्त विचारशील होना जरुरी है, वरन् उसे केवल यह समझना होता है कि परम सत्य श्रीकृष्ण स्वयं अन्तर्यामी होने से परमात्मा रूप में सर्वव्यापक हैं । यदि व्यक्ति यह विचार कर सके कि परमात्मा के रूप में श्रीकृष्ण सर्वत्र, यहाँ तक कि परमाणु में
भी, विद्यमान हैं तो वह अपने मस्तिष्क के विचार, अनुभव एवं इच्छा के कार्यों को पूर्ण कर सकता है । सिद्ध भक्त इस भौतिक जगत् को अपने भौतिक नेत्रों से नहीं देखता, परन्तु वह परमात्मा रूप में अपने उपासनीय भगवान् की उपस्थिति को सर्वत्र देखता है ।"
महाराज परीक्षित ने आगे कहते हुए बताया कि कानों का कार्य श्रीकृष्ण के दिव्य कार्यों का श्रवण करके पूर्ण किया जा सकता है । उन्होंने आगे कहा कि सिर के कार्य को पूर्ण रूप से उपयोग में तभी लाया जा सकता है जब वह भगवान् एवं उनके प्रतिनिधि के सम्मुख झुकने के कार्य में संलग्न हो । यह बात कि श्रीभगवान् प्रत्येक जीवात्मा के हृदय में निवास करते हैं, एक तथ्य है, अतएव अत्यन्त उन्नत भक्त यह सोचते हुए कि शरीर श्रीभगवान् का मन्दिर है, प्रत्येक जीवात्मा का आदर करता है । परन्तु प्रत्येक पुरुष का जीवन की उस स्थिति में तत्काल ही आना सम्भव नहीं है, क्योंकि वह स्थिति प्रथम श्रेणी के भक्त के लिए है । द्वितीय श्रेणी का भक्त, वैष्णवों अर्थात् भगवान् के भक्तों को श्रीकृष्ण का प्रतिनिधि समझ सकता है तथा नवदीक्षित अर्थात् तृतीय श्रेणी का भक्त मन्दिर नें श्रीविग्रह के सम्मुख तथा श्रीभगवान् की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति अपने गुरु महाराज के सम्मुख झुककर प्रणाम अर्पित कर सकता है । नवदीक्षित स्थिति में, मध्यवर्ती स्थिति में अथवा पूर्ण रूप से विकसित स्थिति में व्यक्ति अपने सिर का कार्य भगवान् अथवा उनके प्रतिनिधि के सम्मुख झुककर पूर्ण कर सकता है । इसी प्रकार, वह अपने नेत्रों का कार्य श्रीभगवान् एवं उनके प्रतिनिधि को देखकर पूर्ण कर सकता है । इस विधि से प्रत्येक व्यक्ति अपने शरीर के विभिन्न अंगों के कार्यों का उत्थान उनको श्रीभगवान् अथवा उनके प्रतिनिधि की सेवा में संलग्न करके कर सकता है । यदि कोई व्यक्ति और कुछ न कर सके, तो कम से कम वह भगवान् और उनके प्रतिनिधि के सम्मुख झुककर प्रणाम और चरणामृत का रसास्वादन तो कर ही सकता है । चरणामृत वह जल है, जिससे भगवान् अथवा उनके चरणों को धोया जाता है ।
महाराज परीक्षित के इन कथनों को सुनकर उनके वैष्णव-दर्शन के विकसित ज्ञान के कारण शुकदेव गोस्वामी भक्ति के आनन्द से अभिभूत हो गए । स्वयं शुकदेव गोस्वामी भगवान् के कार्यकलापों का वर्णन करने में संलग्न थे तथा जब उन्हें महाराज परीक्षित द्वारा आगे बताने के लिए कहा गया, तो वे अत्यन्त आनन्द के साथ श्रीमद्भागवत का वर्णन करने लगे ।
भगवान् श्रीकृष्ण का एक सुन्दर ब्रह्मण-मित्र था । पूर्ण ब्रह्मण होने के कारण, वह आध्यात्मिक ज्ञान में अत्यन्त उन्नत था तथा अपने विकसित ज्ञान के कारण, भौतिक आनन्द में तनिक भी आसक्त नहीं था । अत: वह अत्यन्त शान्त था और उसने अपनी इन्द्रियों पर परम नियंत्रण प्राप्त कर लिया था । इसका अर्थ हुआ कि ब्रह्मण पूर्ण भक्त था, क्योंकि जब तक व्यक्ति पूर्ण भक्त नहीं होता, तब तक वह ज्ञान के सर्वोत्तम स्तर को प्राप्त नहीं कर सकता है । भगवद्-गीता में यह कथन है कि जो व्यक्ति ज्ञान की चरम स्थिति में पहुँच गया है, वह श्रीभगवान् के प्रति आत्मसमर्पण कर देता है । पूर्ण ज्ञान का परिणाम यह होता है कि व्यक्ति जीवन की भौतिक पद्धति से विरत हो जाता है । इस विरक्ति का अर्थ है, उन "इन्द्रियों का पूर्ण नियंत्रण" जो भौतिक आनन्द के प्रति सदैव आकर्षित होती रहती हैं । भक्त की इन्द्रियाँ विशुद्ध रहती हैं तथा इस स्थिति में इन्द्रियाँ भगवान् की सेवा में संलग्न हो जाती हैं । यही भक्ति का पूर्ण क्षेत्र है ।
यद्यपि श्रीकृष्ण का ब्रह्मण-मित्र गृहस्थ था, पर वह सुखपूर्वक जीवन के लिए धन एकत्रित करने में व्यस्त नहीं था, अतएव अपने भाग्य के अनुसार अपने पास आई हुई आय से वह सन्तुष्ट था । पूर्ण ज्ञान का यही लक्षण है । जो पुरुष पूर्णज्ञान में स्थित है, वह जानता है कि हम भाग्य की सीमा से अधिक सुख नहीं पा सकते । इस भौतिक जगत् में प्रत्येक व्यक्ति को कुछ दुःख तथा कुछ सुख उठाना पहले से निर्धारित है । भौतिक जीवन के सुख को कोई भी घटा या बढ़ा नहीं सकता है । अत: उस ब्रह्मण ने अधिक भौतिक आनन्द के लिए प्रयास नहीं किया, किन्तु कृष्णभावनामृत के विकास के लिए समय का सदुपयोग किया । बाह्य रूप से वह अत्यन्त दरिद्र दिखाई पड़ता था, क्योंकि उसके पास कोई मूल्यवान वस्त्र नहीं थे और अपनी पत्नी के लिए भी वह मूल्यवान वस्त्र उपलब्ध नहीं करा पाता था । चूँकि उनकी भौतिक स्थिति ऐश्वर्ययुक्त नहीं थी इसलिए वे पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं कर पाते थे । इस प्रकार वह ब्रह्मण और उसकी पत्नी दोनों ही अत्यन्त दुर्बल दिखाई पड़ते थे । उस ब्रह्मण की पत्नी अपनी व्यक्तिगत सुविधा के लिए अधिक उत्सुक नहीं थी, परन्तु उसे अपने पति के लिए अत्यधिक चिन्ता थी, जो इतना पवित्र ब्रह्मण था । अपने दुर्बल स्वास्थ्य के कारण वह काँप रही थी, तो भी वह अपने पति को आदेश नहीं देना चाहती थी । वह इस प्रकार कहने लगी:
"मेरे प्रिय स्वामी ! मुझे ज्ञात है कि भगवान् श्रीकृष्ण, जो भाग्य की देवी लक्ष्मीजी के पति हैं, आपके व्यक्तिगत मित्र हैं । आप भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त भी हैं तथा वे अपने भक्त की सहायता करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं । यदि आप सोचें कि आप श्रीभगवान् की तनिक भी भक्ति नहीं कर रहे हैं, फिर भी आप उनके शरणागत तो हैं ही तथा श्रीभगवान् शरणागत जीव के संरक्षक हैं । इसके अतिरिक्त, मुझे ज्ञात है कि श्रीकृष्ण वैदिक संस्कृति के आदर्श हैं । ब्रह्मण-संस्कृति का वे सदैव पक्ष लेते हैं और गुणी ब्रह्मण के प्रति वे अत्यन्त उदार हैं । आप सर्वाधिक भाग्यशाली व्यक्ति हैं, क्योंकि मित्र के रूप में आपको स्वयं श्रीभगवान् प्राप्त हैं । आपके समान व्यक्तियों के श्रीकृष्ण ही एकमात्र शरण हैं, क्योंकि आप उनके प्रति पूर्णरूपेण शरणागत हैं । आप सन्त एवं विद्वान पुरुष हैं तथा इन्द्रियाँ आपके पूर्ण नियंत्रण में हैं । इस परिस्थितियों में, भगवान् श्रीकृष्ण ही आपकी एकमात्र शरण हैं । अतएव, कृपा करके आप उनके पास जाइए । मुझे विश्वास है कि वे तत्काल ही आपकी कंगाल स्थिति को समझ जाएँगे । आप एक गृहस्थ भी हैं, धन के बिना आप इस दुःखद स्थिति में हैं । परन्तु जैसे ही वे आपकी स्थिति को समझेंगे, वे अवश्य ही आपको पर्याप्त धन प्रदान करेंगे जिससे आप सुखपूर्वक रह सकें । अब भगवान् श्रीकृष्ण भोज, वृष्णि और अन्धक प्रदेशों के राजा हैं और मैंने सुना है कि वे अपनी राजधानी द्वारका को कभी नहीं छोड़ते । वे बाह्य आयोजनों के बिना वहाँ रह रहे हैं । वे इतने दयालु और उदार हैं कि वे अपने शरणागत व्यक्ति को तत्काल ही सब कुछ दे देते हैं, यहाँ तक कि स्वयं को भी । जब वे व्यक्तिगत रूप से स्वयं को देने के लिए तत्पर रहते हैं, तो उनके लिए कुछ भौतिक लाभ कोई अद्भुत बात नहीं है । निस्सन्देह, यदि वह भक्त अधिक दृढ़ नहीं है, तो वे अपने भक्त को अधिक भौतिक लाभ नहीं देते, परन्तु मेरा विचार है कि आपके सन्दर्भ में उन्हें पूर्णतया ज्ञात है कि आप भक्ति में किस सीमा तक स्थिर हैं । अत: जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आपको कुछ भौतिक लाभ देने में वे तनिक भी नहीं हिचकेंगे ।"
इस प्रकार, ब्रह्मण की पत्नी ने अत्यन्त नम्रतापूर्वक अनेकानेक बार आग्रह किया कि वे श्रीकृष्ण के पास जाँए । ब्रह्मण ने सोचा कि किसी भौतिक लाभ के लिए श्रीकृष्ण से माँग करने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु अपनी पत्नी के बारम्बार निवेदन से वह बाध्य हो गया । इसके अतिरिक्त उसने सोचा, "यदि मैं वहाँ जाता हूँ तो श्रीभगवान् से मैं व्यक्तिगत रूप से मिलूँगा । वह एक महान् अवसर होगा, चाहे मैं उनसे किसी भौतिक लाभ की कामना करूं अथवा नहीं ।" जब उसने श्रीकृष्ण के पास जाने का निर्णय किया, तब उसने अपनी पत्नी से पूछा कि श्रीकृष्ण को भेंट करने के लिए घर में कुछ है अथवा नहीं, क्योंकि उसे अपने मित्र के लिए कुछ भेंट लेकर जाना था । उसकी पत्नी ने तत्काल ही अपने पड़ोस की सखी से चार मुट्ठी चावल के कण एकत्रित किए और उन्हें एक रुमाल में बाँधकर श्रीकृष्ण को अर्पित करने के लिए अपने पति को दे दिए । एक पल भी व्यर्थ किए बिना, उस ब्रह्मण ने उस उपहार को लिया और अपने श्रीभगवान् से भेंट करने के लिए द्वारका की ओर चल पड़ा । जब वह द्वारका की ओर बढ़ रहा था, तब वह यही स्मरण कर रहा था कि किस प्रकार वह श्रीकृष्ण से मिल पाएगा । उसके हृदय में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त कोई विचार नहीं था ।
यदुवंश के राजाओं के महलों तक पहुँचना अवश्य ही कठिन था, परन्तु ब्रह्मणों को उनका दर्शन करने दिया जाता था और जब सुदामा वहाँ गया, तब अन्य ब्रह्मणों सहित उसे तीन सैनिक शिविरों से होकर जाना पड़ा । प्रत्येक शिविर में विशाल द्वार थे तथा उसे उनसे होकर जाना पड़ा । उन द्वारों एवं शिविरों के पश्चात्, सोलह हजार भव्य महल दिखाई पड़े, जो श्रीकृष्ण की सोलह हजार पत्नियों के निवासस्थान थे । सुदामा ने एक महल में प्रवेश किया, जो अत्यन्त शानदार ढंग से सज्जित था । जब उसने इस सुन्दर महल में प्रवेश किया, तब उसे लगा कि वह दिव्य आनन्द के सागर में तैर रहा है । उसे प्रतीत हुआ कि वह उस दिव्य सागर में अनेकानेक गोते लगा रहा है ।
उस समय भगवान् श्रीकृष्ण महारानी रुक्मिणी की शैय्या पर विराजमान थे । अत्यधिक दूरी से भी वे उस ब्रह्मण को अपने घर आते हुए देख रहे थे तथा वे उसे अपने मित्र के रूप में पहचान गए । भगवान् श्रीकृष्ण ने तत्काल ही अपनी गद्दी छोड़ी और अपने ब्रह्मण मित्र का स्वागत करने के उद्देश्य से वे आगे आए और वहाँ पहुँचने पर उन्होंने सुदामा को अपनी दोनों भुजाओं से आलिंगन-बद्ध कर लिया । भगवान् श्रीकृष्ण सभी दिव्य आनन्द के भण्डार हैं, तथापि उस दरिद्र ब्रह्मण का आलिंगन करके उन्होंने स्वयं अत्यधिक आनन्द का अनुभव किया, क्योंकि वे अपने अतिप्रिय सखा से मिले थे । श्रीकृष्ण ने उसे अपनी शैय्या पर बिठाया और उसे अर्पित करने के लिए वे स्वयं ही सभी प्रकार के फल तथा पेय पदार्थ लाए, जैसाकि पूजनीय अतिथि के सत्कार के लिए आवश्यक है । भगवान् श्रीकृष्ण सर्वाधिक पवित्र हैं, परन्तु वे एक साधारण मनुष्य का जीवन व्यतीत कर रहे थे, अतएव उन्होंने तत्काल ही उस ब्रह्मण के पैर धोए और स्वयं के शुद्धिकरण के लिए उस जल को अपने सिर पर छिड़का । इसके पश्चात् भगवान् ने सुदामा ब्रह्मण के शरीर पर विभिन्न प्रकार की सुगन्धित वस्तुओं जैसे चन्दन, अगरु तथा केशर, का लेप किया । उन्होंने तत्काल ही अनेक प्रकार की सुगन्धित अगर-बत्तियाँ जलाई तथा जलते हुए दीपकों से उसकी आरती की । इस प्रकार उसका उचित आतिथ्य करने तथा ब्रह्मण द्वारा उचित भोजन कर लेने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, "मेरे प्रिय सखा ! यह अहोभाग्य है कि आप यहाँ आए हैं ।"
अत्यन्त दरिद्र होने के कारण वह ब्रह्मण सुन्दर वस्त्र धारण नहीं किए हुए था, उसके वस्त्र गन्दे और फटे हुए थे और उसका शरीर भी बहुत लम्बा और पतला था । वह अधिक स्वच्छ नहीं दिख रहा था तथा अपने दुर्बल शरीर के कारण उसकी हड्डियाँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही थीं । भाग्य की देवी रुक्मिणी चामर के द्वारा व्यक्तिगत रूप से उसे पंखा करने लगीं, परन्तु महल में उपस्थित अन्य स्त्रियाँ श्रीकृष्ण को इस प्रकार ब्रह्मण का स्वागत करते देखकर आश्चर्यचकित थीं । उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इस विशेष ब्रह्मण का सत्कार करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण कितने उत्सुक हैं । वे विचार करने लगीं कि किस प्रकार श्रीकृष्ण एक ऐसे ब्रह्मण का स्वागत कर सकते हैं, जो अत्यन्त दरिद्र है, अधिक स्वच्छ नहीं है तथा घटिया वस्त्र धारण किए है, परन्तु साथ-साथ वेयह समझ रही थीं कि वह ब्रह्मण कोई साधारण व्यक्ति नहीं है । उन्हें ज्ञात था कि उसने अनेक पुण्यकर्म किए होंगे, अन्यथा भाग्यदेवी के पति भगवान् श्रीकृष्ण उसका इतना सेवा करते ? वे इस बात से और भी चकित हुई कि वह ब्रह्मण भगवान् श्रीकृष्ण की शैय्या पर बैठा था । वे यह देखकर विशेष रूप से चकित हुई कि भगवान् श्रीकृष्ण ने उसका ठीक उसी प्रकार आलिंगन किया जैसे वे अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीबलराम का आलिंगन करते हैं, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण केवल बलराम जी और रुक्मिणी देवी का ही आलिंगन करते थे, अन्य किसी का नहीं ।
ब्राह्मण का समुचित प्रकार से स्वागत करने तथा अपनी गद्देदार शैय्या पर बिठाने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, "मेरे प्रिय ब्रह्मण मित्र ! आप सर्वाधिक बुद्धिमान व्यक्ति हैं और आप धार्मिक जीवन के सभी सिद्धांतों से परिचित हैं । मुझे विश्वास है कि हमारे गुरुदेव के गृह से अपना शिक्षण कार्य पूर्ण करने के पश्चात् तथा उन्हें पर्याप्त रूप से दक्षिणा देने के पश्चात् आपने अपने घर लौटकर एक योग्य पत्नी स्वीकार की होगी । मुझे पूर्ण रूप से ज्ञात है कि आरम्भ से ही आप भौतिक जीवन के प्रति तनिक भी आकर्षित नहीं थे, न ही आप भौतिक दृष्टि से ऐश्वर्यवान् होने की कामना रखते थे । इसलिए आपको धन की आवश्यकता है । इस भौतिक जगत् में, भौतिक ऐश्वर्य से अनासत लोग बहुत ही कम मिल पाते हैं । ऐसे अनासक्त लोगों को इन्द्रियतृप्ति के हेतु धन एवं वैभव एकत्रित करने की तनिक भी इच्छा नहीं होगी, परन्तु कभी-कभी देखने में आता है कि गृहस्थ के अनुकरणीय जीवन का प्रदर्शन – मात्र करने के लिए वे धन एकत्रित करते पाए जाते हैं । ऐसे आदर्शवादी गृहस्थों को मेरे उपदेशों का पालनकर्ता मानना चाहिए। मेरे प्रिय मित्र! मुझे आशा है कि तुम्हें हमारे विद्यार्थी-जीवन के वे दिन स्मरण हैं जब हम दोनों निवास-स्थल पर एकसाथ रहते थे। वास्तव में, जो ज्ञान हम दोनों ने अपने जीवन में प्राप्त किया, वह ज्ञान विद्यार्थी-जीवन में ही पाया है।
“यदि विद्यार्थी-जीवन में व्यक्ति किसी योग्य शिक्षक के मार्गदर्शन में पर्याप्त मात्रा में ज्ञान प्राप्त करता है, तो भविष्य में उसका जीवन सफल हो जाता है। वह अज्ञान के सागर को सरलतापूर्वक पार कर सकता है। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने पिता को अपना प्रथम गुरू माने, क्योंकि उसके पिता की ही कृपा से उसके शरीर प्राप्त होता है। अतः पिता स्वाभाविक रूप से प्रामाणिम गुरू है। हमारा दूसरा गुरू वह है, जो हमें आध्यात्मिक ज्ञान की दीक्षा देता है। तथा उसे मेरे ही समान पूजना चाहिए। गुरू महाराज एक से अधिक भी हो सकते हैं। जो गुरू अपने शिष्य को आध्यात्मिक विषयों में उपदेश देता है, उसे शिक्षा-गुरू कहते हैं और जो गुरू अपने शिष्य को दीक्षा देता है, उसे दीक्षा-गुरू कहते हैं। वे दोनों ही मेरे प्रतिनिधि हैं। जो मनुष्य ऐेसे अनेक गुरूओं से उपयुक्त लाभ उठाता है तथा उनसे सही ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भवसागर को पार करता है, वह जीवन के मानव-रूप का सही उपयोग करने वाला कहलाता है। उसे व्यावहारिक ज्ञान होता है कि जीवन का परम उद्देश्य आध्यात्मिक सिद्ध प्राप्त करना है, जिसे केवल मानव-जीवन में ही प्राप्त किया जा सकता है और इस प्रकार वह भगवद्-धाम को प्राप्त कर सकता है। “मेरे प्रिय मित्र! मैं प्रत्येक जीवात्मा के हृदय में विद्यमान परमात्मा हूँ तथा यह मेरा प्रत्यक्ष आदेश है कि मानव-समाज वर्ण और आश्रम के सिद्धांतों का पालन करे। जैसाकि मैंने भगवद्गीता में कहा है, मानव-समाज को गुण और कार्यों के अनुसार चार वर्णों में विभाजित करना चाहिए। उसी प्रकार, मनुष्य को अपने को जीवन के चार भाग करने चाहिए। व्यक्ति को अपने जीवन के प्रथम भाग को प्रामाणिक विद्यार्थी बनने में व्यतीत करना चाहिए तथा पर्याप्त ज्ञान प्राप्त करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, जिससे वह अपने जीवन को पूर्ण रूप से इन्द्रियतृप्ति में संलग्न हुए बिना, अपने गुरु महाराज की सेवा में व्यतीत कर सके । ब्रह्मचारी को आत्मसंयम और तपस्या से परिपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहिए । गृहस्थ को इन्द्रियतृप्ति का नियमबद्ध जीवन व्यतीत करना चाहिए, परन्तु अपने जीवन की तृतीय अवस्था में व्यक्ति को गृहस्थ बनकर नहीं रहना चाहिए । उस अवस्था में, व्यक्ति को पुनः तपस्या तथा आत्मसंयम से पूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहिए, जो वह ब्रह्मचारी जीवन में व्यतीत करता था और इस प्रकार गृहस्थ जीवन की आसक्ति से स्वयं को मुक्त करना चाहिए । भौतिक जीवन से स्वयं को मुक्त करने के पश्चात्, व्यक्ति संन्यास आश्रम को स्वीकार कर सकता है ।
"जीवात्माओं के हृदय में अवस्थित परमात्मा के रूप में मैं प्रत्येक व्यक्ति की गतिविधियों का अवलोकन जीवन की प्रत्येक अवस्था और वर्ण में करता हूँ । चाहे हम किसी भी अवस्था में हों, जब मैं देखता हूँ कि व्यक्ति अपने गुरु के आदेशानुसार गम्भीतापूर्वक एवं निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता है तथा इस प्रकार अपने गुरु महाराज की सेवा में अपना जीवन समर्पित करता है, तब वह व्यक्ति मेरे लिए अतिप्रिय बन जाता है । जहाँ तक ब्रह्मचर्य-जीवन का प्रश्न है, यदि गुरु के निर्देशन में व्यक्ति ब्रह्मचारी का जीवन व्यतीत कर सके, तो वह अत्यन्त सुन्दर है । परन्तु यदि ब्रह्मचारी जीवन में व्यक्ति काम-प्रवृत्ति का अनुभव करे, तो उसे अपने गुरु महाराज को उनकी इच्छा के अनुसार सन्तुष्ट करके उनसे विदा लेनी चाहिए । वैदिक पद्धति के अनुसार, प्रामाणिक गुरु को उपहार दिया जाता है, जिसे गुरुदक्षिणा कहते हैं । तत्पश्चात् शिष्य को गृहस्थ-जीवन ग्रहण करना चाहिए तथा धार्मिक नियमों के अनुसार एक पत्नी स्वीकार करनी चाहिए ।"
आधुनिक समाज मानव-जीवन के उद्देश्य की पूर्ति करने में केन्द्रित नहीं रहता । मानव-जीवन का उद्देश्य पुन: भगवद्-धाम लौटना है । उद्देश्य को पूरा करने के लिए वर्ण एवं आश्रम की पद्धति का पालन करना होगा । जब इस पद्धति का पालन कठोरतापूर्वक एवं पूर्ण सचेत अवस्था में किया जाता है, तब जीवन के उद्देश्य की पूर्ति होती है । जब अप्रत्यक्ष रूप से किसी उच्च व्यक्ति के मार्गदर्शन के बिना ही उसका पालन किया जाता है, तब वह मानव-समाज में एक चिन्तित अवस्था को उत्पन्न करती है तथा शान्ति एवं समृद्धि भंग हो जाती है ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने ब्रह्मण मित्र के साथ वार्तलाप करते हुए आगे कहा: "प्रिय मित्र ! मेरा विचार है कि तुम्हें हमारे विद्यार्थी-जीवन की गतिविधियाँ स्मरण होंगी । तुम्हें स्मरण होगा कि एक समय हम अपने गुरु महाराज की पत्नी के आदेश पर ईंधन एकत्रित करने के लिए वन में गए थे । जब हम सूखी लकड़ियाँ एकत्र कर रहे थे, तब संयोग से हम घने वन में चले गए और वहीं खो गए । तब एक अप्रत्याशित बवंड़र आया और आकाश में बादल छा गए और बिजली कड़कने लगी, फिर सूर्यास्त हुआ और हम उस घने जंगल में खो गए । इसके पश्चात् मूसलाधार वर्षा हुई, सम्पूर्ण धरती पानी से लबालब हो गई और हम अपने गुरु महाराज के आश्रम को लौटने का रास्ता नहीं खोज पाए । तुम्हें वह भारी वर्षा स्मरण होगी-वास्तव में वह वर्षा नहीं थी, अपितु एक प्रकार का विनाश था । बवंड़र और भारी वर्षा होने के कारण हम अत्यन्त दुखी थे और हम जिस दिशा में मुड़े, हमें व्याकुलता का ही सामना करना पड़ा । उस दुःखद स्थिति में हमने एक दूसरे के हाथ पकड़ लिए और हम रास्ते की खोज करने लगे । हमने इस प्रकार सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत की तथा प्रात:काल जब हमारे न होने का समाचार गुरुदेव को मिला, तो उन्होंने हमारी खोज करने के लिए कई शिष्य भेजे । वे स्वयं भी उनके साथ आए और जब जंगल में वे हमारे पास पहुँचे, तब उन्होंने हमें संकटपूर्ण अवस्था में पाया । "अत्यन्त सहानुभूति के साथ हमारे गुरु देव ने कहा, "प्रिय बालकों ! यह अद्भुत बात है कि मेरे लिए तुमने इतना कष्ट उठाया । प्रत्येक व्यक्ति अपने शरीर की देखभाल को सर्वाधिक महत्त्व देता है, परन्तु तुम लोग अपने गुरु के प्रति इतने अच्छे और विश्वसनीय हो कि अपनी शारीरिक सुविधा के बारे में विचार किए बिना ही मेरे लिए इतना कष्ट उठाया । मैं यह देखकर अत्यन्त प्रसन्न हूँ कि तुम्हारे समान प्रामाणिक विद्यार्थी अपने गुरुदेव की तुष्टि के हेतु किसी भी प्रकार का कष्ट सहन करेंगे । प्रामाणिक शिष्य के लिए अपने गुरु के ऋण से मुक्त होने की यही विधि है । शिष्य का यह कर्तव्य होता है कि अपने गुरुदेव की सेवा के हेतु वह अपना जीवन अर्पित कर दे । द्विजन्मों में सर्वश्रेष्ठ मेरे प्रिय ! मैं तुम्हारे कार्य से अति प्रसन्न हूँ और मैं तुम दोनों को आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी सभी इच्छाएँ और आकांक्षाएँ पूर्ण हों । तुमने वेदों का जो ज्ञान मुझसे प्राप्त किया है, वह सदैव तुम्हें स्मरण रहे जिससे तुम वेदों की शिक्षाओं को प्रत्येक क्षण स्मरण रख सको और उनके उपदेशों को बिना किसी कठिनाई के उद्धृत कर सको । इस प्रकार तुम इस जीवन में और अगले जीवन में निराश नहीं होगे ।
" श्रीकृष्ण ने आगे कहा, "मेरे प्रिय मित्र ! तुम्हें स्मरण होगा कि गुरुदेव के आश्रम में रहते हुए इस प्रकार की अनेक घटनाएँ हुईं । हम दोनों यह अनुभव कर सकते हैं कि गुरुदेव के आशीर्वाद के बिना कोई व्यक्ति सुखी नहीं हो सकता । गुरु महाराज की कृपा एवं आशीर्वाद के द्वारा व्यक्ति शान्ति एवं समृद्धि को प्राप्त कर सकता है और मनुष्य-जीवन के उद्देश्य को सफल बना सकता है ।"
यह सुनकर, उस विद्वान ब्रह्मण ने उत्तर दिया, "प्रिय कृष्ण ! आप प्रत्येक जीवात्मा के परम भगवान् एवं परम गुरुदेव हैं और अपने गुरु के आश्रम में आपके साथ रहने का सौभाग्य मुझे प्राप्त था, अतएव मेरा विचार है कि निर्धारित वैदिक कर्तव्यों के विषय में अब मुझे कुछ नहीं करना है । मेरे प्रिय भगवन् ! वैदिक मंत्रों धार्मिक उत्सवों एवं आर्थिक विकास, इन्द्रियतृप्ति एवं मुक्ति के समान मानव-जीवन की पूर्णता के हेतु सभी अन्य आवश्यकताएँ एक स्रोत से आपसे प्राप्त की जाती हैं । दूसरे शब्दों में, वे आपके दिव्य स्वरूप के विभिन्न अंग हैं । तो भी आपने एक विद्यार्थी का अभिनय किया और गुरु-गृह में हमारे साथ रहे । इसका अर्थ हुआ कि आपने ये सभी लीलाएँ अपने आनन्द के लिए रचायीं, अन्यथा मानव का अभिनय करने की आपको कोई आवश्यकता नहीं थी ।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “सुदामा ब्रह्मण के साथ भगवान् श्रीकृष्ण का मिलन” नामक अस्सीवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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