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श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 84: वसुदेवजी द्वारा सम्पादित यज्ञ  » 
 
 
 
 
 
सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में उपस्थित स्त्रियों में कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, अन्य अनेक राजाओं की रानियाँ तथा वृन्दावन की गोपियाँ भी थीं । जब भगवान् श्रीकृष्ण की विभिन्न रानियों ने इस विषय में अपने कथन प्रस्तुत किए कि किस प्रकार उनका विवाह हुआ तथा भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया, तब कुरु देश की समस्त नारियाँ आश्चर्यचकित हो गई । श्रीकृष्ण की समस्त रानियों का उनके प्रति प्रेम व स्नेहपूर्ण आसक्ति देख कर वे स्त्रियाँ श्रद्धा से भर गई । जब उन्होंने श्रीकृष्ण के प्रति रानियों के प्रेम तथा अनुराग की तीव्रता के विषय में सुना, तो वे अपने नयनों को अश्रुपूरित होने से रोक न सकीं । जब स्त्रियाँ आपस में वार्तालाप में संलग्न थीं तथा पुरुष भी उन्हीं के समान आपस में वार्तालाप कर रहे थे, तभी भगवान् श्रीकृष्ण एवं बलरामजी के दर्शन के प्रयोजन से सभी दिशाओं से आनेवाले प्रमुख ऋषि तथा साधुगण वहाँ आ पहुँचे । कृष्णद्वैपायन व्यास, महर्षि नारद, च्यवन, देवल, असित, विश्वामित्र, शतानन्द, अत्रि, मार्कण्डेय, बृहस्पति, द्वित, त्रित, एकत, ब्रहमापुत्र चारों मार-सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत्कुमार-अंगिरा, अगस्त्य, याज्ञवल्क्य तथा वामदेव उन ऋषियों में प्रमुख थे ।

जैसे ही ऋषि तथा साधुगण पधारे, महाराज युधिष्ठिर, समस्त पाण्डव, भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी सहित समस्त राजा तत्काल अपने आसनों से उठ गए । उन सबने सिर झुका कर विश्ववंद्य आदरणीय ऋषियों को प्रणाम किया । इसके उपरान्त चरण-प्रक्षालन के निमित्त जल तथा आसन देकर ऋषियों का उचित सत्कार किया गया, सुस्वादु फल, पुष्पमालाएँ धूप तथा चन्दन के आलेप प्रस्तुत किए गए तथा श्रीकृष्ण एवम् बलरामजी के नेतृत्व में समस्त राजाओं ने वैदिक विधि-विधानों के अनुसार ऋषियों की उपासना की । जब समस्त ऋषि सुखपूर्वक बैठ गए तब धर्म की रक्षा के लिए अवतरित भगवान् श्रीकष्ण ने समस्त राजाओं की ओर से उन्हें सम्बोधित किया । जब श्रीकृष्ण ने बोलना प्रारम्भ किया तब ऋषियों के स्वागतार्थ कहे गए उनके शब्दों को सुनने तथा समझने के लिए उत्सुक सभी लोग शान्त हो गए ।

भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा, "एकत्रित ऋषि तथा तपस्वी महात्माओं ! आज हम सबको अपना जीवन सफल प्रतीत हो रहा है । आज हमने जीवन का वांछित लक्ष्य प्राप्त कर लिया है, क्योंकि जिन उत्कृष्ट, मुक्त ऋषियों तथा तपस्वियों के दर्शन के लिए स्वर्ग लोक के महान् देवता तक लालायित रहते हैं, हम उनका प्रत्यक्ष दर्शन कर रहे हैं । भक्ति में नवागन्तुक व्यक्ति केवल मन्दिर की श्रीमूर्ति को सादर प्रणाम करते हैं, किन्तु यह नहीं समझते हैं कि भगवान् प्रत्येक प्राणी के हृदय में विराजमान हैं तथा जो केवल अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए विभिन्न देवताओं की उपासना करते हैं, वे इन ऋषियों की महत्ता को समझने में असमर्थ हैं । वे अपने नयनों से उनके दर्शन करने, उनके चरणों का स्पर्श करने, उनके कल्याण के विषय में पूछताछ करने अथवा उनकी उपासना द्वारा इन ऋषियों का स्वागत करने का लाभ नहीं उठा सकते हैं ।" कनिष्ठ भक्त अथवा नाम-मात्र के धार्मिक व्यक्ति महान् महात्माओं के महत्त्व को नहीं समझ सकते हैं । वे केवल औपचारिकता वश मन्दिर में जाते हैं तथा श्रीमूर्ति को प्रणाम करते हैं ।

जब व्यक्ति का उत्कर्ष उदात्त भावना के स्तर तक पहुँच जाता है, तब वह महात्माओं तथा भक्तों के महत्त्व को समझ सकता है तथा उस स्थिति में भक्त उनको प्रसन्न करने की चेष्टा करता है । अतएव भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि कनिष्ठ भक्त महर्षियों, भक्तों तथा संन्यासियों के महत्त्व को नहीं समझ सकता है ।

श्रीकृष्ण ने आगे कहा, "तीर्थ स्थानों पर जाने, वहाँ स्नान करने तथा मन्दिरों में श्रीमूर्तियों के दर्शन के द्वारा कोई स्वयं को निर्मल नहीं कर सकता है । किन्तु यदि व्यक्ति को किसी महान् भक्त, श्रीभगवान् के प्रतिनिधि किसी महात्मा से मिलने का सौभाग्य मिलता है, तब वह व्यक्ति तत्काल ही निर्मल हो जाता है । निर्मल होने के लिए अग्नि, सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, जल, वायु, आकाश तथा मन की उपासना करने का विधान है । समस्त तत्त्वों तथा उनके अधिष्ठाता देवताओं की उपासना के द्वारा व्यक्ति द्वेष के प्रभाव से मुक्त हो जाता है, किन्तु एक विद्वेषी व्यक्ति के समस्त पाप केवल किसी महात्मा की सेवा करने से तत्काल ही नष्ट हो सकते हैं । हे पूज्य ऋषियो तथा आदरणीय राजाओं ! मुझसे सुनकर आप यह तथ्य मान लीजिए कि कफ, वात तथा पित्त नामक तीन तत्त्वों से निर्मित भौतिक शरीर को निज आत्मा के रूप में स्वीकार करने वाला मानव एक पशु-मात्र है । जो व्यक्ति अपने परिवार तथा परिजनों को अपना मानता है तथा जो भौतिक वस्तुओं को उपास्य मानता है, वह पशु के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । जो व्यक्ति केवल वहाँ स्नान करने के लिए पवित्र तीर्थों की यात्रा करता है, किन्तु ऋषियों, मुनियों तथा महात्माओं जैसे महाजनों की संगति कभी नहीं करता, ऐसा व्यक्ति मानव शरीरधारी होते हुए भी गधे के समान एक पशु के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।"

जब परम अधिकारी भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक बोल रहे थे तब समस्त ऋषि व संन्यासी पूर्णतया शान्त थे । जीवन के परम पूर्ण दर्शन का इस प्रकार संक्षिप्त में भगवान् के द्वारा कथन सुन कर वे चकित थे । यदि व्यक्ति का ज्ञान अत्यन्त उन्नत न हो, तो व्यक्ति अपने शरीर को ही अपनी आत्मा मानता है, अपने परिवार के सदस्यों को अपना सम्बन्धी मानता है तथा अपनी जन्मभूमि को उपास्य मानता है । जीवन की इसी धारणा से राष्ट्रीय भावना के आधुनिक आदर्श का जन्म हुआ है । भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसे विचारों की भर्त्सना की । उन्होंने ऐसे लोगों की भी भर्त्सना की जो केवल स्नान करने के लिए ही पवित्र तीर्थस्थानों में जाने का कष्ट उठाते हैं तथा वहाँ निवास करने वाले महान् भक्तों तथा महात्माओं की संगति का लाभ उठाये बिना ही लौट आते हैं । ऐसे व्यक्तियों की तुलना सर्वाधिक मूर्ख पशु, गधे, से की गई है । भगवान् के वचनों का श्रवण करने वाले समस्त लोगों ने कुछ काल तक विचार किया । उन सबने यह निष्कर्ष निकाला कि भगवान् श्रीकृष्ण वस्तुत: श्रीभगवान् हैं, जो अपने विगत कर्मों के फल के परिणामस्वरूप एक विशेष प्रकार का शरीर ग्रहण करने को बाध्य एक साधारण मानव की जैसी भूमिका निभा रहे हैं । साधारण मानव की भूमिका करने की लीला वे केवल जन-साधारण को यह शिक्षा देने के लिए ही कर रहे थे कि मानव जीवन के ध्येय की पूर्णता के लिए किस प्रकार का जीवन जीना चाहिए ।

श्रीकृष्ण के श्रीभगवान् होने का निष्कर्ष निकालने के उपरान्त ऋषियों ने उनको इस प्रकार सम्बोधित करना प्रारम्भ किया, "प्रिय भगवन् ! समझा जाता है कि मानव-समाज के नेता के रूप में हम लोगों के पास जीवन का उचित दर्शन है, तो भी हम आपकी बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से भ्रमित हो रहे हैं । हम आपका व्यवहार देखकर चकित हैं । आपका व्यवहार एक साधारण मानव के समान है और यह श्रीभगवान् के रूप में आपके वास्तविक स्वरूप को छुपाए रखता है, अतएव हम आपकी लीलाओं को अत्यन्त अद्भुत मानते हैं ।

"प्रिय भगवन् ! जिस प्रकार पृथ्वी विभिन्न प्रकार के पाषाणों, वृक्षों तथा अन्य अनेक प्रकार के नाम व रूपों की रचना करती है और फिर भी वैसी ही रहती है उसी प्रकार अपनी शक्ति के द्वारा आप विभिन्न नाम-रूपों की सम्पूर्ण सृष्टि की रचना, पालन व संहार कर रहे हैं । यद्यपि आप अपनी शक्ति के माध्यम से विभिन्न प्रकार की सृष्टि कर रहे हैं, तथापि आप इन सब कर्मों से अप्रभावित रहते हैं । प्रिय भगवन् ! आपके अद्भुत कार्यों को देखकर हम आश्चर्यचकित रह जाते हैं । यद्यपि आप इस सम्पूर्ण भौतिक सृष्टि से ऊपर हैं तथा परमेश्वर एवम् समस्त जीवों के परमात्मा हैं, फिर भी आप अपने भक्तों की रक्षा तथा दुष्कर्मियों के विनाश के लिए अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा इस पृथ्वी पर प्रकट होते हैं । माया के साथ दीर्घकालीन सम्बन्ध के कारण मानव-समाज शाश्वत धर्म के जिस सिद्धान्त को भूल जाता है, उसे आप इस प्रकार प्रकट हो कर पुनर्स्थापित करते हैं । प्रिय भगवन् ! आप सामाजिक व्यवस्था तथा कर्म की श्रेष्ठता के अनुरूप मानव-समाज के आध्यात्मिक नियमों के रचयिता हैं । जब अनैतिक व्यक्ति इन व्यवस्थाओं का गलत दिशाओं में उपयोग करते हैं, तब आप प्रकट हो कर उनकी भूल सुधारते हैं ।

"प्रिय भगवन् ! वैदिक ज्ञान आपके निर्मल हृदय का प्रतिनिधि है । तपस्या, वेदाध्ययन तथा समाधि आपके प्रकाशित तथा अप्रकाशित रूपों में आपका साक्षात्कार कराते हैं । समस्त दृश्य जगत् आपकी निर्विशेष शक्ति का एक प्रकाश है, किन्तु श्रीभगवान् के रूप में आप स्वयं वहाँ अप्रकाशित हैं । आप परमात्मा, परम ब्राह्म हैं, अतएव ब्राह्मण संस्कृति में स्थित लोग आपके अप्राकृत रूप-विषयक सत्य को समझ सकते हैं । इस प्रकार आप सदैव ही ब्राह्मणों का आदर करते हैं । इस प्रकार आपको ब्राह्मण संस्कृति का अनुसरण करने वालों में मूर्धन्य माना जाता है । अतएव आपको ब्राह्मण्यदेव कहा जाता है । प्रिय भगवन् ! आप सौभाग्य की पराकाष्ठा हैं तथा सज्जनों के अन्तिम आश्रय हैं । अतएव हम सब यह मानते हैं कि आपसे मिलकर हमने अपने जीवन, शिक्षा, तप तथा दिव्य–ज्ञान प्राप्ति की पूर्णता को प्राप्त कर लिया है । वस्तुत: आप समस्त दिव्य उपलब्धियों के चरम लक्ष्य हैं ।

"प्रिय भगवन् ! आपके असीम ज्ञान का कोई अन्त नहीं है । आपका स्वरूप दिव्य तथा सच्चिदानन्द है । आप श्रीभगवान्, परम ब्राह्म हैं, परमात्मा हैं । अपनी अन्तरंगा शक्ति, योगमाया, के प्रभाव से आच्छादित होकर, इस समय आपने अपनी असीम शक्तियों को अस्थायी रूप से छुपा रखा है, किन्तु फिर भी हम आपके उत्कृष्ट पद को समझ सकते हैं, अतएव हम सब आपको सादर प्रणाम करते हैं । प्रिय भगवन् ! एक मानव की भूमिका में, अप्राकृत ऐश्वर्ययुक्त अपने वास्तविक चरित्र को छुपा कर आप अपनी लीलाओं का आनन्द उठा रहे हैं । इसीलिए यहाँ उपस्थित समस्त राजा तथा आपसे मिलने वाले, आपके साथ भोजन करने वाले तथा आपके साथ बैठने वाले यदुवंश के सदस्य भी यह नहीं समझ सकते हैं कि आप समस्त कारणों के मूल कारण, प्रत्येक जीव की आत्मा तथा समस्त सृष्टि के आदि कारण हैं ।

"जब कोई व्यक्ति रात्रि में स्वप्न देखता है, तब स्वप्ननिर्मित मायावी रूपों को वह सत्य मान लेता है तथा काल्पनिक स्वप्न-शरीर को अपना वास्तविक शरीर स्वीकार कर लेता है । उस समय व्यक्ति यह भूल जाता है कि मतिभ्रम द्वारा निर्मित शरीर के अतिरिक्त जाग्रतावस्था में उसका एक अन्य वास्तविक शरीर भी है । इसी के समान जाग्रतावस्था में भी भ्रमित बद्धात्मा इन्द्रियभोग को वास्तविक सुख मानती है ।

" भौतिक शरीर की इन्द्रियों के भोग के द्वारा आत्मा आच्छादित हो जाती है तथा उसकी चेतना भौतिकता से दूषित हो जाती है । भौतिक चेतना के कारण ही व्यक्ति श्रीभगवान् श्रीकृष्ण को समझने में असमर्थ रहता है । समस्त महान् योगी, योगप्रणाली के अभ्यास के द्वारा अपनी कृष्णभावना को पुनर्जीवित करने का प्रयास करते हैं और इस प्रकार उन्हें आपके चरणकमलों का ज्ञान होता है तथा वे आपके दिव्य स्वरूप पर ध्यान एकाग्र करते हैं । इस विधि से पापों के संचित फल का नाश हो जाता है । कहा जाता है कि गंगाजल व्यक्ति के ढेरों पापों का नाश कर सकता है, किन्तु गंगाजल आपके चरणों के प्रताप से ही यशस्वी है । गंगाजल आपके चरणरविन्दों के स्वेद जल के रूप में प्रवाहित हो रहा है । हम सब इतने भाग्यवान् हैं कि आज हम आपके चरणकमलों का साक्षात् दर्शन करने में समर्थ हुए हैं । प्रिय भगवन् ! हम सब शरणागत आत्माएँ हैं, आपके भक्त हैं, अतएव कृपया दयालु होइए तथा हम पर अपनी अहैतुकी दया की वर्षा कीजिए । हमें भलीभाँति ज्ञात है कि जो लोग आपकी भक्ति में निरन्तर संलग्न रहने के कारण मुक्त हो गए हैं, वे अब प्रकृति के भौतिक त्रिगुणों से दूषित नहीं हैं । इस प्रकार वे वैकुण्ठलोक में भगवान् के राज्य में प्रवेश पाने के अधिकारी बन गए हैं ।"

आदि भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करने के उपरान्त एकत्र ऋषि राजा धृतराष्ट्र तथा राजा युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर अपने-अपने आश्रमों को प्रस्थान करना चाहते थे । किन्तु उसी समय पुण्यात्माओं में सर्वश्रेष्ठ तथा भगवान् श्रीकृष्ण के पिता वसुदेवजी ऋषियों के समीप गए तथा अत्यन्त विनयपूर्वक उनके चरणों में गिर कर उनकी वन्दना की । वसुदेव जी ने कहा "प्रिय महर्षियों ! आप देवताओं से भी अधिक आदरणीय हैं, अतएव मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ । मेरी कामना है कि आप मेरी एक विनती स्वीकार करें । कृपया यदि आप अन्य समस्त कर्मों के फल को निष्फल करने वाले परम सकाम कर्म की व्याख्या कर दें, तो मैं इसे एक महान् अनुग्रह समझुंगा ।"

वहाँ उपस्थित ऋषियों के नेता देवर्षि नारद थे । अतएव उन्होंने कहना प्रारम्भ किया, "प्रिय ऋषियों ! यह समझना अति कठिन नहीं है कि श्रीकृष्ण को पुत्र रूप में स्वीकार करके श्रीभगवान् के पिता बनने वाले वसुदेवजी अपनी महान् सदाशयता तथा सादगी के कारण हमसे अपने कल्याण के विषय में प्रश्न करने की प्रवृत्ति रखते हैं । कहा जाता है कि समीपता तिरस्कार की जननी है । इस प्रकार श्रीकृष्ण को पुत्र रूप में प्राप्त कर के वसुदेवजी श्रीकृष्ण को आदर तथा भय से नहीं देखते हैं । कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि गंगा नदी के तट पर निवास करने वाले लोग गंगा को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण नहीं समझते हैं तथा वे स्नान के लिए अत्यन्त दूर किसी तीर्थस्थान पर जाते हैं । यह देखते हुए कि किसी भी परिस्थिति में अद्वितीय ज्ञान वाले भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ उपस्थित हैं, अतएव हमसे उपदेश लेने की वसुदेवजी को कोई आवश्यकता नहीं है ।

"भगवान् श्रीकृष्ण सृष्टि, पालन तथा संहार की प्रक्रियाओं से अप्रभावित रहते हैं । उनका ज्ञान अपने से परे की किसी भी वस्तु से कदापि प्रभावित नहीं होता है । वे वस्तुओं को काल के गुणों में परिवर्तित करने वाली भौतिक गुणों की पारस्परिक क्रिया से कभी विचलित नहीं होते हैं । उनका दिव्य रूप ज्ञानमय है, जो अज्ञान, अहंकार, मोह, द्वेष अथवा इन्द्रियभोग से कभी-भी उद्विग्न नहीं होता है । पाप तथा कर्मों के सम्बन्ध में उनका ज्ञान कभी-भी कर्म के नियम का विषय नहीं बनता है, न ही यह प्रकृति के त्रिगुणों से प्रभावित होता है । न तो कोई उनसे बड़ा है, न उनके बराबर है, क्योंकि वे परम अधिकारी श्रीभगवान् हैं ।

“साधारण बद्ध मानव यह विचार कर सकते हैं कि अपनी भौतिक इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि द्वारा आच्छादित बद्धात्मा श्रीकृष्ण के बराबर है । किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण सूर्य के समान हैं, जो कभी-कभी मेघ, हिम, कुहरे अथवा अन्य ग्रहों से आच्छादित प्रतीत तो होता है, किन्तु वास्तव में वह कभी-भी किसी वस्तु से आच्छादित नहीं होता । जब अल्पबुद्धि मनुष्यों के नेत्र ऐसे प्रभावों से आच्छादित होते हैं, तब वे यह विचार करते हैं कि सूर्य अदृश्य है । उसी के समान इन्द्रियों से प्रभावित तथा भौतिक भोगों के आदी लोगों को श्रीभगवान् के स्पष्ट दर्शन नहीं हो सकते हैं ।"

तदुपरान्त उपस्थित ऋषियों ने भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी तथा अन्य अनेक राजाओं की उपस्थिति में वसुदेवजी को सम्बोधित करना प्रारम्भ किया । वसुदेवजी की प्रार्थना के अनुसार ऋषियों ने उन्हें अपना उपदेश दिया, "कर्म के प्रभाव को अथवा सकाम कर्म के लिए व्यक्ति को बाध्य करने वाली इच्छाओं को निष्फल करने के लिए भगवान् विष्णु की उपासना के हेतु विशेष रूप से जिन यज्ञों की व्यवस्था की गई है, उनका विश्वास तथा भक्तिपूर्वक सम्पादन करना चाहिए । भगवान् विष्णु समस्त यज्ञों के फल के भोक्ता हैं । भूत, भविष्य तथा वर्तमान के ज्ञाता, त्रिकालदर्शी, महाजन, साधु तथा धर्मग्रन्थों के नेत्रों से सब वस्तुओं को स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ मनीषी एकमत होकर कहते हैं कि हृदय में संचित भौतिक दूषणों की धूलि को निर्मल करके तथा भक्ति के पथ को निष्कंटक करके दिव्य आनन्द प्राप्त करने के लिए प्राणी को भगवान् विष्णु को प्रसन्न करना चाहिए । विभिन्न सामाजिक वर्गों (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) में गृहस्थ के रूप में रहने वालों के लिए, पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध आदि पुरुष भगवान् श्रीविष्णु की इस उपासना को एकमेव शुभ मार्ग कहा गया है ।

““बद्धात्माओं की इस भौतिक जगत् में भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त करने की इच्छा बहुत गहरी है । प्रत्येक व्यक्ति सम्पत्ति एकत्र करना चाहता है, प्रत्येक व्यक्ति अधिकतम सीमा तक जीवन का सुख भोगना चाहता है, प्रत्येक व्यक्ति पत्नी, घर तथा सन्तान की कामना करता है । प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा है कि वह इस जगत् में सुखी हो तथा अगले जीवन में स्वर्ग प्राप्त करे । किन्तु ये इच्छाएँ ही व्यक्ति के भौतिक बन्धन के कारण हैं । अतएव इस बन्धन से छुटकारा प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को भगवान् विष्णु की सन्तुष्टि के निमित्त ईमानदारी से अर्जित अपनी सम्पत्ति न्योछावर करनी पड़ती है ।

"सभी प्रकार की भौतिक इच्छाओं के निष्फल करने की एकमात्र प्रक्रिया भगवान् विष्णु की भक्ति है । इस प्रकार गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी एक आत्मसंयमी व्यक्ति को तीनों प्रकार की भौतिक इच्छाओं का परित्याग करना चाहिए । ये तीन भौतिक इच्छाएँ हैं-भौतिक ऐश्वर्य के संचय की इच्छा, पत्नी तथा सन्तान-भोग की इच्छा एवं स्वर्ग-लोक गमन की इच्छा । अन्ततः वह गृहस्थ जीवन का परित्याग कर के संन्यास-जीवन को अपना सकता है । तब वह पूर्ण रूप से स्वयं को भगवान् की भक्ति में संलग्न कर देता है । यदि किसी व्यक्ति का जन्म उच्च वर्ण जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण में भी हुआ हो तब भी प्रत्येक व्यक्ति निश्चित रूप से देवताओं, ऋषियों, पूर्वजों तथा जीवों का ऋणी है । इन सब ऋणों से उऋण होने के लिए व्यक्ति को यज्ञ करने होते हैं, वैदिक साहित्य का अध्ययन करना होता है तथा गृहस्थ जीवन में सन्तान उत्पन्न करनी होती है । यदि किसी प्रकार से कोई व्यक्ति अपने ऋण चुकाये बिना ही संन्यास ग्रहण कर लेता है, तब वह निश्चय ही अपने पद से च्युत हो जाता है । आज आपने अपने पूर्वजों तथा ऋषियों का ऋण पहले से ही चुका दिया है । अब यज्ञ सम्पादन के द्वारा आप स्वयं को देवताओं के ऋण से मुक्त कर सकते हैं और इस प्रकार पूर्णरूप से श्रीभगवान् की शरण ग्रहण कर सकते हैं । प्रिय वसुदेव जी ! आपने निश्चय ही अपने पूर्व जन्म में अनेक पुण्य कर्म किए हैं अन्यथा आप भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी के पिता किस प्रकार हो सकते थे ?"

साधु प्रकृति के वसुदेवजी ने ऋषियों के वचन सुनने के उपरान्त उनके चरणकमलों में सादर प्रणाम किया । इस प्रकार उन्होंने ऋषियों को प्रसन्न कर लिया तथा तत्पश्चात् उन ऋषियों से ही यज्ञ करवाने का निश्चय किया । जब यज्ञ के पुरोहित के रूप में उन ऋषियों का चयन हो गया तब उन्होंने भी उस पुण्य क्षेत्र में यज्ञ सम्पादन के लिए आवश्यक सामग्री का संग्रह करने के लिए वसुदेवजी से कहा । इस प्रकार वसुदेव जी यज्ञ सम्पादन के लिए तत्पर हो गए तथा यदुवंश के समस्त सदस्यों ने स्नान करके उत्तम वस्त्र धारण किए । उन्होंने सुरुचिपूर्वक अपना श्रृंगार किया तथा कमलपुष्पों की माला धारण की । उत्तम वस्त्राभूषण तथा स्वर्णहार धारण किए हुए वसुदेवजी की पत्नियाँ अपने हाथों में यज्ञ में अर्पण की जाने वाली आवश्यक सामग्री लेकर यज्ञभूमि के समीप आई ।

जब सब कुछ पूर्ण हो गया तब मृदंगों, शंखों, नगाड़ों तथा अन्य वाद्ययंत्रों की ध्वनि सुनाई पड़ी । नारी व पुरुष नर्तक नृत्य करने लगे । सूत तथा मागधों ने गाकर स्तुति करना प्रारम्भ किया । मधुर स्वर वाले गन्धर्वों तथा उनकी पत्नियों ने अनेक मंगल गीत गाना प्रारम्भ किया । वसुदेवजी ने अपने नयनों में अंजन लगाया तथा समस्त शरीर पर मक्खन का लेप किया । तत्पश्चात् अपनी पटरानी देवकी सहित अपनी अठारह पत्नियों के साथ वे अभिषेक-संस्कार द्वारा निर्मल किए जाने के निमित्त पुरोहितों के सम्मुख बैठे । सारे संस्कार धर्मग्रन्थ के सिद्धान्तों के अनुसार किए गए, जैसे कि पहले चन्द्र तथा नक्षत्रों के सम्बन्ध में किया गया था । वसुदेवजी को यज्ञ में दीक्षित होना था, अतएव उन्होंने मृगछाला धारण की थी, किन्तु उनकी सभी पत्नियों ने उत्तम साड़ियाँ, कंगन, हार, नूपुर, कर्णफूल तथा अन्य अनेक आभूषण धारण कर रखे थे । अपनी पत्नियों से घिरे हुए वसुदेवजी अत्यन्त सुन्दर दिखाई दे रहे थे, जैसे कि ऐसे यज्ञ करते समय स्वर्गाधिपति इन्द्र दीखते हैं ।

उस समय, जब अपनी पत्नियों, सन्तानों तथा सम्बन्धियों सहित भगवान् श्रीकृष्ण तथा भगवान् श्रीबलराम ने विशाल यज्ञभूमि में अपने आसन ग्रहण किए तब ऐसा प्रतीत हुआ मानो अपने अंश, जीवों तथा अनेक शक्तियों सहित श्रीभगवान् वहाँ उपस्थित थे । हमने शास्त्रों से सुना है कि भगवान् श्रीकृष्ण की अनेक शक्तियाँ तथा अंश हैं, किन्तु अब उस यज्ञ भूमि में सब लोग वास्तव में अनुभव कर रहे थे कि किस प्रकार अपनी विविध शक्तियों सहित श्रीभगवान् का नित्य अस्तित्त्ववान है । उस समय समस्त जीवों के सागर भगवान् श्रीकृष्ण भगवान् श्रीनारायण के रूप में तथा भगवान् श्रीबलराम संकर्षण के रूप में प्रकट हुए ।

ज्योतिष्टोम, दर्श तथा पूर्णमास जैसे विभिन्न प्रकार के यज्ञों का सम्पादन करके वसुदेवजी ने भगवान् विष्णु को प्रसन्न कर लिया । इनमें से कुछ यज्ञों को प्राकृत तथा कुछ को सौर्यसत्र अथवा वैकृत कहा जाता है । तत्पश्चात् अग्निहोत्र नामक अन्य यज्ञ किए गए तथा निर्धारित वस्तुएँ उचित रीति से अर्पित की गई । इस प्रकार भगवान् विष्णु प्रसन्न हो गए । यज्ञ में नैवेद्य अर्पित करने का अन्तिम उद्देश्य भगवान् विष्णु को प्रसन्न करना है । किन्तु इस कलियुग में यज्ञ करने के निमित्त आवश्यक विभिन्न वस्तुओं को एकत्र करना अत्यन्त कठिन है । अतएव इस कलियुग में, जबकि लोग अधिकांशत: अभागे, उद्विग्नताओं से पूर्ण तथा विभिन्न प्रकार के प्रकोपों से उद्वेलित हैं, केवल एक ही यज्ञ करने का परामर्श दिया जा सकता है और वह है संकीर्तन यज्ञ । भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की उपासना इस संकीर्तन यज्ञ के द्वारा करना ही इस युग में एकमात्र उचित प्रक्रिया है ।

विभिन्न यज्ञों के सम्पादन के पश्चात् वसुदेवजी ने पुरोहितों को प्रचुर सम्पत्ति, वस्त्र, आभूषण, गउएँ भूमि तथा सेविकाएँ अर्पित कीं । तत्पश्चात् वसुदेवजी तथा उनकी सभी पत्नियों ने अवभृथ स्नान किया तथा पत्नीसंप्याज नामक यज्ञ-कर्म के भाग का सम्पादन किया । समस्त आवश्यक सामग्री सहित यज्ञ समाप्त करने के उपरान्त परशुरामजी के द्वारा निर्मित राम-हृद नाम से विख्यात सरोवरों में उन सब ने एकसाथ स्नान किया । वसुदेवजी तथा उनकी पत्नियों के स्नान कर लेने के पश्चात् उनके पहने हुए समस्त वस्त्राभूषण नृत्य तथा गायन में संलग्न दीन-हीन लोगों में बाँट दिए गए । यहाँ हमें इस तथ्य का ध्यान रखना चाहिए कि यज्ञों के सम्पादन के समय मुक्त हस्त से धन या सम्पत्ति का दान आवश्यक होता है । प्रारम्भ में पुरोहितों तथा ब्राह्मणों को दान दिया जाता है तथा यज्ञ के सम्पादन के उपरांत पहने हुए वस्त्राभूषण दीन-हीनों को दान कर दिए जाते हैं ।

पहने हुए वस्त्रादि गायकों तथा भाटों को देने के पश्चात् वसुदेवजी तथा उनकी पत्नियों ने नवीन वस्त्राभूषण धारण किए तथा ब्राह्मणों से लेकर कुत्तों तक, सबको भरपेट भोजन कराया गया । इसके पश्चात् समस्त राजाओं तथा विदर्भ, कोशल, कुरु, काशी, केकय तथा सृंजय वंशों के सदस्यों सहित वसुदेवजी के मित्र, परिजन, पत्नियाँ तथा सन्तानें सब एक स्थान पर एकत्र हो गए । पुरोहितों, देवताओं, जनसामान्य, पूर्वजों, भाटों तथा चारणों सभी को बहुत से उपहार तथा आदर देकर उन्हें पर्याप्त पारितोषिक दिया गया । तत्पश्चात् वहाँ उपस्थित सभी सज्जनों ने लक्ष्मी के पति श्रीकृष्ण से अनुमति ली और वसुदेवजी के द्वारा किए गए यज्ञ की पूर्णता का यशगान करते हुए उन्होंने अपने-अपने घरों को प्रस्थान किया ।

उस समय जब राजा धृतराष्ट्र, विदुर, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, भीष्मदेव, द्रोणाचार्य, कुन्ती, नकुल, सहदेव, नारद, भगवान् व्यासदेव तथा अन्य अनेक सम्बन्धी तथा परिजन विदा होने वाले थे, तब उन सबको विरह का अनुभव हुआ, अतएव उन्होंने यदुवंश के प्रत्येक सदस्य का अत्यन्त भावनापूर्वक आलिंगन किया । यज्ञ-भूमि में एकत्र अन्य लोगों ने भी प्रस्थान किया । इसके पश्चात् राजा उग्रसेन सहित भगवान् श्रीकृष्ण तथा भगवान् श्रीबलराम ने अनेक प्रकार के उपहार अर्पित करके वृन्दावन के निवासियों को सन्तुष्ट किया । वृन्दावन के निवासियों में प्रमुख नन्द महाराज तथा ग्वालबाल थे । उनके सत्कार तथा प्रसन्नता के लिए उन्हें बहुत मात्रा में अनेक प्रकार के उपहार अर्पित किए । अपने अति सखाभाव के कारण वृन्दावनवासियों ने वहाँ यदुवंशियों के साथ दीर्घ काल तक निवास किया । इस यज्ञ को करने के पश्चात् वसुदेवजी को इतना संतोष हुआ कि उनके हर्ष की सीमा न रही । उनके परिवार के समस्त सदस्य वहाँ थे और उनकी उपस्थिति में अपने-अपने व्यक्तिगत उपहार नन्द महाराज तथा उनके साथियों को भेंट किए । इन उन्होंने नन्द महाराज के हाथ पकड़ कर उन्हें इस प्रकार सम्बोधित किया, "प्रिय सब विदाई-उपहारों के ग्रहण करने के उपरान्त अपने सहयोगियों सहित नन्द भ्राता ! श्रीभगवान् ने प्रेम तथा स्नेह के महान् बन्धन का निर्माण किया है । मेरे विचार महाराज ने व्रजभूमि वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया । किन्तु वृन्दावनवासियों के मन से महार्षियों तथा स्वजनों के लिए भी ऐसे प्रेम-बन्धन को काटना एक कठिन कार्य श्रीकृष्ण तथा बलरामजी के समीप ही बने रहे, अतएव उन सबने बेमन के वृन्दावन है । प्रिय भ्राता ! आपने मेरे प्रति प्रेम-भाव प्रदर्शित किया था, किन्तु मैं उसका प्रत्युतर के लिए प्रस्थान किया । न दे सका । अतएव मेरा विचार है कि मैं कृतघ्न हूँ । आपने एक संत पुरुष के योग्य व्यवहार किया है, किन्तु मैं आपको कभी-भी इसका प्रतिदान न कर सकूंगा । आपके सौहार्दपूर्ण व्यवहार का प्रतिदान करने के लिए मेरे पास कोई साधन नहीं है । फिर भी मुझे विश्वास है की हमारा प्रेम-बंधन कभी भंग नहीं होगा । मैं आपको प्रतिदान करने में असमर्थ हूँ, फिर भी हमारा सखा-सम्बन्ध सदैव चलता रहना चाहिए । मुझे आशा है की इस असमर्थता के लिए आप मुझे क्षमा करेंगे ।

“प्रिय भ्राता ! प्रारम्भ में अपने बन्दी होने के कारण मैं एक मित्र के रूप में कभी आपकी सेवा न कर सका । यद्यपि अब मैं अत्यन्त ऐश्वर्यशाली हूँ किन्तु अपनी भौतिक समृद्धि के कारण मैं अन्धा हो गया हूँ । अतएव अब भी मैं आपको उचित रीति से सन्तुष्ट नहीं कर सकता हूँ । प्रिय भ्राता ! आप इतने उत्तम तथा मृदु स्वभाव के हैं कि आप दूसरों का पूर्ण आदर करते हैं, किन्तु अपने लिए आपको किसी आदर सत्कार की इच्छा नहीं है । अत्यधिक भौतिक ऐश्वर्य व्यक्ति को गर्वीला तथा मदान्ध बना देता है, अतएव जीवन में मंगल की इच्छा करने वाले व्यक्ति को अत्यधिक धनवान नहीं होना चाहिए, अपितु उसे अपने बन्धु-बान्धवों की देखभाल करनी चाहिए ।” जब वसुदेवजी नन्द महाराज से इस प्रकार कह रहे थे तब वे नन्द महाराज की मैत्री तथा अपने लिए राजा नन्द द्वारा सम्पादित लाभप्रद कार्यों के प्रति प्रगाढ़ भावना से प्रभावित थे । इस कारण उनके नयन अश्रुओं से भर गए तथा वे रो पड़े । अपने सखा वसुदेवजी को प्रसन्न करने के लिए और भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी के प्रेम के बन्धन में स्नेहपूर्वक बँधे होने के कारण, नन्द महाराज ने उनके साथ तीन मास व्यतीत किए । इस अवधि की समाप्ति पर समस्त यदुवंशियों ने जी-भर कर वृन्दावनवासियों को प्रसन्न करने का प्रयास किया । यदुवंशियों ने वस्त्राभूषण तथा अन्य अनेक बहुमूल्य वस्तुएँ उन्हें अर्पित कर के नन्द महाराज तथा उनके साथियों को सन्तुष्ट करने का प्रयास किया तथा वे सभी पूर्णरूपेण सन्तुष्ट हो गए । वसुदेवजी, उग्रसेन, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान बलराम, उद्धव जी तथा समस्त यदुवंशियों ने अपने-अपने व्यक्तिगत उपहार नन्द महाराज तथा उनके साथियों को भेंट किए । इन सब विदाई-उपहारों के ग्रहण करने के उपरान्त अपने सहयोगियों सहित नन्द महाराज ने व्रजभूमि वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया । किन्तु वृन्दावनवासियों के मन श्रीकृष्ण तथा बलरामजी के समीप ही बने रहे, अतएव उन सबने बेमन से वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया ।

जब वृष्णिवंशियों ने अपने समस्त मित्रों तथा अतिथियों को प्रस्थान करते हुए देखा तब वर्षा ऋतु समीप आ रही थी । अत: उन्होंने द्वारका लौटने का निश्चय किया । वे श्रीकृष्ण को सब कुछ मानते थे, अतएव वे पूर्णतया संतुष्ट थे । द्वारका लौटने पर उन्होंने अत्यन्त संतोषपूर्वक वसुदेवजी द्वारा सम्पादित यज्ञ, विभिन्न मित्रों तथा शुभचिन्तकों से अपनी भेंट आदि का वर्णन करना प्रारम्भ किया । उन्होंने विभिन्न तीर्थस्थानों की यात्रा के मध्य हुई अन्य अनेक घटनाओं का भी वर्णन किया ।

इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत “वसुदेवजी द्वारा सम्पादित यज्ञ” नामक चौरासीवें अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
 
 
 
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