अनेक दर्शनार्थी श्रीकृष्ण से मिलने आए थे और उनमें से महाराज युधिष्ठिर के नेतृत्व में पाण्डव भी थे । गोपियों के साथ वार्तालाप करके और उन्हें सबसे बड़ा आशीर्वाद देने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण महाराज युधिष्ठिर एवं अन्य सम्बन्धियों का स्वागत करने के लिए गए, जो उनसे मिलने आए थे । सर्वप्रथम उन्होंने उनसे जिज्ञासा की कि वे कुशल से हैं अथवा नहीं । वास्तव में, श्रीकृष्ण के कमलचरणों के दर्शन करने वाले व्यक्ति के लिए दुर्भाग्य का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । तथापि, जब शिष्टाचार वश श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर महाराज के कुशलक्षेम के विषय में पूछा तब महाराज इस प्रकार के स्वागत से अत्यन्त प्रसन्न हुए और श्रीभगवान् को इस प्रकार सम्बोधित करने लगे, "प्रिय भगवान् कृष्ण ! कृष्णभावनामृत में स्थित महान् व्यक्ति सदैव आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं और दिव्य आनन्द का अमृत पीकर वे पूर्णरूपेण सन्तुष्ट हो जाते हैं । वह अमृत, जिसका वे सदैव आस्वादन करते हैं, कभी-कभी उनके मुँह से बाहर आ जाता है और आपकी दिव्य गतिविधियों की भाँति दूसरों पर बिखर जाता है । भक्त के मुँह से निकल रहा यह अमृत इतना शक्तिशाली होता है कि यदि भाग्यवश किसी व्यक्ति को उसका रसास्वादन करने का अवसर प्राप्त होता है, तो वह जन्म एवं मृत्यु की निरन्तर यात्रा से मुक्त हो जाता है । हमारी विस्मरणशीलता ही हमारे भौतिक जीवन का कारण है । परन्तु सौभाग्य से, यदि व्यक्ति को आपकी महिमाओं का श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त होता है, तो उसकी विस्मरणशीलता का अंधकार तत्काल ही नष्ट हो जाता है । अतएव, प्रिय भगवन् ! उस व्यक्ति के लिए दुर्भाग्य की सम्भावना ही कहाँ रहती है, जो आपकी भव्य लीलाओं का श्रवण करने में निरन्तर संलग्न हो ? "हम आपके प्रति पूर्णतया समर्पित हैं और हमारे लिए आपके कमल-चरणों के अतिरिक्त अन्य कोई आश्रय नहीं है, अतएव हम अपने सौभाग्य के विषय में आश्वस्त हैं । प्रिय भगवन् ! आप असीमित ज्ञान और दिव्यानन्द के सागर हैं । मनोरथपूर्ण कार्यों का परिणाम भौतिक जीवन के तीन अस्थायी पहलुओं-जाग्रतावस्था, स्वप्न तथा सुषुप्ति निद्रा-में अस्तित्त्व रखना है । परन्तु ये दशाएँ कृष्णभावनामृत में अस्तित्त्व नहीं रख सकतीं । ये सभी प्रतिक्रियाएँ कृष्णभावनामृत के अभ्यास से व्यर्थ हो जाती हैं । सभी मुक्त आत्माओं के आप परम लक्ष्य हैं । अपनी स्वतंत्र इच्छा के द्वारा ही आप अपनी अन्तरंगा शक्ति, योगमाया, के प्रयोग के द्वारा इस पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं तथा जीवन के वैदिक सिद्धान्तों की पुनर्स्थापना करने के लिए आप एक सामान्य व्यक्ति की भाँति प्रकट हुए हैं । आप परम पुरुष हैं, अतएव आपकी शरण में आए हुए व्यक्ति के लिए कोई भी दुर्भाग्य नहीं हो सकता ।"
जब श्रीकृष्ण विभिन्न प्रकार के अतिथियों से मिलने में व्यस्त थे और अतिथि श्रीभगवान् की सादर वन्दना करने में संलग्न थे, तब कुरुवंश एवं यदुवंश की महिलाओं ने एक दूजे से मिलने एवं श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं की चर्चा करने के अवसर का लाभ उठाया । सर्वप्रथम, श्रीकृष्ण की पत्नियों से द्रौपदी ने जिज्ञासा की । उन्होंने उनको सम्बोधन किया, “प्रिय रुक्मिणी, भद्रा, जाम्बवती, सत्या, सत्यभामा, कालिन्दी, शैव्या, लक्ष्मणा, रोहिणी तथा श्रीकृष्ण की अन्य सभी पत्नियो ! क्या आप बताएँगी कि किस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने आप लोगों को पत्नियों के रूप में स्वीकार करके, साधारण मनुष्यों के विवाह-समारोह के जैसे नियमों का पालन करते हुए आपके साथ विवाह किए ?"
इस पर, रानियों में प्रमुख रुक्मिणी देवी ने उत्तर दिया, "प्रिय द्रौपदी ! व्यावहारिक रूप से यह एक निश्चित तथ्य है कि जरासन्ध एवं अन्य राजकुमार चाहते थे कि मैं राजा शिशुपाल से विवाह करूं तथा जैसाकि सामान्य है, विवाह-समारोह के मध्य उपस्थित सभी राजकुमार अपने अस्त्रों एवं कवचों को लेकर उस किसी भी प्रतिद्वन्द्वी के साथ युद्ध करने के लिए तत्पर थे, जो विवाह में बाधा डालने का प्रयास करता । परन्तु श्रीकृष्ण ने मेरा अपहरण उसी प्रकार किया, जैसे कोई सिंह झुण्ड में से मेमने को उठा ले जाता है । तथापि, श्रीकृष्ण के लिए यह कोई अद्भुत बात नहीं थी, क्योंकि इस जगत् में जो महान् शूर-वीर अथवा राजा होने का दावा करता है, वह श्रीभगवान् के चरण-कमलों के अधीनस्थ है । सभी राजा-महाराज श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में अपने शिरस्त्राण झुकाते हैं । प्रिय द्रौपदी ! यह मेरी सनातन इच्छा है कि प्रत्येक जीवन में
मैं श्रीकृष्ण की सेवा में संलग्न रहूँ, जो सर्व आनन्द एवं सर्व सौन्दर्य के भण्डार हैं । जीवन में मेरी यही इच्छा और आकांक्षा है ।"
इसके पश्चात् सत्यभामा ने कहा, "प्रिय द्रौपदी ! मेरे पिता अपने भ्राता प्रसेन की मृत्यु से अत्यन्त दुखी थे तथा उन्होंने छल से अपने भ्राता का वध करने एवं स्यमन्तक मणि चुराने का आरोप श्रीकृष्ण पर लगाया, जिसे वास्तव में जाम्बवान् ने लिया था । अपना शुद्ध चरित्र स्थापित करने के हेतु श्रीकृष्ण ने जाम्बवान् के साथ युद्ध किया और स्यमन्तक मणि की रक्षा की, जिसे बाद में मेरे पिता के सुपुर्द किया गया । मेरे पिताजी अपने भ्राता की मृत्यु का आरोप श्रीकृष्ण पर लगाने के कारण अत्यन्त लज्जित एवं दुखी हुए । स्यमन्तक मणि को पुन: प्राप्त करके, उन्होंने अपनी भूल का सुधार करना बुद्धिमानी समझा । यद्यपि उन्होंने दूसरों के साथ मेरा विवाह करने का वचन दिया था, किन्तु वह मणि एवं मुझको श्रीकृष्ण के चरणकमलों में समर्पित कर दिया और इस प्रकार मुझे उनकी दासी एवं पत्नी के रूप में स्वीकार किया गया ।"
इसके पश्चात्, जाम्बवती ने द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर दिया । उसने कहा, "प्रिय द्रौपदी ! जब श्रीकृष्ण ने राक्षसों के राजा मेरे पिता जाम्बवान् पर आक्रमण किया तब मेरे पिता को ज्ञात नहीं था कि भगवान् श्रीकृष्ण उनके पूर्व स्वामी सीता देवी के पति भगवान् रामचन्द्र थे । श्रीकृष्ण के स्वरूप को पहचाने बिना, मेरे पिता सत्ताईस दिनों तक उनके साथ निरन्तर युद्ध करते रहे । इस अवधि के पश्चात् जब वे अत्यन्त थकित एवं श्रान्त हो गए, तब उन्हें ज्ञात हुआ कि चूँकि भगवान् रामचन्द्र के अतिरिक्त और कोई उनको पराजित नहीं कर सकता था, उनके प्रतिद्वंद्वी श्रीकृष्ण भी वही श्रीराम होंगे । इस प्रकार वे होश में आ गए और उन्होंने तत्काल ही स्यमन्तक मणि वापस दे दी और श्रीभगवान् को सन्तुष्ट करने के लिए उन्होंने श्रीकृष्ण की पत्नी बनने के लिए मुझे उनके प्रति प्रस्तुत कर दिया । इस प्रकार श्रीभगवान् के साथ मेरा विवाह हुआ और प्रत्येक जीवन में श्रीकृष्ण की दासी बनकर रहने की मेरी इच्छा पूर्ण हो गई ।"
तत्पश्चात्, कालिन्दी ने कहा, "प्रिय द्रौपदी ! श्रीकृष्ण को अपने पति के रूप में प्राप्त करने के लिए मैं कठोर तप एवं तपस्या में संलग्न थी । जब भगवान् श्रीकृष्ण इस तथ्य से अवगत हुए, तो वे कृपापूर्वक अपने मित्र श्री अर्जुन के साथ आए और मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार किया । तब श्रीकृष्ण मुझे यमुना तट से ले आए और उसी समय से श्रीकृष्ण के महल में दासी के रूप में संलग्न हूँ और श्रीभगवान् मेरे साथ अपनी पत्नी के समान व्यवहार कर रहे हैं ।"
तत्पश्चात्, मित्रविन्दा ने कहा, "प्रिय द्रौपदी ! स्वयंवर समारोह में राजकुमारों की महान् सभा भी थी, भगवान् श्रीकृष्ण भी उस सभा में उपस्थित थे और उन्होंने वहाँ उपस्थित सभी राजकुमारों को पराजित करके मुझे अपनी दासी के रूप में स्वीकार किया । वे तत्काल ही मुझे द्वारका ले गए, जिस प्रकार सिंह कुत्तों के झुण्ड से मृग को उठाकर ले जाता है । जब मुझे इस प्रकार श्रीकृष्ण द्वारा ले जाया गया, तो मेरा भ्राता उनसे युद्ध करना चाहता था और बाद में वह पराजित हो गया । इस प्रकार प्रत्येक जन्म में श्रीकृष्ण की दासी बनने की मेरी इच्छा पूर्ण हो गई ।"
तत्पश्चात्, सत्या ने द्रौपदी को इस प्रकार सम्बोधित किया: "प्रिय द्रौपदी ! मेरे पिताजी ने मेरे स्वयंवर के लिए एक सभा का आयोजन किया तथा प्रत्याशित दूल्हों के बल एवं वीर्य की परीक्षा लेने के लिए मेरे पिताजी ने अनुबन्ध किया कि प्रत्येक राजकुमार उनके सात भयानक साँड़ों के साथ युद्ध करे, जिनके लम्बे सर्पिल सींग थे । अनेक वीर प्रत्याशित दूल्हे साँड़ों को पराजित करने का प्रयास करते रहे, परन्तु दुर्भाग्यवश सभी पर भयानक रूप से आघात हुआ तथा वे पराजित एवं अयोग्य होकर घर लौट गए । तब श्रीकृष्ण आए और उन्होंने साँड़ों के साथ युद्ध किया, जो उनके लिए खिलौने के समान थे । उन्होंने साँड़ों को अपने अधिकार में कर लिया तथा नाथकर उन्हें रस्सी से बाँध दिया । इस प्रकार वे उनके नियंत्रण में उसी प्रकार आ गए, जिस प्रकार मेमने के बच्चे सरलतापूर्वक नियंत्रण में आ जाते हैं । मेरे पिताजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने अत्यन्त धूमधाम से श्रीकृष्ण के साथ मेरा विवाह किया । उन्होंने मेरे दहेज के रूप में सैनिक, घोड़ों, रथों एवं हाथियों के अनेक दलों के साथ सैकड़ों दासियाँ दीं । इस प्रकार श्रीकृष्ण मुझे अपनी राजधानी द्वारका ले आए । वापस आते हुए मार्ग में अनेक राजकुमारों ने उन पर आक्रमण किया ।"
इसके पश्चात् भद्रा ने कहना आरम्भ किया, "प्रिय द्रौपदी ! भगवान् श्रीकृष्ण मेरे मामा के पुत्र हैं । सौभाग्य से, मैं उनके कमल-चरणों से आकर्षित हुई । जब मेरे पिताजी को मेरी इस भावनाओं का ज्ञान हुआ, तो उन्होंने व्यक्तिगत रूप से विवाह के लिए प्रबन्ध किया, जिसमें उन्होंने श्रीकृष्ण को मेरे साथ विवाह करने के लिए आमंत्रित किया और दहेज के रूप में एक अक्षौहिणी सशस्त्र सैनिकों का समूह तथा अनेक दासियाँ और अन्य राजकीय सामग्री दी । मैं नहीं जानती कि मैं प्रत्येक जन्म में श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर पाऊँगी अथवा नहीं, परन्तु फिर भी मैं श्रीभगवान् से प्रार्थना करती हूँ कि जहाँ भी मैं जन्म लूँ, मैं उनके कमल-चरणों के साथ अपना सम्बन्ध न भूलूँ ।” उसके बाद लक्ष्मणा ने कहा, "प्रिय महारानी ! अनेक बार मैंने नारद मुनि से श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करते हुए सुना है । किन्तु मैं श्रीकृष्ण के चरणकमलों की ओर तब आकर्षित हुई, जब मैंने नारदजी को कहते हुए सुना कि भाग्यदेवी लक्ष्मी भी उनके चरणकमलों के प्रति आकर्षित थीं । तबसे मैं उनके विषय में सोचती रही और इस प्रकार उनके प्रति मेरे आकर्षण में वृद्धि हुई । प्रिय रानी ! मेरे पिताजी मेरे प्रति अत्यन्त स्नेहिल थे । जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं श्रीकृष्ण के प्रति आकर्षित हूँ, तो उन्होंने एक योजना बनाई । उनकी योजना आपके पिता की योजना के समान थी-स्वयंवर के मध्य प्रत्याशित दूल्हों को अपने बाणों द्वारा मछली की आँख को चीरना था । हम दोनों के स्वयंवर की प्रतिस्पर्धा में अन्तर यह था कि आपके प्रसंग में मछली छत पर टँगी थी और उसे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था, परन्तु मेरे प्रसंग में मछली एक कपड़े द्वारा आच्छादित थी और उस मछली को जल में पड़ रहे कपड़े के प्रतिबिम्ब से ही देखा जा सकता था । मेरे स्वयंवर की यह विशेषता थी ।
"इस युक्ति का समाचार सम्पूर्ण जगत् में फैल गया और जब राजकुमारों ने इसके बारे में सुना, तो वे सभी दिशाओं से मेरे पिताजी की राजधानी में आए । वे शस्त्रों से युक्त तथा अपने सैन्य प्रशिक्षकों के मार्गदर्शन में थे । प्रत्येक की इच्छा थी कि वह मुझे अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त कर ले और एक के बाद एक उन्होंने धनुष उठाया, जिसे मछली को लक्ष्य करने के लिए वहाँ रखा गया था । अनेक राजकुमार धनुष के दोनों छोरों पर प्रत्यंचा जोड़ भी नहीं पाए तथा मछली को बेधने का प्रयास किए बिना उन्होंने धनुष को जैसे का तैसा छोड़ दिया और वापस चले गए । कुछ राजकुमार अत्यन्त कठिनाई से प्रत्यंचा को एक छोर से दूसरे छोर तक खींच पाये, किन्तु वे उसे बाँधने में असमर्थ होकर अचानक ही कमानी के समान धनुष के शिकार बनकर नीचे गिर गए । प्रिय रानी, आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मेरी स्वयंवर-सभा में अनेक प्रसिद्ध राजा एवं वीर उपस्थित थे । अवश्य ही जरासन्ध, अम्बष्ठ, शिशुपाल, भीमसेन, दुर्योधन तथा कर्ण जैसे वीर धनुष में प्रत्यंचा चढ़ाने में सफल हुए, परन्तु वे मछली को बेध नहीं सके, क्योंकि वह आच्छादित थी तथा वे उसके प्रतिबिम्ब से उसे खोज नहीं पाए । पाण्डवों में वीर अर्जुन जल में मछली का प्रतिबिम्ब देखने में सफल हो गए । यद्यपि अत्यन्त सावधानीपूर्वक उन्होंने मछली की स्थिति को खोज निकाला और एक बाण छोड़ा, पर वे मछली को सही स्थान पर भेदन नहीं कर पाए । उनका बाण कम से कम मछली को छू तो सका और इसलिए सिद्ध हुआ कि वे अन्य राजकुमारों से श्रेष्ठ हैं ।
"सभी राजकुमार, जिन्होंने लक्ष्य भेदने का प्रयास किया था, अपने प्रयासों में निष्फल होकर निराश हो गए और कुछ प्रत्याशी तो बिना प्रयत्न किए ही स्थान छोड़कर चले गए । परन्तु अन्त में जब श्रीकृष्ण ने धनुष लिया, तब उन्होंने प्रत्यंचा को सरलतापूर्वक चढ़ा दिया, जिस प्रकार एक बालक खिलौने के साथ खेलता है । उन्होंने जल में मछली के प्रतिबिम्ब को केवल एक बार देखकर, एक बाण छोड़ा, तो बिद्ध मछली तत्काल ही जल में गिर पड़ी । भगवान् श्रीकृष्ण की यह विजय मध्याह्न काल में हुई और उस विजय के क्षण को अभिजित कहते हैं ।
यह क्षण ज्योतिष गणना के अनुसार शुभ है । उस समय सम्पूर्ण विश्व में “जय ! जय !" की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी तथा आकाश में मृदंग की आवाज होने लगी, जिसे स्वर्ग के निवासी बजा रहे थे । महान् देवता आनन्द से अभिभूत हो गए और धरती पर पुष्पों की वर्षा करने लगे ।
"उस समय मैंने स्पर्धा-क्षेत्र में प्रवेश किया और जैसे-जैसे मैं चलती थी, वैसे ही मेरे चरणों के घुंघरू मधुर ध्वनि उत्पन्न करते थे । मैं नवीन रेशमी वस्त्रों से सज्जित थी और मेरे केश पुष्पों से अलंकृत थे, मैं श्रीकृष्ण की विजय के हर्ष से भावविभोर होकर मुस्करा रही थी । मैं अपनी भुजाओं में रत्नजटित स्वर्ण माला धारण किए हुए थी, जो समय-समय पर चमक उठती थी । मेरे कुंचित केश मेरे मुख को घेरे हुए थे, मेरा मुख मेरे विभिन्न वलयों के प्रतिबिम्ब के कारण प्रकाशमय कान्ति सहित चमक रहा था । मैंने एक दृष्टि में सर्वप्रथम सभी राजकुमारों का निरीक्षण किया और जब मैं अपने भगवान् के समीप पहुँची, तब मैंने अत्यन्त धीमी गति से उस स्वर्णमाला को उनके गले में डाल दिया । जैसाकि मैं आपको सूचित कर चुकी हूँ, आरम्भ से ही मेरा मन श्रीकृष्ण से आकर्षित था, इसलिए श्रीभगवान् को माला पहनाकर मैंने स्वयं को धन्य माना । जैसे ही मैंने श्रीभगवान् के गले में माला डाली, वैसे ही मृदंग, शंख, ढोलक, नगाड़े तथा अन्य वाद्यों की मिश्रित ध्वनि गूंज उठी । परिणामस्वरूप तुमुल ध्वनि उत्पन्न हुई और जब संगीत बजने लगा, तो निपुण पुरुष एवं स्त्री नर्तकियाँ नृत्य करने लगीं और गायक मधुर स्वर में गाने लगे ।
"प्रिय द्रौपदी ! जब मैंने श्रीकृष्ण को अपने पूजनीय पति के रूप में स्वीकार किया और उन्होंने भी मुझे अपनी दासी के रूप में स्वीकार किया, तब निराश राजकुमारों में उग्र शोर हुआ । सभी अपनी अपनी कामुक इच्छाओं के कारण अत्यन्त उत्तेजित हो उठे, परन्तु उनकी परवाह किए बिना मेरे पति ने, अपने चतुर्भुज नारायण रूप में, तत्काल ही मुझे अपने रथ पर बिठाया, जो चार उत्कृष्ट घोड़ों से युक्त था । राजकुमारों की ओर से विरोध की आशा करते हुए उन्होंने स्वयं को सशस्त्र किया और शाङ्ग नामक अपना धनुष धारण किया, परन्तु हमारे प्रसिद्ध सारथि दारुक ने उस सुन्दर रथ को एक क्षण के लिए भी न रोक कर द्वारका की ओर गतिशील किया । इस प्रकार, सभी राजकुमारों की उपस्थिति में मुझे वहाँ से उठा ले जाया गया, जिस प्रकार सिंह मृग को झुण्ड में से उठाकर ले जाता है । तथापि कुछ राजकुमार हमारी गति पर नियंत्रण करना चाहते थे और इसलिए पर्याप्त शस्त्रों से युक्त होकर उन्होंने हमारा विरोध किया, जैसे कुत्ते सिंह के गतिशील अभियान को रोकना चाहते हैं । उस समय, श्रीकृष्ण के शारंग धनुष से छोड़े गए बाणों के कारण कुछ राजकुमारों की बायीं भुजाओं में चोट लगी, कुछ अपने पैर खो बैठे और कुछ अपना सिर और जीवन गँवा बैठे और अन्य युद्धस्थल से भाग गए । तदनन्तर श्रीभगवान् ब्राह्मण्ड की सर्वाधिक सुसज्जित नगरी द्वारका में प्रविष्ट हुए और जैसे ही उन्होंने नगर में प्रवेश किया, वे देदीप्यमान् सूर्य के समान प्रतीत हो रहे थे । इस अवसर पर सम्पूर्ण द्वारका अत्यन्त सुन्दर रूप से अलंकृत थी । सम्पूर्ण द्वारका में इतनी अधिक ध्वजाएँ और वन्दनवार थे कि सूर्य-किरणें नगर में प्रवेश भी नहीं कर पा रही थीं । मैंने आपको पहले ही बता दिया है कि मेरे पिताजी मेरे प्रति अत्यन्त स्नेहिल थे, अतएव जब उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण को पति के रूप में पाकर मेरी इच्छा पूर्ण हो गई है, तो वे प्रसन्नतावश अपने मित्रों एवं सम्बन्धियों में विभिन्न प्रकार की भेंटें, जैसे मूल्यवान वस्त्र, आभूषण, पलंग एवं बैठने की दरियाँ, वितरित करने लगे । भगवान् श्रीकृष्ण आत्म-निर्भर हैं, तथापि मेरे पिताजी ने स्वेच्छा से मेरे पति को धन, सैनिक, हाथी, रथ, घोड़े तथा अनेक मूल्यवान एवं विरल शस्त्र दहेज में दिए । उन्होंने अत्यन्त उत्साह के साथ ये सभी वस्तएँ श्रीकृष्ण को दीं । प्रिय रानी ! उस समय मैं अनुमान लगा सकती थी कि श्रीकृष्ण की रानियों के साथ द्रौपदी का मिलन पूर्वजन्म में मैंने कोई अद्भुत मांगलिक कार्य किया होगा और उसी के परिणामस्वरूप इस जन्म में श्रीकृष्ण के आवास स्थान में दासी बन पा रही हूँ ।"
जब श्रीकृष्ण की सभी प्रमुख रानियों ने अपने वर्णन समाप्त कर दिये, तब अन्य सोलह हजार रानियों की प्रतिनिधि बनकर रोहिणी ने उनके द्वारा श्रीकृष्ण की पत्नियाँ बनने की घटना का वर्णन किया ।
"प्रिय रानी ! जब भौमासुर सम्पूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त कर रहा था, तब उसने यथासम्भव राजाओं की सुन्दर कन्याओं को एकत्रित किया और महल के भीतर हमें बन्दी बनाकर रखा । जब हमारे बन्धन के समाचार भगवान् श्रीकृष्ण के पास पहुँचे, तो उन्होंने भौमासुर के साथ युद्ध करके हमें मुक्त किया । श्रीकृष्ण ने भौमासुर और उनके सैनिकों का वध कर दिया । यद्यपि उन्हें एक भी पत्नी स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं थी, तथापि हमारे आग्रह पर उन्होंने हम सोलह हजार कन्याओं के साथ विवाह किया । प्रिय रानी ! हमारा एकमात्र गुण यह था कि हम सदैव ही श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ही स्मरण करती थीं, जो स्वयं को पुन: जन्म एवं मृत्यु के बन्धन से मुक्त करने का मार्ग है । मेरी प्रिय द्रौपदी रानी ! हमें ऐश्वर्यों की इच्छा नहीं है । हम ऐसे भौतिक ऐश्वर्यों का भोग नहीं करना चाहतीं, न हम योगिक सिद्धियों को प्राप्त करना चाहती हैं, न ही ब्रह्माजी की श्रेष्ठ स्थिति को चाहती हैं । हम विभिन्न प्रकार की मुक्तियों में से कोई मुक्ति जैसे सालोक्य, सार्ष्ठी, सामीप्य अथवा सायुज्य भी नहीं चाहती हैं । हम इन ऐश्वर्यों से तनिक भी आकर्षित नहीं होतीं । हमारी एकमात्र इच्छा यह है कि हम श्रीकृष्ण के चरणकमलों में लगी हुई धूल के कणों को प्रत्येक जीवन में अपने सिर पर धारण किए रहें । भाग्यदेवी की भी इच्छा थी कि वह उन कणों को सुगन्धित केसर के साथ अपने वक्षस्थल पर लगाए रखें । हम केवल उस धूल की इच्छा रखती हैं, जो श्रीकृष्ण के चरणकमलों के तल पर तब एकत्रित हो जाती है, जब वे वृन्दावन-भूमि पर गोप बनकर भ्रमण करते हैं । विशेष रूप से गोपियाँ और गोप एवं आदिवासी स्त्रियाँ भी, वृन्दावन के पथ में घास एवं तृण बनने की सदैव इच्छा करती हैं, जिससे श्रीकृष्ण के चरणकमलों द्वारा दलित हों । प्रिय रानी ! हम प्रत्येक जीवन में बिना किसी अन्य इच्छा के इसी प्रकार रहना चाहती हैं ।"
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “श्रीकृष्ण की रानियों के साथ द्रौपदी का मिलन” नामक तिरासीवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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