इस घटना का श्रवण करने के पश्चात् राजा परीक्षित भगवान् श्रीकृष्ण एवं उनकी लीलाओं के विषय में श्रवण करने के लिए और अधिक जिज्ञासु हो गए । इस प्रकार उन्होंने श्री शुकदेव गोस्वामी से प्रश्न किया कि किस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेरणा पर उनके पितामह अर्जुन ने पितामही सुभद्रा का हरण किया था । राजा परीक्षित अपने पितामह द्वारा पितामही के हरण एवं उनके विवाह के विषय में सुनने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे । इस प्रकार श्रीशुकदेव गोस्वामी ने निम्नांकित प्रकार से उस कथा को प्रारम्भ किया, "एक बार, तुम्हारे पितामह, महान्-वीर अर्जुन अनेकों तीर्थ स्थानों की यात्रा कर रहे थे । जब वे इस प्रकार सर्वत्र यात्रा कर रहे थे, तब वे प्रभासक्षेत्र पहुँचे । प्रभासक्षेत्र में उन्होंने सुना कि बलरामजी सुभद्रा के विवाह की चर्चा कर रहे हैं । सुभद्रा अर्जुन के मामा वसुदेवजी की पुत्री थीं । यद्यपि सुभद्रा के पिता वसुदेवजी तथा भ्राता श्रीकृष्ण उनसे सहमत नहीं थे, तथापि बलरामजी सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करने के पक्ष में थे । किन्तु अर्जुन की इच्छा सुभद्रा से पाणिग्रहण करने की थी ।"
जैसे-जैसे उन्होंने सुभद्रा के तथा उसके सौन्दर्य के विषय में विचार किया वैसे-वैसे उससे विवाह करने का विचार उन्हें भी आकर्षित लगने लगा । अपने मन में एक योजना बना कर उन्होंने हाथ में त्रिदण्ड लिए हुए एक वैष्णव संन्यासी का वेश धारण किया । मायावादी संन्यासी एक दण्ड लेते हैं, जबकि वैष्णव संन्यासी तीन दण्ड लेते हैं । त्रिदण्ड यह संकेत करते हैं कि वैष्णव संन्यासी अपने तन, मन तथा वचन से श्रीभगवान् की सेवा करने का प्रण लेता है । त्रिदण्ड संन्यासी की प्रणाली का अस्तित्त्व दीर्घ काल से रहा है तथा वैष्णव संन्यासी को त्रिदण्डी अथवा कभी-कभी त्रिदण्डी-स्वामी या त्रिदण्डी-गोस्वामी कहा जाता है ।
साधारणतया संन्यासियों को धर्मोपदेश के लिए सम्पूर्ण देश में यात्रा करनी होती है, किन्तु भारतवर्ष में वर्षा ऋतु के चातुर्मास में सितम्बर से दिसम्बर तक वे यात्रा नहीं करते हैं । इस काल में वे एक स्थान पर आश्रय लेते हैं तथा बिना प्रवास किए वहीं रहते हैं । संन्यासी का यह प्रवास न करना चातुर्मास्य व्रत कहलाता है । जब संन्यासी चार मास के लिए एक स्थान पर निवास करता है, तब इस स्थान के स्थानीय निवासी आध्यात्मिक प्रगाति के लिए उस संन्यासी की उपस्थिति का लाभ उठाते हैं । त्रिदण्डी संन्यासी के वेश में अर्जुन द्वारका नगरी में चार मास तक रुके रहे तथा ऐसी योजना बनाते रहे जिससे कि वे सुभद्रा को पत्नी रूप में प्राप्त कर सकें । द्वारकावासी तथा भगवान् श्रीबलराम भी अर्जुन को संन्यासी के रूप में पहचान न पाए, अतएव वस्तुस्थिति को न समझते हुए उन सबने संन्यासी को सादर प्रणाम अर्पित किया ।
एक दिन भगवान् श्रीबलराम ने इस विशेष संन्यासी को अपने यहाँ भोजन के लिए निमंत्रित किया । बलरामजी ने अत्यन्त आदरपूर्वक उन्हें सर्वप्रकार का सुस्वादु भोजन अर्पित किया तथा वह कथित संन्यासी अत्यन्त आनन्दपूर्वक भोजन कर रहा था । बलरामजी के घर पर भोजन करते हुए अर्जुन केवल सुन्दरी सुभद्रा को ही निहार रहे थे । महान् वीरों तथा राजाओं को भी सुभद्रा अति मोहक लगती थी । उसके प्रति प्रेम के कारण अर्जुन के नेत्र चमक उठे, वह चमकते हुए नयनों से उसको निहारने लगे । अर्जुन ने निश्चय किया कि किसी-न-किसी प्रकार से वह सुभद्रा को पत्नी रूप में प्राप्त करेंगे और इस बलवती इच्छा के कारण उनका मन उद्विग्न हो उठा ।
महाराज परीक्षित के पितामह अर्जुन स्वयं भी अद्भुत सौन्दर्य के स्वामी थे तथा उनकी शारीरिक आकृति सुभद्रा को भी आकर्षक प्रतीत होती थी । सुभद्रा ने भी मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह केवल अर्जुन को ही पति रूप में स्वीकार करेगी । एक निश्छल कन्या के रूप में, अर्जुन को देखते हुए वह अत्यन्त सुखपूर्वक मुस्कुरा रही थी । इस प्रकार अर्जुन भी उसके प्रति अधिकाधिक आकर्षित हो गए । इस प्रकार सुभद्रा ने स्वयं को अर्जुन के प्रति समर्पित कर दिया तथा अर्जुन ने किसी भी प्रकार उससे विवाह करने का निश्चय किया । तदनन्तर अर्जुन दिन-रात चौबीसों घण्टे इसी विचार में मग्न रहने लगे कि वे किस प्रकार सुभद्रा को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त कर सकते हैं । उन्हें सुभद्रा को प्राप्त करने का रोग लग गया था, उन्हें क्षणमात्र की भी मानसिक शान्ति नहीं थी ।
एक बार मन्दिर में देवताओं के दर्शनार्थ सुभद्रा रथ पर बैठ कर महल से बाहर आई । अर्जुन ने इस अवसर का लाभ उठाया और वसुदेवजी तथा देवकीजी की अनुमति से सुभद्रा का हरण कर लिया । सुभद्रा के रथ पर सवार होने के उपरान्त अर्जुन युद्ध के लिए तैयार हो गए । उन्हें रोकने के लिए जो सैनिक भेजे गए थे, उनको अर्जुन ने अपना धनुष लेकर अपने बाणों से रोक दिया तथा वे सुभद्रा को ले गए । जब अर्जुन इस प्रकार सुभद्रा का हरण कर रहे थे तब सुभद्रा के परिवार वाले तथा सम्बन्धी विलाप करने लगे, किन्तु फिर भी अर्जुन उसको उसी प्रकार ले गए जैसे एक सिंह अपना भाग ले कर चला जाता है । जब भगवान् श्रीबलराम को यह ज्ञात हुआ कि वह तथाकथित संन्यासी अर्जुन था तथा उन्होंने ऐसी योजना केवल सुभद्रा-हरण के निमित्त बनाई थी तथा वह वास्तव में सुभद्रा को हर ले गया है, तब बलरामजी अत्यन्त क्रोधित हो गए । जिस प्रकार पूर्णमासी के दिन सागर की लहरें उद्विग्न हो जाती हैं उसी प्रकार बलरामजी भी अत्यन्त विचलित हो गए ।
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के पक्ष में थे, अतएव उन्होंने अन्य परिवारजनों के साथ बलराम जी के चरणों पर गिर कर तथा उनसे अर्जुन को क्षमा करने की याचना करके उन्होंने बलरामजी को शान्त करने का प्रयास किया । तत्पश्चात् बलरामजी को प्रतीति हो गई कि सुभद्रा को अर्जुन से प्रेम है और उन्हें यह जान कर हर्ष हुआ कि वह अर्जुन को पति रूप में प्राप्त करना चाहती थी । विवाद समाप्त हो गया तथा नवविवाहित दम्पत्ति को प्रसन्न करने के लिए भगवान् श्रीबलराम ने उन्हें दहेज भेजने का प्रबन्ध किया । इस दहेज में धन-सम्पत्ति, हाथियों, घोड़ों, रथों, दासों तथा दासियों का बाहुल्य था । महाराज परीक्षित श्रीकृष्ण के विषय में और अधिक श्रवण करने को उत्सुक थे, अतएव अर्जुन द्वारा सुभद्राहरण की कथा समाप्त करने के उपरान्त श्रीशुकदेव गोस्वामी ने निम्न प्रकार से एक अन्य कथा कहनी प्रारम्भ की ।
विदेह राज्य की राजधानी मिथिला नगरी में एक गृहस्थ ब्राह्मण रहता था । श्रुतदेव नामक यह ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्ण का एक महान् भक्त था ।
पूर्ण रूप से कृष्णभावनाभावित होने के कारण उसका मन पूर्णरूपेण शान्त था तथा वह समस्त भौतिक आकर्षणों से निर्लिप्त था । वह अत्यन्त विद्वान था तथा पूर्ण रूप से कृष्णभावनामृत में स्थित होने के अतिरिक्त उसकी और कोई इच्छा नहीं थी । यद्यपि वह गृहस्थ था, तथापि वह आजीविका अर्जित करने का कोई विशेष प्रयास नहीं करता था । बिना अधिक प्रयास किए उसे जो कुछ प्राप्त हो जाता, वह उसी में सन्तुष्ट था तथा किसी-न-किसी प्रकार वह इस रीति से जीवन-यापन कर रहा था । प्रतिदिन वह आवश्यक मात्रा में जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुएँ जुटाता तथा कभी भी आवश्यकता से अधिक लेने का प्रयास नहीं करता था । यही उसका सौभाग्य था । अपनी आवश्यकता से अधिक प्राप्त करने की ब्राह्मण की कोई इच्छा नहीं थी । इस प्रकार वह धर्मग्रन्थों में निर्देशित ब्राह्मण-जीवन के विधि-विधानों का शान्तिपूर्वक पालन कर रहा था ।
सौभाग्यवश मिथिला के राजा भी उस ब्राह्मण के ही समान एक अच्छे भक्त थे । इस प्रसिद्ध राजा का नाम बहुलाव था । एक अच्छे राजा के रूप में उनकी कीर्ति फैली हुई थी तथा इन्द्रियतृप्ति के लिए अपने राज्य का विस्तार करने की उसे तनिक भी आकांक्षा नहीं थी । इस प्रकार वह ब्राह्मण तथा राजा बहुलाश्व दोनों ही मिथिला में भगवान् श्रीकृष्ण के विशुद्ध भक्त थे । भगवान् श्रीकृष्ण इन दोनों भक्तों, राजा बहुलाश्व तथा ब्राह्मण श्रुतदेव, के प्रति अतिशय दयालु थे, अतएव उन्होंने एकदिन अपने सारथि दारुक को अपना रथ मिथिला ले चलने की आज्ञा दी । भगवान् श्रीकृष्ण के साथ महर्षि नारद, वामदेव, अत्रि, व्यासदेव, परशुराम, असित, अरुणि, बृहस्पति, कण्व, मैत्रैय, च्यवन तथा अन्य ऋषि-मुनिगण भी थे । भगवान् श्रीकृष्ण तथा ऋषिगण अनेक ग्रामों तथा नगरों से होते हुए जा रहे थे । प्रत्येक स्थल पर नागरिक अत्यन्त आदरपूर्वक उनका स्वागत करते थे तथा अनेक प्रकार की वस्तुएँ उनको अर्पित करके उनकी उपासना करते थे । जब नागरिक भगवान् के दर्शनार्थ आते थे तथा वे सब एक स्थान पर एकत्र हो जाते थे तब ऐसा प्रतीत होता था कि अपने उपग्रहों सहित सूर्य वहाँ उपस्थित है । उस यात्रा में भगवान् श्रीकृष्ण तथा ऋषिगण आनर्त, धन्व, कुरुजांगल, कंक, मत्स्य, चाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोशल तथा अर्ण नामक राज्यों से होकर गए । इस प्रकार इन स्थानों के समस्त नागरिकों, स्त्रियों तथा पुरुषों ने भगवान् श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन किए । इस प्रकार भगवान् के प्रति प्रेम व स्नेह से पूर्ण खुले हृदय से उन्होंने स्वर्गिक सुख का भोग किया । जब उन्होंने भगवान् के श्रीमुख के दर्शन किए तब उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि वे अपने नयनों से अमृतपान कर रहे हैं । जब उन्होंने श्रीकृष्ण के दर्शन किए तब उनके जीवन की समस्त अज्ञानपूर्ण धारणाएँ नष्ट हो गई । जब भगवान् विभिन्न देशों से होकर जाते तथा लोग उनसे भेंट करने आते थे तब श्रीभगवान् दृष्टिपात करने मात्र से समस्त सौभाग्यों की वर्षा कर देते तथा उन्हें सर्वप्रकार के अज्ञानों से मुक्त कर देते थे । किसी-किसी स्थान पर देवगण भी मानवों के साथ सम्मिलित हो जाते तथा उनके द्वारा किया गया भगवान् का यशगान समस्त दिशाओं को सर्व अमंगलों से रहित कर देता था । इस प्रकार शनै:शनै: भगवान् श्रीकृष्ण विदेह राज्य में पहुँचे ।
जब भगवान् के आगमन का समाचार नागरिकों को प्राप्त हुआ तब उन्हें असीम सुख का अनुभव हुआ । भगवान् को अर्पित करने के लिए अपने हाथों में उपहार लेकर नागरिक उनका स्वागत करने आए । भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन करते ही उनके हृदय दिव्य आनन्द से तत्काल इस प्रकार खिल गए जैसे कि उदित होते हुए सूर्य के दर्शन करके पद्मपुष्प प्रस्फुटित हो जाते हैं । पहले महर्षियों के नामों का उन्होंने केवल श्रवण किया था । अब भगवान् श्रीकृष्ण की दया से उन्हें महर्षियों तथा स्वयं भगवान् दोनों ही के दर्शनों का अवसर प्राप्त हुआ ।
राजा बहुलाश्व तथा ब्राह्मण श्रुतदेव, दोनों ही को भली-भाँति ज्ञात था कि भगवान् उन पर अनुग्रह करने के लिए ही वहाँ आए हैं, अतएव वे दोनों तत्काल ही भगवान् के चरणकमलों में गिर पड़े तथा उन्हें प्रणाम किया । हाथ जोड़ कर राजा तथा ब्राह्मण दोनों ने एकसाथ भगवान् श्रीकृष्ण एवं समस्त ऋषियों को अपने घर आने का निमंत्रण दिया । उन दोनों को ही प्रसन्न करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने दो रूपों में विस्तार किया तथा उनमें से प्रत्येक के गृह गए । फिर भी राजा अथवा ब्राह्मण कोई भी यह न समझ सका कि भगवान् दूसरे के घर भी गए थे । प्रत्येक ने यही सोचा कि भगवान् केवल उसी के घर आए हैं । यद्यपि ब्राह्मण तथा राजा यह सोच रहे थे कि भगवान् केवल उसके ही घर उपस्थित हैं, किन्तु भगवान् तथा उनके संगी दोनों ही घरों में उपस्थित थे । यह श्रीभगवान् का एक अन्य ऐश्वर्य है । धर्मग्रन्थों में इस ऐश्वर्य का वर्णन वैभव-प्रकाश के रूप में किया गया है । इसी के समान जब भगवान् श्रीकृष्ण ने सोलह हजार रानियों से विवाह किया था तब उन्होंने सोलह हजार रूपों में अपना विस्तार किया था और उनमें से प्रत्येक स्वयं उनके ही समान बलशाली था । इसी भाँति जब वृन्दावन में ब्रह्मा ने श्रीकृष्ण की गउएँ बछड़े तथा ग्वालबालों को चुरा लिया था तब श्रीकृष्ण ने अनेक नवीन गायों, बछड़ों तथा ग्वालबालों के रूप में अपना विस्तार किया था । विदेहराज बहुलाश्व अत्यन्त बुद्धिमान तथा एक आदर्श सज्जन था । श्रीभगवान् सहित इतने महापुरुषों को अपने घर में साक्षात् उपस्थित देख कर वह चकित हो गया । उसे भलीभाँति ज्ञात था कि बद्धात्माएँ तथा विशेषरूप से सांसारिक कर्मों में संलग्न व्यक्ति शतप्रतिशत शुद्ध नहीं हो सकते हैं, जबकि श्रीभगवान् तथा उनके शुद्ध भक्त ही सांसारिक दूषणों से परे होते हैं । अतएव जब उसने पाया कि श्रीभगवान् तथा सब महान् ऋषि-मुनि उसके घर पर पधारे हैं, तब वह आश्चर्य-चकित हो गया तथा वह उनकी अहैतुकी कृपा के लिए भगवान् श्रीकृष्ण को धन्यवाद देने लगा ।
राजा स्वयं को अत्यन्त अनुगृहीत अनुभव कर रहा था तथा वह अपनी सामथ्रय के अनुसार अतिथियों का सर्वोत्तम स्वागत करना चाहता था । उसने उत्तम आसन तथा गद्दियाँ मंगवाई तथा समस्त ऋषियों सहित भगवान् श्रीकृष्ण सुखपूर्वक बैठ गए । उस समय राजा बहुलाश्व का मन अत्यन्त चंचल हो रहा था, किन्तु इसका कारण कोई समस्या नहीं, अपितु भगवान् के प्रति प्रेम और भक्ति का दिव्य आनन्द था । उसका हृदय भगवान् तथा उनके संगियों के प्रति प्रेम व स्नेह से भर आया था तथा उसके नयनों में आनन्द-अश्रु आ गए थे । उसने अपने दिव्य अतिथियों के पादप्रक्षालन का प्रबन्ध किया और उनके चरणों का प्रक्षालन करने के उपरान्त उसने तथा उसके परिवार के सदस्यों ने उस चरणामृत को अपने सिर पर धारण किया । तदुपरान्त उसने अपने अतिथियों को उत्तम पुष्पमालाएँ चन्दन का लेप, धूप, नवीन परिधान, आभूषण, दीपक, गाएँ और बैल अर्पित किए । अपने राजसी पद के योग्य विधि से उसने इस प्रकार प्रत्येक अतिथि की आराधना की । जब सब भोजन करके तृप्त हो गए और सुखपूर्वक बैठे हुए थे, तब बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्ण के सम्मुख आया और उसने भगवान् के श्रीचरणों को अपनी गोद में रख लिया और हाथों से उनको सहलाते हुए मधुर स्वर में भगवान् के यश का गान करने लगा ।
"प्रिय भगवन् ! आप समस्त जीवों के परमात्मा हैं तथा सबके हृदय में निवास करने वाले साक्षी के रूप में आपको प्रत्येक जीव के कर्मों का ज्ञान है । जैसाकि हमारा कर्तव्य है हम सदैव आपके चरणकमलों का चिन्तन करते रहते हैं जिससे कि आपकी शाश्वत सेवा के मार्ग से भ्रष्ट न होते हुए हम सुरक्षित स्थिति में रह सकें । आपके चरणकमलों के प्रति हमारे निरन्तर चिन्तन के फलस्वरूप मुझ पर अपनी अहैतुकी कृपा करने के लिए आप स्वयं मेरे घर पधारे हैं । प्रिय भगवन् ! हमने सुना है कि अपने विभिन्न कथनों के द्वारा आप इस बात की पुष्टि करते हैं कि आपके शुद्ध भक्त आपको भगवान् श्रीबलराम अथवा अपनी सनातन सेविका श्रीदेवी से भी अधिक प्रिय हैं । आपके भक्त आपको अपने प्रथम पुत्र ब्रह्माजी से भी अधिक प्रिय हैं और मुझे विश्वास है कि अपने दिव्य कथन को सिद्ध करने के लिए ही आप अत्यन्त कृपापूर्वक मेरे घर पधारे हैं । मैं कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ कि कृष्णभावनामृत में संलग्न अपने भक्तों के प्रति आपकी अहैतुकी कृपा का ज्ञान होने पर भी किस प्रकार लोग नास्तिक तथा आसुरी प्रवृति में रह सकते हैं । वे आपके चरणारविन्दों को कैसे विस्मृत कर सकते हैं ?
"प्रिय भगवन् ! हमें यह ज्ञात है कि आप इतने कृपालु तथा उदार हैं कि कोई व्यक्ति कृष्णभावनामृत में संलग्न होने के लिए सर्वस्व त्याग देता है, तब आप इस सेवा के बदले में स्वयं अपने आपको दे देते हैं । भौतिक अस्तित्त्व के पापकर्मों में सड़ रही सभी बद्धात्माओं को सुधारने के अपने ध्येय को पूर्ण करने के लिए आप यदुवंश में प्रकट हुए हैं तथा आपका यह आविर्भाव पहले से ही समस्त जगत् में प्रसिद्ध हो चुका है । प्रिय भगवन् ! आप असीम दया, प्रेम व स्नेह के सागर हैं । आपका दिव्य रूप सच्चिदानन्द युक्त है । श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के रूप में आप सबका हृदय मोह लेते हैं । आपका ज्ञान असीम है तथा लोगों को यह शिक्षा देने के लिए कि भक्ति किस प्रकार करनी चाहिए, आपने अवतार नर-नारायण को भेजा है, जो कि बदरीनारायण में घोर तपस्या में संलग्न हैं । अतएव कृपापूर्वक अपने चरणकमलों में मेरा विनीत प्रणाम स्वीकार कीजिए । प्रिय भगवन् ! मैं आप तथा आपके संगी ऋषियों एवं ब्राह्मणों से अपने घर पर ठहरने की विनती करता हूँ, जिससे कि कम से कम कुछ दिनों के लिए राजा निमि का यह परिवार आपके चरणकमलों की रज से पावन हो सके ।" भगवान् श्रीकृष्ण अपने भक्त की प्रार्थना अस्वीकार नहीं कर सके । इस प्रकार मिथिला नगरी तथा इसके समस्त नागरिकों को पावन करने के लिए ऋषियों सहित भगवान् ने कुछ दिनों तक निवास किया ।
इसी मध्य, वह ब्राह्मण भी उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके साथी ऋषियों का अपने घर पर स्वागत करके दिव्य आनन्द में निमग्न हो गया । अपने अतिथियों को उत्तम आसन देकर, अपने वस्त्र उछाल-उछालकर वह ब्राह्मण नृत्य करने लगा । निर्धन होने के कारण श्रुतदेव अपने विशिष्ट अतिथियों श्रीकृष्ण तथा ऋषियों को केवल गद्दे, पीढ़े तथा चटाई आदि ही आसन के रूप में दे सका, किन्तु उसने अपनी सामथ्रय भर उनका स्वागत किया । उसने भगवान् तथा ऋषियों की अति प्रशंसा की और उसने तथा उसकी पत्नी ने अतिथि का पद-प्रक्षालन किया । इसके पश्चात् उसने चरणामृत लेकर उसे अपने परिवार के सभी सदस्यों के ऊपर छिड़का । यद्यपि ऐसा प्रतीत होता था कि वह ब्राह्मण अत्यन्त निर्धन है, किन्तु उस समय वह सर्वाधिक भाग्यवान् था । जब श्रुतदेव भगवान् श्रीकृष्ण एवं उनके संगी ऋषियों का स्वागत कर रहा था, तब दिव्य आनन्द में उसे आत्मविस्मरण हो गया । भगवान् तथा उनके साथियों का स्वागत करने के उपरान्त ब्राह्मण अपनी सामथ्रय के अनुसार फल, धूप, सुगन्धित मिट्टी, तुलसीदल, कुश तथा कमलपुष्प ले आया । ये सब पदार्थ महँगे नहीं थे तथा इन्हें सरलता से प्राप्त किया जा सकता था, किन्तु वे भक्ति तथा प्रेमपूर्वक अर्पित किए गए थे, अतएव भगवान् श्रीकृष्ण एवं उनके साथियों ने उन्हें अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया, क्योकि वह भोजन अत्यन्त भक्ति तथा प्रेमपूर्वक अर्पित किया गया था । जब भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके पार्षद इस प्रकार भोजन ग्रहण कर रहे थे, तब ब्राह्मण श्रुतदेव इस प्रकार विचार कर रहा था, "मैं गृहस्थ जीवन के एक गहरे अन्धे कूप में पतित हो गया हूँ और एक अत्यन्त अभागा व्यक्ति हूँ । फिर यह किस प्रकार सम्भव हुआ कि भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके पार्षद महर्षिगण मेरे घर पधारे जिनकी उपस्थिति-मात्र किसी स्थान को इतनी पावन कर देती है जितना कि तीर्थस्थान ?" जब ब्राह्मण इस प्रकार विचार कर रहा था, तो अतिथियों ने अपना भोजन समाप्त किया तथा वे अत्यन्त सुखपूर्वक बैठ गए । उसी समय ब्राह्मण श्रुतदेव, उसकी पत्नी तथा सन्तान एवं अन्य सम्बन्धी सम्मानित अतिथियों की सेवा करने के लिए वहाँ उपस्थित हुए । भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श करते हुए ब्राह्मण ने कहना प्रारम्भ किया, "प्रिय भगवन् ! आप पुरुषोत्तम हैं, श्रेष्ठतम व्यक्ति हैं । आप व्यक्त तथा अव्यक्त भौतिक सृष्टि से अतीत हैं । इस भौतिक जगत् तथा बद्धात्माओं की गतिविधियों का आपके पद से कोई सम्बन्ध नहीं है । हम यह समझ सकते हैं कि ऐसा नहीं है कि आपने आज ही मुझे अपने दर्शन दिये हैं । सृष्टि के प्रारम्भ से ही परमात्मा के रूप में आप समस्त जीवों के साथ हैं ।"
ब्राह्मण का यह कथन अत्यधिक शिक्षाप्रद है । यह एक तथ्य है कि अपने परमात्मा रूप में श्रीभगवान् ने महाविष्णु, गर्भादकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में इस भौतिक जगत् की सृष्टि की । भगवान् इस शरीर में बद्धात्मा के साथ-साथ अत्यन्त सौहार्दपूर्ण रूप से स्थित हैं । अतएव प्रारम्भ से ही भगवान् प्रत्येक जीव के साथ हैं, किन्तु जीवन की अपनी भ्रामक धारणा के कारण जीव यह तथ्य समझ नहीं पाता है । किन्तु जब उसकी यह भ्रामक धारणा कृष्णभावनामृत में परिवर्तित हो जाती है, तब वह तत्काल ही समझ सकता है कि बद्धात्माओं को किमों से किशतकनेकेल श्रीकृष्ण किस प्रकार उनकी सहायता कर रह हैं ।
श्रुतदेव ने आगे कहा, "प्रिय भगवन् ! आपने इस भौतिक जगत् में इस प्रकार प्रवेश किया है, जैसे कि सुप्तावस्था में बद्ध-जीव असत्य तथा अस्थायी जगत् का निर्माण कर लेता है । वह अनेक भ्रामक गतिविधियों में संलग्न हो जाता है, कभी वह राजा बन जाता है, कभी उसका वध होता है तथा कभी अज्ञात नगर की यात्रा करता है । ये सब अस्थायी व्यापार होते हैं । उसी भाँति भगवान् ! आप भी एक अस्थायी सृष्टि का निर्माण करने के हेतु सुप्तावस्था में इस भौतिक जगत् में प्रवेश करते हैं । आप अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के लिए ऐसा नहीं करते हैं, अपितु भोक्ता के रूप में जो आपकी नकल करना चाहते हैं उन बद्धात्माओं के लिए आप सृष्टि करते हैं । यद्यपि वे इच्छाएँ अस्थायी तथा भ्रामक हैं, तथापि उसकी इच्छाओं की पूर्ति के लिए, उसकी सहायता करने के लिए आप इस अस्थायी सृष्टि में प्रवेश करते हैं । इस प्रकार बद्ध-जीव आपके विशुद्ध भक्त के सम्पर्क में आता है तथा भक्ति अपना लेता है, तब वह शनै: शनै: भौतिक अस्तित्त्व के दूषणों से मुक्त हो जाता है । वह आपकी दिव्य लीलाओं का श्रवण भी प्रारम्भ करता है, आपकी दिव्य गतिविधियों का यशगान करता है, मन्दिर में आपके शाश्वत रूप की उपासना करता है, आपकी स्तुति करता है तथा आपकी दिव्य स्थिति को समझने के लिए चर्चा करता है । तब वह धीरे-धीरे भौतिक अस्तित्त्व के दूषणों से मुक्त हो जाता है । उसका हृदय समस्त भौतिक धूल से मुक्त हो कर स्वच्छ हो जाता है । इस प्रकार शनै: शनै: आप उस भक्त के हृदय में दृष्टिगोचर होने लगते हैं । यद्यपि आप सदैव ही बद्ध-जीवों के साथ रहते हैं, किन्तु आप तभी उसके समक्ष प्रकट होते हैं जब कि वह भक्ति के द्वारा शुद्ध हो जाता है । वैदिक निर्देशों अथवा परम्परागत आचरण के द्वारा जो लोग सकाम कर्म द्वारा भ्रमित हो गए हैं तथा जो भक्ति नहीं अपनाते हैं, वे देहात्मबुद्धि के बाह्य सुखों पर मुग्ध हो जाते हैं । आप ऐसे व्यक्तियों के सम्मुख प्रकट नहीं होते हैं, अपितु आप उनसे दूर-दूर रहते हैं । किन्तु आपकी भक्ति में संलग्न रह कर आपके पावन नाम का निरन्तर जप कर के, जिसने अपने हृदय को शुद्ध कर लिया है, वह अत्यन्त सरलतापूर्वक यह समझ लेता है कि आप उसके सनातन तथा सतत संगी हैं । "भगवन् ! यह कहा जाता है कि अपने भक्त के हृदय में आसीन रहकर आप उसका मार्गदर्शन करते हैं, जिससे कि वह अत्यन्त शीघ्रता से आपके धाम लौट सकता है । आपके द्वारा किया गया यह प्रत्यक्ष मार्गदर्शन भक्त के हृदय में आपके अस्तित्त्व को प्रकट करता है । केवल एक भक्त ही अपने हृदय के अन्दर आपके अस्तित्त्व को तत्काल समझ सकता है, जबकि ऐसा व्यक्ति, जो जीवन की केवल देहात्मबुद्धि रखता है तथा इन्द्रियतृप्ति में संलग्न है और सदैव ही योगमाया के आवरण से आवृत रहता है नहीं समझ पाता है कि आप उसके अति निकट हैं, उसके हृदय में आसीन हैं । जो आपका भक्त नहीं है, वह आपको केवल अन्तिम काल (मृत्यु) के रूप में समझ सकता है । दोनों में वैसा ही भेद है जैसाकि बिल्ली द्वारा अपने बच्चों को मुख में रख कर ले जाने तथा एक चूहे को अपने मुख में रख कर ले जाने में होता है । चूहे को बिल्ली के मुख में अपनी मृत्यु का अनुभव होता है, जबकि उसके बच्चे उसके मुख में मातृ-स्नेह का अनुभव करते हैं । उसी भाँति आप सबके लिए उपस्थित हैं, किन्तु जो भक्त नहीं हैं वे आपका अनुभव अन्तिम समय में क्रूर मृत्यु के रूप में करते हैं, जबकि एक भक्त के लिए आप परम शिक्षक तथा दार्शनिक हैं । अतएव नास्तिक व्यक्ति ईश्वर की उपस्थिति को मृत्यु के रूप में समझता है, किन्तु भक्त सदैव ही अपने हृदय में भगवान् की उपस्थिति को समझता है । वह (भक्त) आपका आदेश ग्रहण करता है तथा भौतिक जगत् के दूषणों से अप्रभावित रह कर उदार रूप से जीवन व्यतीत करता है ।
"भौतिक प्रकृति की गतिविधियों के आप परम नियन्ता तथा प्रबन्धक हैं । मानवों का नास्तिक वर्ग केवल भौतिक प्रकृति की गतिविधियों को ही देखता है । वह आदि परिप्रेक्ष्य के रूप में आपको ढूँढ नहीं पाता है । किन्तु एक भक्त भौतिक प्रकृति की प्रत्येक चेष्टा में आपका हाथ तत्काल देख सकता है । योगमाया का आवरण आपके भक्त के नेत्रों को नहीं ढँक सकता, किन्तु यह अभक्तों के नेत्रों को ढंक सकता है । अभक्त आपके प्रत्यक्ष दर्शन में असमर्थ रहता है, ठीक उसी प्रकार जैसे कि वह व्यक्ति, जिसकी दृष्टि बादलों के आवरण द्वारा अवरुद्ध हो जाती है, सूर्य को नहीं देख सकता, यद्यपि मेघों के ऊपर उड़ने वाले व्यक्ति सूर्य के चमकदार प्रकाश को यथारूप देख सकते हैं । प्रिय भगवन् ! मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ । हे स्वयं कांतिमान् भगवन् ! मैं आपका सनातन सेवक हूँ अतएव आप कृपापूर्वक मुझे आदेश दीजिए कि मैं आपकी क्या सेवा करूं । जब तक आप उसे दृष्टिगोचर नहीं होते हैं तब तक बद्धात्मा को त्रिदाह के रूप में भौतिक ताप के दुखों का अनुभव होता है, किन्तु कृष्णभावनामृत के विकास के द्वारा आप जैसे ही दृष्टिगोचर होते हैं वैसे ही भौतिक अस्तित्त्व के समस्त दुःख साथ-साथ विनष्ट हो जाते हैं ।"
भगवान् श्रीकृष्ण का अपने भक्तों की ओर स्वाभाविक रूप से स्नेहपूर्ण झुकाव होता है । जब उन्होंने श्रुतदेव की विशुद्ध भक्ति की स्तुति का श्रवण किया तब वे अत्यन्त प्रसन्न हो गए । उन्होंने तत्काल ही श्रुतदेव का हाथ पकड़ कर उसे इस प्रकार सम्बोधित किया, "प्रिय श्रुतदेव ! तुमसे भेंट करने के लिए स्वयं यहाँ आकर उन महर्षियों तथा सन्तों ने तुम पर अत्यन्त कृपा की है । तुम्हें इस अवसर को अपना एक महान् सौभाग्य समझना चाहिए । वे इतने दयालु हैं कि मेरे साथ यात्रा कर रहे हैं और वे जहाँ भी जाते हैं उसे अपने चरणों की धूल के स्पर्श से तत्काल ही शुद्ध व उदात्त बना देते हैं । लोगों को देव-मन्दिर में जाने की आदत होती है । वे पवित्र तीर्थस्थानों की यात्रा भी करते हैं तथा इन गतिविधियों से दीर्घकाल तक सम्बन्ध रहने पर, स्पर्श तथा उपासना के द्वारा धीरे-धीरे वे पावन होते हैं, किन्तु महर्षियों तथा सन्तों का प्रभाव इतना महान् है कि उनके दर्शन से व्यक्ति तत्काल ही पूर्ण रूप से पवित्र हो जाता है ।
"इससे भी बढ़कर तथ्य यह है कि तीर्थस्थानों अथवा विभिन्न देवताओं की उपासना की पवित्रीकरण की शक्ति भी अन्तत: सन्तों की कृपा से ही प्राप्त होती है । कोई भी तीर्थस्थल सन्तजनों की उपस्थिति के कारण ही पवित्र स्थान बन जाता है । प्रिय श्रुतदेव ! जब किसी व्यक्ति को ब्राह्मण का जन्म प्राप्त होता है, तब वह तत्काल ही मानवों में सर्वश्रेष्ठ बन जाता है । यदि ऐसा ब्राह्मण आत्मतुष्ट रहते हुए तपश्चर्या करता है, वेदों का अध्ययन करता है तथा ब्राह्मणों के कर्तव्यानुसार मेरी भक्ति-सेवा में संलग्न रहता है-दूसरे शब्दों में कहें तो, यदि एक ब्राह्मण वैष्णव बन जाता है, तब उसकी महान्ता कितनी अद्भुत होती है ! चतुर्भुज नारायण का अपना रूप भी मुझे उतना अधिक प्रिय नहीं है जितना कि एक ब्राह्मण वैष्णव । ब्राह्मण का अर्थ है, "वह व्यक्ति जिसने वैदिक ज्ञान में समुचित दक्षता प्राप्त की है ।" एक ब्राह्मण पूर्ण ज्ञान का अधिकार चिह्न है तथा मैं समस्त देवताओं का पूर्ण प्रकाश हूँ । मानवों का अल्पबुद्धि वर्ग मुझे सर्वोच्च ज्ञान के रूप में नहीं समझ पाता है । वह ब्राह्मण वैष्णवों के प्रभाव को भी नहीं समझ पाता है । अल्पबुद्धि मानव भौतिक प्रकृति के त्रिगुणों से प्रभावित होते हैं और इस प्रकार मेरी तथा मेरे शुद्ध भक्तों की आलोचना करने का साहस करते हैं । एक ब्राह्मण वैष्णव अथवा ब्राह्मणत्व के स्तर को प्राप्त एक भत्त अपने हृदय में मेरा साक्षात्कार कर सकता है । अतएव यह निश्चित रूप से निष्कर्ष निकलता है कि समस्त सृष्टि तथा इसके विभिन्न लक्षण भगवान् की विभिन्न शक्तियों के प्रभाव हैं । इस प्रकार समस्त भौतिक प्रकृति तथा सम्पूर्ण भौतिक शक्ति की उसे एक स्पष्ट धारणा होती है तथा इस प्रकार का भक्त प्रत्येक क्रिया में मेरे अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का दर्शन नहीं करता है ।
"प्रिय श्रुतदेव ! तुम इन सब महर्षियों, ब्राह्मणों तथा सन्तजनों को मेरे प्रामाणिक प्रतिनिधियों के रूप में स्वीकार कर सकते हो । श्रद्धापूर्वक उनकी उपासना करते हुए तुम मेरी और अधिक सपरिश्रम उपासना करोगे । मैं अपनी प्रत्यक्ष उपासना से अपने भक्तों की उपासना को अधिक श्रेष्ठ मानता हूँ । यदि कोई मेरे भक्तों की उपासना किए बिना प्रत्यक्ष रूप से मेरी उपासना करने का प्रयास करता है, तब मैं ऐसी उपासना को स्वीकार नहीं करता हूँ । यदि ऐसी उपासना अत्यन्त ऐश्वर्य-पूर्वक की गई हो तब भी मैं उसे स्वीकार नहीं करता हूँ ।"
इस प्रकार ब्राह्मण श्रुतदेव तथा मिथिला के राजा दोनों ने भगवान् के निर्देशन में श्रीकृष्ण तथा उनके पार्षदों की उपासना की । उन्होंने आध्यात्मिक महत्ता के समान स्तर पर महर्षियों तथा सन्त ब्राह्मणों की उपासना की । ब्राह्मण तथा राजा दोनों ने अन्ततः भगवद्-धाम गमन के परम लक्ष्य को प्राप्त किया । भक्त को भगवान् श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु का ज्ञान नहीं होता तथा श्रीकृष्ण अपने भक्त के प्रति अत्यन्त स्नेहमय हैं । भगवान् श्रीकृष्ण मिथिला में ब्राह्मण श्रुतदेव के घर एवं राजा बहुलाश्व के महल, दोनों ही स्थानों पर रहे । अपने दिव्य उपदेशों के द्वारा उन पर अनुग्रह करने के उपरान्त भगवान् श्रीकृष्ण अपनी राजधानी द्वारका लौट गए । इस घटना से हमें जो उपदेश प्राप्त होता है, वह यह है कि भगवान् ने राजा बहुलाश्व तथा ब्राह्मण श्रुतदेव को एकसमान माना, क्योंकि दोनों ही विशुद्ध भक्त थे । श्रीभगवान् के द्वारा पहचाने जाने के लिए यही वास्तविक योग्यता है । एक क्षत्रिय अथवा एक ब्राह्मण के परिवार में जन्म लेने पर झूठा गर्व करना आज के युग का प्रचलन बन गया है, अतएव हम पाते हैं कि जन्म के अतिरिक्त अन्य किसी योग्यता के न होते हुए लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य होने का दावा करते हैं, किन्तु जैसाकि धर्मग्रन्थों में कहा गया है, कलौ शूद्र-सम्भव-इस कलियुग में प्रत्येक व्यक्ति शूद्र है । इसका कारण संस्कार नामक शुद्धीकरण की प्रक्रियाओं का सम्पादन न होना है । इन संस्कारों का प्रारम्भ माता के गर्भाधान से होता है तथा ये संस्कार व्यक्ति की मृत्युपर्यन्त चलते रहते हैं, किसी भी व्यक्ति को जन्मजात अधिकार के आधार पर किसी विशेष वर्ण, विशेष रूप से उच्च वर्ण जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य वर्ण के सदस्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है । यदि गर्भाधानसंस्कार के द्वारा किसी का शुद्धीकरण नहीं किया जाता है, तो उसे तत्काल ही शूद्रों में वर्गीकृत किया जाता है, क्योंकि केवल शूद्र ही ऐसे हैं, जो यह शुद्धीकरण नहीं करते हैं ।
कृष्णभावनामृत की शुद्धीकरण की प्रक्रिया से रहित ऐन्द्रिय जीवन शूद्रों अथवा पशुओं की गर्भाधान प्रक्रिया-मात्र है । किन्तु कृष्णभावनामृत सर्वोच्च पूर्णता है, जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति एक वैष्णव के स्तर को प्राप्त कर सकता है । इसमें समस्त ब्राह्मणोचित योग्यताओं से युक्त होना भी सम्मिलित है । वैष्णवों को ऐसी शिक्षा दी जाती है, जिससे कि वे चारों प्रकार के पापकर्मों से मुक्त हो जाते हैं । ये चार पापकर्म हैं-अवैध स्त्री-पुरुष सम्पर्क, नशीले पदार्थों का सेवन, जुआ तथा मांस-भक्षण । इन प्रारम्भिक योग्यताओं के बिना कोई भी ब्राह्मणत्त्व के स्तर पर नहीं रह सकता और योग्य ब्राह्मण बने बिना व्यक्ति शुद्ध भक्त नहीं बन सकता है । |