विषयवस्तु को समझने में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय पर राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेव गोस्वामी से प्रश्न किया । उनका प्रश्न था, “साधारणत: वैदिक ज्ञान भौतिक जगत् के त्रिगुणों की विषय-वस्तु से सम्बन्धित होता है, अतएव यह दिव्य तत्त्व की विषयवस्तु तक कैसे पहुँच सकता है, जो कि भौतिक त्रिगुणों की पहुँच से परे है ? मन भौतिक है तथा शब्दों की ध्वनि एक भौतिक ध्वनि है, अतएव भौतिक ध्वनि के द्वारा मन के विचारों को व्यक्त करने वाला वैदिक ज्ञान दिव्य तत्त्व तक किस प्रकार पहुँच सकता है ? किसी विषयवस्तु के विवरण में इसके उद्गम-स्रोत, इसके गुणों तथा इसकी गतिविधियों का विवरण देना आवश्यक होता है । भौतिक मन से विचार करने तथा भौतिक शब्दों को ध्वनित करने से ही ऐसा विवरण सम्भव हो सकता है । यद्यपि ब्रह्म अथवा परम सत्य भौतिक गुणों से परे है, किन्तु हमारी वाक्शक्ति भौतिक गुणों से परे नहीं जाती । अतएव आपके शब्दों द्वारा ब्रह्म अथवा परम सत्य का विवरण किस प्रकार सम्भव है ? यह मेरी समझ में नहीं आता है कि भौतिक ध्वनि की ऐसी अभिव्यक्तियों से ब्रह्म को कैसे समझा जा सकता है ?" राजा परीक्षित के इस प्रकार प्रश्न करने का प्रयोजन श्रीशुकदेव गोस्वामी द्वारा इस तथ्य की पुष्टि कराना था कि वेद अन्तत: परम सत्य का किस प्रकार वर्णन करते हैं । वे यह पुष्टि कराना चाहते थे कि अन्तत: वेद परम सत्य को साकार बताते हैं अथवा निराकार ? परम सत्य को समझने की प्रगति तीन रूपों में होती है-निराकार ब्रह्म, प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित परमात्मा तथा अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण ।
वेद हमें कर्मों के तीन विभागों के विषय में बताते हैं । एक को कर्मकाण्ड कहा जाता है अथवा वैदिक निर्देशों के अन्तर्गत किया गया कर्म जो शनै:शनै: व्यक्ति को शुद्ध कर के उसे अपना वास्तविक पद समझने के योग्य बनाता है । दूसरा ज्ञानकाण्ड है, यह परम सत्य को मीमांसात्मक रीति से समझने की प्रकिया है । तीसरा उपासना-काण्ड अथवा श्रीभगवान् तथा कभी-कभी देवताओं की भी उपासना करना है । श्रीभगवान् के साथ देवताओं के सम्बन्ध को समझते हुए वेदों में देवताओं की उपासना का आदेश दिया गया है । श्रीभगवान् के अनेक अंश हैं, कुछ को स्वांश अथवा उनका व्यक्तिगत विस्तार कहा जाता है । उनके कुछ अंशों को विभिन्नांश कहा जाता है । स्वांश विस्तारों को विष्णु-तत्त्व कहा जाता है । जबकि विभिन्नांश को इन्द्रियतृप्ति के हेतु भौतिक जगत् की गतिविधियों में रखा जाता है, अतएव जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, जो व्यक्ति विभिन्न प्रकार की इन्द्रियतृप्ति में अत्यधिक लिप्त हो जाते हैं उनको नियमित करने के लिए कभी-कभी देवोपासना का परामर्श दिया जाता है । उदाहरण के लिए, जिन व्यक्तियों को मांस-भक्षण का व्यसन है उनके लिए वेदों का आदेश है कि काली-पूजा के उपरान्त तथा कर्मकाण्ड के नियमों के अन्तर्गत एक बकरे की (अन्य किसी पशु की नहीं) बलि देने पर उपासक को मांस खाने की अनुमति दी जा सकती है । इसके पीछे विचार यह है कि व्यक्ति को मांसभक्षण के लिए प्रोत्साहित न किया जाए, किन्तु जो व्यक्ति ऐसा करने का आग्रह करता है उसे कुछ विशेष सीमित स्थितियों में मांस खाने की अनुमति दी जाए । उपासना करने से व्यक्ति शनै:शनै: अप्रत्यक्ष रूप से श्रीभगवान् को भी स्वीकार करने लगता है । अप्रत्यक्ष स्वीकृति को भगवद्-गीता में “अविधि” कहा गया है । अविधि का अर्थ है अप्रामाणिक । देवताओं की उपासना प्रामाणिक नहीं है, अतएव निराकारवादी जन परम सत्य के निराकार रूप पर ध्यान एकाग्र करने पर बल देते हैं । राजा परीक्षित का प्रश्न था कि वैदिक ज्ञान का परम लक्ष्य क्या है-परम सत्य के निराकार रूप पर ध्यान एकाग्र करना अथवा साकार रूप पर ध्यान एकाग्र करना ? परमेश्वर के साकार अथवा निराकार दोनों ही रूप हमारी भौतिक धारणाओं से परे हैं । परम सत्य का मूर्तिमान् वेदों द्वारा स्तुति निराकार रूप, ब्रह्मज्योति, श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह की किरणों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह की ये किरणें ईश्वर की सृष्टि पर सर्वत्र विकीर्ण होती हैं । ज्योति का वह भाग, जो कि भौतिक मेघ से आच्छादित हो जाता है, तीनों भौतिक गुणों-सत्त्व, रजस तथा तमस-की क्रमबद्ध सृष्टि कहलाता है । भौतिक जगत् कहलाने वाले इस मेघाच्छादित भाग में रहने वाले व्यक्ति फिर विवेचनात्मक रीति से किस प्रकार परम सत्य को समझ सकते हैं ?
राजा परीक्षित के प्रश्न के उत्तर में श्रीशुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया कि एक शरीर से दूसरे में देहान्तरण में इन्द्रियतृप्ति तथा साथ ही साथ भौतिक स्थितियों से मुक्ति प्राप्त करने के प्रयोजन से, श्रीभगवान् ने मन, इन्द्रियों तथा प्राण-शक्ति की सृष्टि की है । दूसरे शब्दों में, इन्द्रियों, मन तथा प्राण-शक्ति का उपयोग इन्द्रियतृप्ति तथा एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण के हेतु किया जा सकता है अथवा इनका उपयोग मुक्ति प्राप्त करने के लिए भी किया जा सकता है । बद्धात्माओं को विधिविधानों के अन्तर्गत इन्द्रियतृप्ति का अवसर प्रदान करने के लिए ही वैदिक निर्देश है । इसके द्वारा ये निर्देश बद्धात्माओं को जीवन की उच्च स्थितियों तक प्रगाति करने का अवसर भी देते हैं । अन्तत: यदि चेतना निर्मल हो जाती है, तब व्यक्ति अपने मूल पद को प्राप्त कर लेता है तथा अपने घर, भगवान् के धाम, लौट जाता है ।
प्राण-शक्ति बुद्धिमय है । अतएव व्यक्ति को अपने मन तथा इन्द्रियों के ऊपर अपनी बुद्धि का उपयोग करना पड़ता है । जब बुद्धि के उचित उपयोग के द्वारा मन तथा इन्द्रियाँ निर्मल हो जाती हैं तब बद्धात्मा मुक्त हो जाती है । इसके विपरीत यदि मन तथा इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने के हेतु बुद्धि का उचित उपयोग नहीं किया जाता है, तब केवल इन्द्रियतृप्ति के लिए ही एक प्रकार के शरीर से दूसरे प्रकार के शरीर में बद्धात्मा के देहान्तर का क्रम चलता रहता है । श्रीशुकदेव गोस्वामी के उत्तर में एक और बात जो स्पष्ट रूप से कथित है, वह यह है कि मन, इन्द्रियों तथा वैयक्तिक प्राण-शक्ति की बुद्धि-रचना भगवान् ने की है । यह नहीं कहा गया है कि स्वयं जीवों की भी कभी रचना की गई थी । जिस प्रकार सूर्य के साथ-साथ उसकी किरणों के प्रकाशमान कणों का सदैव ही अस्तित्त्व रहता है, उसी भाँति श्रीभगवान् के अंशों के रूप में जीवों का अस्तित्त्व भी शाश्वत है । यद्यपि परमेश्वर के अंश के रूप में उनका शाश्वत अस्तित्त्व है तथापि बद्धात्माएँ कभी-कभी जीवन की भौतिक धारणा के आवरण में, अज्ञान के अंधकार में पड़ जाती हैं । समस्त वैदिक प्रक्रिया का उद्देश्य उस अंधकार (अज्ञान) की स्थिति का निराकरण करना ही है । अन्तत: जब बद्ध प्राणी का मन तथा इन्द्रियाँ पूर्ण रूप से निर्मल हो जाती हैं तब वह कृष्णभावानामृत नामक अपने मूल पद को प्राप्त कर लेता है और यही मोक्ष है ।
वेदान्त-सूत्र में, प्रथम सूत्र परम सत्य के विषय में प्रश्न करता है । अथातो ब्रह्म जिज्ञासा-परम सत्य की प्रकृति कैसी है ? अगला सूत्र उत्तर देता है कि परम सत्य की प्रकृति यह है कि वह प्रत्येक वस्तु का मूल है । जीवन की इस भौतिक दशा में भी हम जो कुछ भी अनुभव करते हैं वह परम सत्य से ही उत्पन्न होता है । परम सत्य ने मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि की रचना की है । इसका अर्थ यह है कि परम सत्य मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि से रहित नहीं है । अन्य शब्दों में कहें, तो वह निराकार नहीं है । "रचना की" शब्द से ही बोध होता है कि वह दिव्य बुद्धि का स्वामी है । उदाहरण के लिए जब पिता को सन्तान प्राप्त होती है, तब शिशु की इन्द्रियाँ इसलिए होती हैं, क्योंकि पिता के पास भी इन्द्रियाँ हैं । शिशु का हाथ पैर से युक्त जन्म होता है, क्योंकि पिता हाथ पैर से युक्त है । अतएव कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि मानव का निर्माण ईश्वर के स्वरूप के अनुसार ही किया गया है । अतएव परम सत्य दिव्य मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि से युक्त श्रीभगवान् है । जब भौतिक दूषण से रहित हो कर व्यक्ति का मन, बुद्धि तथा इन्द्रियाँ निर्मल हो जाती हैं, तब वह पुरुष के रूप में परम सत्य के आदि स्वरूप को समझ सकता है । बद्धात्मा की तमोगुण से रजोगुण तक, रजोगुण से सतोगुण तक शनै:शनै: प्रगति ही वैदिक प्रक्रिया है । वस्तुओं को यथारूप समझने के लिए सतोगुण में समुचित प्रकाश होता है । उदाहरणार्थ, भूमि से वृक्ष का विकास होता है तथा वृक्ष की लकड़ी से अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती है । उस प्रज्ज्वलन की प्रक्रिया में हमें सर्वप्रथम धुआँ दीखता है । तब द्वितीय दशा ताप की होती है । तत्पश्चात् अग्नि दृष्टिगोचर होती है । जब अग्नि वास्तव में जल जाती है, तब हम विभिन्न प्रयोजनों के लिए इसका उपयोग कर सकते हैं, अतएव अग्नि ही अन्तिम लक्ष्य है । उसी भाँति जीवन के स्थूल भौतिक स्तर पर तमोगुण की अत्यधिक प्रधानता है ।
बर्बर स्तर से सभ्य जीवन तक पहुँच जाने पर उसे रजोगुण में अवस्थित कहा जाता है । बर्बरावस्था अथवा तमोगुण की अवस्था में इन्द्रियों की तृप्ति एक सुसंस्कृत रीति से की जाती है । किन्तु जब व्यक्ति की उन्नति सतोगुण तक हो जाती तब वह समझ सकता है कि विकृत चेतना से आच्छादित होने के कारण मन तथा इन्द्रियाँ केवल भौतिक गतिविधियों में संलग्न रहती हैं । जब इस विकृत चेतना का रूपान्तर क्रमिक रूप से कृष्णभावनामृत में हो जाता है, तब मोक्ष का मार्ग खुल जाता है । अतएव ऐसा नहीं है कि व्यक्ति इन्द्रियों तथा मन के माध्यम से परम सत्य तक पहुँचने में असमर्थ है अपितु निष्कर्ष यह निकलता है कि प्रदूषण की स्थूल स्थिति में मन, इन्द्रियाँ तथा बुद्धि परम सत्य के महत्त्व को नहीं समझ सकती हैं, किन्तु निर्मल हो जाने पर मन, बुद्धि तथा इन्द्रियाँ यह समझ सकती हैं कि परम सत्य क्या है । मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों को निर्मल करने की इस प्रक्रिया को भक्ति अथवा कृष्णभावनामृत कहते हैं ।
भगवद्-गीता में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि वैदिक ज्ञान का प्रयोजन श्रीकृष्ण को समझना है तथा श्रीकृष्ण को भक्ति के द्वारा समझा जाता है । भक्ति का प्रारम्भ श्रीकृष्ण की शरण में आने की प्रक्रिया के साथ होना चाहिए । जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है व्यक्ति को सदैव श्रीकृष्ण का चिन्तन करना चाहिए, सदैव ही श्रीकृष्ण की प्रेमपूर्ण सेवा करनी चाहिए तथा सदैव ही श्रीकृष्ण की उपासना तथा उनको प्रणाम करना चाहिए । केवल इस प्रक्रिया के द्वारा ही व्यक्ति निस्सन्देह भगवान् के राज्य में प्रवेश कर सकता है ।
जब भक्ति की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति को सतोगुण में बोध हो जाता है, तब तमस तथा रजस के गुणों से वह मुक्त हो जाता है । आत्मन् शब्द ब्रह्मणत्व की योग्यता के उस स्तर की ओर इंगित करता है, जिस स्तर पर व्यक्ति को उपनिषदों के नाम से प्रसिद्ध वैदिक साहित्य के अध्ययन की अनुमति प्राप्त होती है । उपनिषदें विभिन्न प्रकार से परमेश्वर के दिव्य गुणों का वर्णन करती हैं । परम सत्य परमेश्वर को निर्गुण कहा जाता है । इसका यह अर्थ नहीं है कि उनमें कोई गुण नहीं है । यह कहने का अर्थ केवल यही है कि उनमें वे गुण हैं, जो बद्धजीवों के लिए अचिन्त्य हैं । सत्य, रज तथा तम के भौतिक गुणों के विपरीत परम सत्य के दिव्य गुणों को समझना ही उपनिषदों के अध्ययन का प्रयोजन है । वैदिक बोध का यही मार्ग है । सनकादिक चार कुमारों जैसे महर्षियों ने वैदिक ज्ञान के इन्हीं सिद्धान्तों का अनुसरण किया और शनै:शनै: वे निराकार बोध से परमेश्वर के साकार रूप की उपासना के स्तर तक पहुँच गए । अतएव हमें महाजनों का अनुसरण करने का परामर्श दिया जाता है । श्रीशुकदेव गोस्वामी भी महापुरुषों में से एक हैं तथा महाराज परीक्षित के प्रश्न का उनका उत्तर प्रामाणिक है । जो ऐसे महापुरुषों के पदचिह्नों का अनुसरण करता है, वह निश्चय ही मोक्ष के मार्ग पर अत्यन्त सरलतापूर्वक चलता है और अन्ततः अपने घर, भगवान् के धाम, वापस लौट जाता है । इस मानव जीवन के लिए पूर्णता प्राप्त करने का यही मार्ग है ।
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने परीक्षित महाराज से आगे कहा, "प्रिय राजन् ! मैं इस सम्बन्ध में एक उत्तम कथा सुनाता हूँ । यह कथा इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसका सम्बन्ध श्रीभगवान् नारायण से है । यह कथा नारायण ऋषि तथा देवर्षि नारद के मध्य एक वार्तालाप है । हिमालय पर्वतमालाओं में स्थित बदरिकाश्रम में आज भी नारायण ऋषि निवास करते हैं तथा उन्हें नारायण के अवतार के रूप में स्वीकार किया जाता है । एक बार जब देवताओं में संन्यासी तथा महान् भक्त देवर्षि नारद भिन्न-भिन्न लोकों की यात्रा कर रहे थे, तब उन्हें बदरिकाश्रम में नारायण ऋषि से स्वयं भेंट करने तथा उन्हें प्रणाम करने की इच्छा हुई । श्रीभगवान् के अवतार ये महर्षि नारायण सृष्टि के प्रारम्भ से ही कठोर तप तथा व्रत कर रहे थे । इनके इस प्रकार तपस्या करने का उद्देश्य भारतवर्ष के निवासियों को भगवान् के धाम लौटने तथा सर्वोच्च पूर्णता की स्थिति को प्राप्त करने की शिक्षा देना था । उनका व्रत तथा तप मानवों के लिए आदर्श आचरण है ।" बदरिकाश्रम हिमालय की पर्वत श्रृंखला के उत्तरी भाग में स्थित है तथा यह स्थल सदैव ही हिमाच्छादित रहता है । ग्रीष्म ऋतु में अभी भी धार्मिक प्रवृत्ति के भारतीय वहाँ की यात्रा करते हैं, क्योंकि इस ऋतु में हिमपात अधिक प्रबल नहीं होता है । एक बार भगवान् के अवतार नारायण ऋषि अनेक भक्तों के मध्य कल्पग्राम नामक ग्राम में बैठे हुए थे । उनके समीप बैठे हुए ऋषिगण साधारण ऋषि नहीं थे । उसी समय देवर्षि नारद भी वहाँ प्रकट हुए । नारायण ऋषि को प्रणाम करने के उपरान्त नारदजी ने नारायण ऋषि से वही प्रश्न किया, जो राजा परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से पूछा था । तब नारायण ऋषि ने भी अपने पूर्वगामियों के चरणचिह्नों का अनुसरण करते हुए उत्तर दिया । उन्होंने एक कथा सुनाई कि किस प्रकार जनलोक नामक लोक में इसी प्रश्न पर विचार-विमर्श हुआ था । जनलोक स्वर्गलोक के ग्रहों, जैसे चन्द्र, शुक्र आदि, से ऊपर है । इस लोक में महर्षि तथा सन्तजन निवास करते हैं तथा वे भी ब्रह्म तथा उनके वास्तविक स्वरूप को समझने सम्बन्धी इसी बिन्दु पर विचार-विमर्श कर रहे थे ।
महर्षि नारायण ने कथन प्रारम्भ किया, "प्रिय नारद ! मैं तुम्हें एक ऐसी कथा बताऊँगा, जो दीर्घकाल पूर्व घटित हुई थी । स्वर्गलोक के निवासियों की एक विशाल सभा थी जिसमें लगभग सभी महत्त्वपूर्ण ब्रह्मचारियों जैसे-सनत, सनन्दन, सनक तथा सनातन चारों कुमारों-ने भाग लिया । उन्होंने परम सत्य, ब्रह्म को समझने की विषयवस्तु पर विचार-विमर्श किया । तुम उस सभा में उपस्थित नहीं थे, क्योंकि तुम श्वेतद्वीप पर निवास करने वाले मेरे अंश अनिरुद्ध के दर्शनार्थ गए हुए थे । इस सभा में समस्त महर्षियों तथा ब्रह्मचारियों ने उस बिन्दु पर विशद विचार-विमर्श किया जिसके विषय में तुमने मुझसे प्रश्न किया है । यह विचार-विमर्श अत्यन्त रोचक था । यह विचार-विमर्श इतना सुन्दर था कि वेद भी इसमें उठाए हुए गूढ़ प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ थे ।"
नारायण ऋषि ने नारदजी को बताया कि उनके द्वारा उठाये गए प्रश्न पर ही जनलोक की सभा में विचार-विमर्श किया गया था । यही परम्परा के माध्यम से अथवा गुरु-परम्परा से समझने का मार्ग है । महाराज परीक्षित को श्रीशुकदेव गोस्वामी के समीप भेजा गया था । श्रीशुकदेव गोस्वामी ने यह विषय नारदजी से पूछा, जिन्होंने इस प्रश्न को नारायण ऋषि के समक्ष रखा था । नारायण ऋषि ने इस विषय को जनलोक में उच्चतर विशेषज्ञों के समक्ष प्रस्तुत किया, जहाँ महान् कुमारों—सनत, सनातन, सनक तथा सनन्दन के मध्य इस विषय पर विचार-विमर्श हुआ । ये चारों ब्रह्मचारी वेदों तथा शास्त्रों के माने हुए पण्डित हैं । उनके अनन्त ज्ञान के भंड़ार तथा उनके व्रत तथा तप का प्रदर्शन उनके उत्कृष्ट तथा आदर्श चरित्र के द्वारा होता है । वे व्यवहार में अत्यन्त सौजन्यपूर्ण हैं तथा उनके लिए मित्रों शुभैषियों तथा शत्रुओं में कोई अन्तर नहीं है । उदासीन पद पर स्थित होने के कारण कुमारों जैसी विभूतियाँ समस्त भौतिक विचारों से ऊपर होती हैं । वे भौतिक द्वैत के सम्बन्ध में सदैव ही तटस्थ रहते हैं । चारों भाइयों के मध्य हुए विचार-विमर्श में सनन्दन का चयन वक्ता के रूप में किया गया तथा अन्य भाई उनके वचनों का श्रवण करने हेतु श्रोता बन गए । सनन्दनजी ने कहा, "समस्त सृष्टि प्रलय के पश्चात् अपने बीज रूप में गर्भोंदकशायी विष्णु के विग्रह में प्रवेश कर जाती है । उस समय भगवान् अत्यन्त दीर्घकाल तक निद्रामग्न रहते हैं । जब पुनः सृष्टि की आवश्यकता होती है, तब मूर्तिमान् वेद भगवान् के चारों ओर एकत्र हो कर उनका यशगान करना प्रारम्भ करते हैं । वे भगवान् की अद्भुत दिव्य लीलाओं का वर्णन करते हैं । यह ठीक एक राजा के समान ही है । जब राजा प्रात:काल निद्रामग्न होता है, तब उसके द्वारा नियुक्त चारणगण उसके शयन-कक्ष में आकर उसके वीरतापूर्ण कार्यों का गान करना प्रारम्भ करते हैं । अपने यशस्वी कार्यों के विषय में श्रवण करते हुए राजा धीरे-धीरे जग जाता है ।
"वेदों के गायक अथवा मूर्तिमान वेद इस प्रकार गायन करते हैं-"हे अजेय ! आप श्रीभगवान् हैं । न कोई आपके बराबर है न आपसे महान् है । अपने कार्यों में आपसे अधिक यशस्वी और कोई नहीं हो सकता है । आप यशस्वी हों ! आप यशस्वी हों ! आपकी अपनी अलौकिक प्रकृति के द्वारा सभी षडैश्वर्य आपके अधिकार में हैं । आप समस्त बद्धात्माओं को माया के फन्दे से मुक्त कराने में सक्षम हैं । हे भगवन् ! हम आपसे बारम्बार प्रार्थना करते हैं कि आप कृपापूर्वक ऐसा ही कीजिए । आपके अंश होने के कारण समस्त जीव स्वाभाविक रूप से आनन्दमय, सनातन तथा ज्ञान में परिपूर्ण (सच्चिदानन्दमय) हैं, किन्तु अपने ही दोष के कारण वे परम भोक्ता बनने के प्रयास में आपका अनुकरण करने की चेष्टा करते हैं । इस प्रकार वे आपकी अवज्ञा करके अपराधी बन जाते हैं । उनके अपराधों के कारण आपकी भौतिक शक्ति ने उन्हें अपने नियंत्रण में ले लिया है । इस प्रकार उनके सत्, चित् तथा आनन्द के अलौकिक गुणों पर भौतिक त्रिगुणों के मेघों ने आवरण डाल दिया है । भौतिक त्रिगुणों से निर्मित यह सृष्टि बद्धात्माओं के लिए एक कारागृह की भाँति ही है । भौतिक बन्धन से मुक्त होने के लिए बद्धात्माएँ कठोर संघर्ष कर रही हैं । उनके जीवन की विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप उन्हें विभिन्न प्रकार के व्यापार सौंप दिए गए हैं । किन्तु समस्त व्यापार आपके ज्ञान पर ही आधारित हैं । आपकी दया द्वारा प्रेरित होने पर ही पुण्यकर्म किए जा सकते हैं । अतएव आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण किए बिना व्यक्ति भौतिक शक्ति के प्रभाव पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता है । वस्तुत: मूर्तिमान् वैदिक ज्ञान के रूप में हम सदैव ही आपकी सेवा में संलग्न रहते हैं । यह सेवा आपको समझने में बद्धात्माओं की सहायता करना है ।"
मूर्तिमान वेदों की यह स्तुति इस तथ्य की पुष्टि करती है कि वेद श्रीकृष्ण को समझने में बद्धात्माओं की सहायता के लिए ही हैं, यही वेदों का प्रयोजन है । समस्त श्रुतियों अथवा मूर्तिमान् वेदों ने बारम्बार “जय ! जय !" का गान करते हुए भगवान् की स्तुति की । इससे संकेत मिलता है कि भगवान् के यशों के लिए उनकी स्तुति की जाती है । उनके समस्त यशों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माया के बन्धन से बद्धात्माओं को छुड़ाने की उनकी अहैतुकी दया ही है ।
विभिन्न प्रकार की योनियों में असंख्य जीव हैं जिनमें से कुछ चल हैं तथा कुछ अचल । इन जीवों का यह बद्ध जीवन श्रीभगवान् से अपने सनातन सम्बन्ध के विस्मरण के कारण ही है । जब श्रीकृष्ण का अनुकरण करते हुए जीव भौतिक शक्ति पर प्रभुता प्राप्त करना चाहता है, तब तत्काल ही भौतिक शक्ति उसे बन्दी बना लेती है तथा उसे विभिन्न प्रकार की चौरासी लाख योनियों में से अपने इच्छानुसार चुनाव करने को कहती है । यद्यपि वह भौतिक अस्तित्त्व के त्रिगुणों को सहन कर रहा होता है, तथापि माया बद्धजीव झूठमूठ स्वयं को समस्त दृश्य जगत् का स्वामी समझने लगता है । जीवात्मा भौतिक त्रिगुणों का प्रतिनिधित्व करने वाले भौतिक गुणों के प्रभाव में इतना जकड़ा हुआ रहता है कि वह उस पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता है, जब तक परमात्मा का अनुग्रह उसे प्राप्त न हो । किन्तु भौतिक प्रकृति परमेश्वर के नियंत्रण के अधीन कार्य कर रही है, अतएव भगवान् इसके अधिकार क्षेत्र से परे हैं । भगवान् को छोड़ कर ब्रह्मासे लेकर एक चींटी तक समस्त जीव भौतिक प्रकृति के सम्पर्क से विजित हो जाते हैं । धन, बल, यश, सौन्दर्य, ज्ञान तथा वैराग्य के षडैश्वर्यों के पूर्ण रूप से स्वामी होने के कारण केवल भगवान् ही भौतिक प्रकृति के प्रभाव से परे हैं । जब तक जीव कृष्णभावनामृत में स्थित नहीं होता है, वह श्रीभगवान् के समीप नहीं जा सकता है । फिर भी अपनी सर्वज्ञता के द्वारा भगवान् परमात्मा के रूप में अन्दर से आदेश दे सकते हैं ।
भगवद्-गीता में भगवान् परामर्श देते हैं, "तुम जो कुछ भी करो मेरे निमित्त करो, तुम जो भी भोजन करो प्रथम उसे मुझे अर्पित करो, जो भी दान दो प्रथम मुझको दो, तुम जो भी व्रत या तप सम्पादित करना चाहो उसे मेरे निमित्त करो ।" इस प्रकार कर्मियों को धीरे-धीरे कृष्णभावनामृत का विकास करने का निर्देश दिया गया है । इसी के समान दार्शनिकों को श्रीकृष्ण ने ब्रह्म तथा माया के मध्य भेद करने के द्वारा शनै:शनै: अपने समीप आने का निर्देश दिया है । अन्तत: जब व्यक्ति का ज्ञान परिपक्व हो जाता है, तब वह श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर लेता है । जैसाकि श्रीकृष्ण ने भगवद्-गीता में कहा है, "जन्म-जन्मांतरों के पश्चात् बुद्धिमान दार्शनिक मेरी शरण में आ जाता है ।" योगियों को भी अपने अन्तर्मन में श्रीकृष्ण पर अपना ध्यान एकाग्र करने का निर्देश दिया गया है । इस प्रकार की कृष्णभावनामृत की निरन्तर प्रक्रिया के द्वारा योगी भौतिक शक्ति के पाश से मुक्त हो सकता है । किन्तु जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है, भक्तजन प्रारम्भ से ही प्रेम व स्नेहपूर्वक भक्ति-सेवा में संलग्न रहते हैं, अतएव भगवान् उनका ऐसा मार्गदर्शन करते हैं कि वे बिना कठिनाई के तथा मार्गच्युत हुए बिना भगवान् के समीप पहुँच सकें । जीव केवल भगवान् को कृपा द्वारा ही ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् की वस्तुस्थिति को समझ सकता है ।
मूर्तिमान वेदों के कथन से यह स्पष्ट प्रमाण प्राप्त होता है कि केवल श्रीकृष्ण को समझने के लिए ही वैदिक साहित्य को प्रस्तुत किया गया है । भगवद्गीता में इस तथ्य की पुष्टि की गई है कि समस्त वेदों के माध्यम से केवल श्रीकृष्ण को ही समझना है । श्रीकृष्ण सदैव ही भोक्ता हैं, चाहे भौतिक जगत् में हो अथवा आध्यात्मिक जगत् में, क्योंकि वे परम भोक्ता हैं तथा उनके लिए भौतिक जगत् तथा आध्यात्मिक जगत् के मध्य कोई भेद नहीं है । साधारण जीवों के लिए भौतिक जगत् एक प्रतिबन्ध अथवा अवरोध है, क्योंकि वे इसके नियंत्रण में हैं, किन्तु श्रीकृष्ण भौतिक जगत् के नियन्ता हैं, अतएव इसके प्रतिबन्धों अथवा अवरोधों से उनका कोई सरोकार नहीं होता है । अतएव उपनिषदों के विभिन्न भागों में वेद घोषणा करते हैं, “ब्रह्म सनातन है, वह समस्त ज्ञान तथा समस्त आनन्द से पूर्ण है, किन्तु एक श्रीभगवान् प्रत्येक जीव के हृदय में निवास करते हैं ।" अपनी सर्वव्यापकता के कारण वे न केवल जीवों के हृदय में प्रवेश करने में समर्थ हैं, अपितु वे अणुओं में भी प्रवेश करने में सक्षम हैं । परमात्मा के रूप में वे जीवों की समस्त गतिविधियों के नियन्ता हैं । वे उन सबमें निवास कर रहे हैं तथा उनके कार्यों के साक्षी हैं । वे जीवों को उनके इच्छानुसार कार्य करने देते हैं तथा उन्हें उनके विभिन्न कर्मों का फल देते हैं । वे सभी पदार्थों की प्राण-शक्ति हैं, तथापि वे त्रिगुणातीत हैं । वे सर्वज्ञ हैं, वे प्रत्येक वस्तु के निर्माण में कुशल हैं तथा अपने उच्चतर स्वाभाविक ज्ञान के कारण वे सबको अपने अधीन कर सकते हैं । इस भाँति वे प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं । कभी-कभी वे भूतल पर भी प्रकट होते हैं, किन्तु साथ ही साथ वे समस्त पदार्थों में उपस्थित हैं । अनेक रूपों में अपना विस्तार करने की इच्छा से उन्होंने भौतिक शक्ति पर दृष्टिनिक्षेप किया और इस प्रकार असंख्य जीवों का प्राकट्य हुआ । प्रत्येक वस्तु की रचना उनकी परा शक्ति के द्वारा हुई है तथा उनकी सृष्टि में प्रत्येक वस्तु पूर्णत: निर्दोष रूप से रचित प्रतीत होती है ।
अतएव जिन्हें इस भौतिक जगत् से मोक्ष प्राप्त करने की आकांक्षा है, उन्हें श्रीभगवान् की उपासना करनी चाहिए जो कि समस्त कारणों के परम कारण हैं । वे मिट्टी के पिंड़ के समान हैं, जिसमें से अनेक प्रकार के मिट्टी के पात्रों का निर्माण होता है । वे पात्र मिट्टी से बने होते हैं, वे मिट्टी में ही आधारित होते हैं तथा उनके नष्ट होने के पश्चात् उनके तत्त्व अन्ततः पुन: मिट्टी पर ही मिल जाते हैं । यद्यपि श्रीभगवान् समस्त प्रकार के प्राकट्यों के मूल कारण हैं तथापि निराकारवादी विशेष रूप से वेदों के कथन, सर्वं खल्विदं ब्रह्म-”प्रत्येक वस्तु ब्रह्म हैं" पर बल देते हैं । निराकारवादी ब्रह्म के परम कारण से निकलने वाले विभिन्न प्रकार के प्राकट्यों का विचार नहीं करते हैं । वे केवल इसी पर विचार करते हैं कि प्रत्येक वस्तु का उद्गम ब्रह्म से होता है तथा विनाश के बाद वह ब्रह्म में विलीन हो जाती है तथा प्राकट्य की मध्यवर्ती स्थिति भी ब्रह्म है । यद्यपि मायावादी विश्वास करते हैं कि अपने प्राकट्य से पूर्व क्रमबद्ध संसार ब्रह्म में था, सृष्टि के पश्चात् भी यह ब्रह्म में रहता है तथा विनाश के पश्चात् यह ब्रह्म में विलीन हो जाता है, किन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि ब्रह्म क्या है । ब्रह्म-सहिता में इस तथ्य का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है जीव, अन्तरिक्ष, काल तथा अग्नि, गगन, जल एवं मन जैसे भौतिक तत्त्वों से ही समग्र सृष्टि निर्मित है । यह सृष्टि भूर्भव: स्व: के नाम से विख्यात है तथा गोविन्द ने इसका विस्तार किया है । यह गोविन्द की शक्ति के बल पर पनपती है तथा प्रलय के उपरान्त गोविन्द में प्रवेश करके उनमें ही आश्रय पाती है । अतएव ब्रह्माजी कहते हैं-"मैं आदि भगवान् श्री गोविन्द की उपासना करता हूँ, वे ही समस्त कारणों के कारण हैं ।"
ब्रह्म शब्द से महानतम तथा सबके पालनकर्ता का संकेत प्राप्त होता है । निर्विशेषवादी आकाश की महान्ता की ओर आकृष्ट होते हैं, किन्तु अपनी अल्पज्ञता के कारण वे श्रीकृष्ण की महान्ता की ओर आकृष्ट नहीं होते हैं, किन्तु अपने व्यावहारिक जीवन में हम व्यक्ति-विशेष की महान्ता द्वारा तो आकर्षित होते हैं, किन्तु किसी पर्वत की महान्ता द्वारा नहीं । वस्तुत: ब्रम शब्द का प्रयोग केवल श्रीकृष्ण के लिए ही किया जा सकता है । अतएव भगवद्-गीता में अर्जुन ने स्वीकार किया है कि भगवान् श्रीकृष्ण परमब्रम हैं, अथवा वे प्रत्येक वस्तु के परम आश्रय हैं ।
अपने अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति, अनन्त बल, अनन्त प्रभाव, अनन्त सौन्दर्य तथा अनन्त त्याग के कारण श्रीकृष्ण परब्रम हैं । अतएव ब्रम शब्द केवल श्रीकृष्ण के लिए ही प्रयुक्त हो सकता है । अर्जुन इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि श्रीकृष्ण के दिव्य विग्रह से विकीर्ण होने वाली किरणों की ज्योति ही निराकार ब्रम है, अतएव श्रीकृष्ण ही परब्रम हैं । प्रत्येक वस्तु ब्रम पर आश्रित है, किन्तु ब्रह्मा स्वयम् श्रीकृष्ण पर आश्रित हैं । अतएव श्रीकृष्ण परब्रम हैं । भौतिक तत्त्वों को श्रीकृष्ण की हीन शक्तियाँ माना जाता है, क्योंकि उनकी परस्पर क्रिया के द्वारा सृष्टि का निर्माण होता है । यह सृष्टि श्रीकृष्ण पर आधारित है तथा प्रलय के उपरान्त यह श्रीकृष्ण की सूक्ष्म शक्ति के रूप में पुन: उनके शरीर में प्रवेश करती है । अतएव सृष्टि के विस्तार तथा प्रलय दोनों के कारण श्रीकृष्ण हैं । सर्वं खल्विदं ब्रम का अर्थ है कि प्रत्येक वस्तु श्रीकृष्ण है । यही महाभागवतों की दृष्टि है । वे प्रत्येक वस्तु का अवलोकन श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में करते हैं । निर्विशेषवादी तर्क करते हैं कि श्रीकृष्ण ने स्वयं को अनेक रूपों में परिवर्तित कर लिया है, अतएव प्रत्येक वस्तु श्रीकृष्ण है तथा प्रत्येक वस्तु की उपासना उनकी ही उपासना है । इस कुतर्क का उत्तर श्रीकृष्ण ने भगवद्-गीता में दिया है, "यद्यपि प्रत्येक वस्तु श्रीकृष्ण की शक्ति का ही एक परिवर्तित रूप है, किन्तु वे सर्वत्र उपस्थित नहीं हैं । वे एक साथ उपस्थित भी है तथा अनुपस्थित भी हैं ।" अपनी शक्ति के द्वारा वे प्रत्येक स्थान पर उपस्थित हैं, किन्तु शक्तिमान के रूप में वे सर्वत्र उपस्थित नहीं हैं । यह एक साथ होने वाली उपस्थिति तथा अनुपस्थिति हमारी वर्तमान इन्द्रियों के लिए अचिन्त्य है । किन्तु ईशोपनिषद् के प्रारम्भ में एक स्पष्ट व्याख्या की गई है, जिसमें कहा गया है कि परमेश्वर इतने पूर्ण हैं कि यद्यपि अनन्त शक्तियाँ तथा उनके रूपान्तर श्रीकृष्ण से निकल रहे हैं, तथापि श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में रंचमात्र भी परिवर्तन नहीं होता है । श्रीकृष्ण समस्त कारणों के कारण हैं, अतएव बुद्धिमान व्यक्तियों को उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण करनी चाहिए । श्रीकृष्ण प्रत्येक व्यक्ति को केवल अपनी ही शरण में आने का परामर्श देते हैं तथा वेदों की शिक्षा का मार्ग भी यही है, चूँकि समस्त कारणों के कारण श्रीकृष्ण हैं, अतएव विधि-विधानों का पालन करके सभी प्रकार के ऋषि-मुनि उनकी उपासना करते हैं । जब भी ध्यान करने की आवश्यकता होती है, तब महान् व्यक्ति अन्तर्मन में स्थित श्रीकृष्ण के दिव्य विग्रह पर ही ध्यान करते हैं । इस रीति से महान् व्यक्तियों का मन सदैव ही श्रीकृष्ण में संलग्न रहता है । उनके मन श्रीकृष्ण में लीन रहते हैं, अतएव स्वाभाविक ही है कि मुग्ध भक्त केवल श्रीकृष्ण के विषय में वार्तालाप करते हैं ।
श्रीकृष्ण के विषय में वार्तालाप अथवा गायन को कीर्तन कहा जाता है । भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तनीय, सदा हरि: को श्रेष्ठ बताया है । इसका अर्थ है श्रीकृष्ण के विषय में ही चिन्तन तथा वार्ता करनी चाहिए, अन्य किसी वस्तु के विषय में नहीं । इसे ही कृष्णभावनामृत कहते हैं । यह इतना उत्कृष्ट है कि जो कोई भी इस विधि को अपनाता है, वह मोक्ष की धारणा से भी कहीं अधिक आगे जीवन की सर्वोच्च पूर्णता को प्राप्त कर लेता है । अतएव भगवद्-गीता में श्रीकृष्ण सबको परामर्श देते हैं कि वे सदैव उनका चिन्तन करें, सदैव श्रीकृष्ण की भक्ति करें, उनकी उपासना करें तथा उन्हें ही प्रणाम करें । इस रीति से एक भक्त पूर्णतया श्रीकृष्णमय हो जाता है तथा सदैव ही कृष्णभावनामृत में स्थित होने के कारण वह अन्तत: श्रीकृष्ण के समीप लौट जाता है ।
यद्यपि वेदों ने श्रीकृष्ण के अंश रूप में विभिन्न देवों की उपासना को भी उपयुक्त कहा है, किन्तु यह समझ लेना चाहिए कि ये निर्देश अल्पबुद्धि वालों के लिए हैं । ये निर्देश उनके लिए हैं, जिन्हें अभी भी भौतिक इन्द्रिय-भोग का आकर्षण है । किन्तु जो व्यक्ति वास्तव में मानव जीवन के ध्येय को पूर्णत: परिपूर्ण करना चाहता है उसे केवल श्रीकृष्ण की उपासना करनी चाहिए । इससे यह विषय अत्यन्त सरल हो जाएगा तथा उसकी मानव योनि की पूर्णता उसे निश्चित रूप से प्राप्त होगी । यद्यपि आकाश, जल तथा पृथ्वी सभी इस भौतिक जगत् के अंश हैं, तथापि आकाश अथवा जल में खड़े होने की अपेक्षा जब व्यक्ति ठोस पृथ्वी पर खड़ा होता है, तब उसकी स्थिति अधिक सुरक्षित होती है । यद्यपि विभिन्न देवता श्रीकृष्ण के ही अंश हैं, तथापि एक बुद्धिमान व्यक्ति उनकी शरण ग्रहण नहीं करता है । वह कृष्णभावनामृत की ठोस धरती पर खड़ा होता है । कृष्णभावनामृत का आश्रय उसकी स्थिति को सुदृढ़ और सुरक्षित बना देता है ।
निर्विशेषवादी कभी-कभी यह उदाहरण देते हैं कि यदि कोई एक शिला अथवा लकड़ी के टुकड़े पर खड़ा होता है, तब निश्चय ही वह धरातल पर खड़ा होता है, क्योंकि शिला अथवा लकड़ी दोनों ही धरातल पर टिके हुए हैं । किन्तु इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि यदि व्यक्ति सीधे धरातल पर खड़ा हो तब वह धरती पर टिके हुए पत्थर अथवा लकड़ी पर खड़े होने की अपेक्षा अधिक सुक्षित होता है । दूसरे शब्दों में, परमात्मा अथवा निराकार ब्रम की शरण ग्रहण करना उतना सुरक्षित मार्ग नहीं है जितना कि कृष्णभावनामृत में प्रत्यक्ष रूप से श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करना । अतएव ज्ञानियों तथा योगियों की स्थिति उतनी सुरक्षित नहीं है जितनी कि कृष्णभक्तों की स्थिति है । अतएव भगवद्-गीता में श्रीकृष्ण ने परामर्श दिया है कि केवल पागल व्यक्ति ही देवताओं की उपासना का मार्ग अपनाता है । निराकार ब्रम का पक्ष लेने वाले व्यक्तियों के विषय में श्रीमद्भागवत का कहना है, "प्रिय भगवन् ! जो व्यक्ति बौद्धिक तर्कों के द्वारा स्वयं को युक्त मानते हैं, वे अभी तक प्रकृति के प्रदूषण से निर्मल नहीं हुए हैं, क्योंकि वे आपके चरणारविन्दों की शरण ग्रहण करने में असमर्थ हैं । यद्यपि निराकार ब्रम में स्थित होने की दिव्य स्थिति तक उनका उत्कर्ष हो जाता है, तथापि वे उस श्रेष्ठ स्थान से निश्चय ही स्खलित हो जाते हैं, क्योंकि उन्होंने आपके चरणकमलों की कामना करने की उपेक्षा की है ।" अतएव भगवान् श्रीकृष्ण परामर्श देते हैं कि देवोपासक लोग अत्यन्त बुद्धिमान नहीं हैं, क्योंकि वे केवल अस्थायी तथा नश्वर फल ही प्राप्त करते हैं । उनके प्रयास अल्पबुद्धि मानवों के प्रयास हैं । किन्तु भगवान् यह विश्वास दिलाते हैं कि उनके भक्तों को स्खलित होने का कोई भय नहीं है ।
मूर्तिमान वेदों ने आगे स्तुति की, "प्रिय भगवन् ! सभी दृष्टिकोणों से विचार करते हुए यदि किसी को अपने से श्रेष्ठ किसी की उपासना करनी हो, तब सद्व्यवहार के कारण व्यक्ति को आपके पदकमलों की उपासना को ही अपनाना चाहिए । व्यक्ति को आपके पदकमलों की ही उपासना करनी चाहिए, क्योंकि आप ही सृष्टि, पालन तथा प्रलय के परम नियन्ता हैं । आप भूर् भुवर् तथा स्वर् नामक तीनों लोकों के नियन्ता हैं । आप उच्चतर तथा निम्नतर चौदह लोकों तथा भौतिक त्रिगुणों के नियन्ता हैं । देवता तथा आध्यात्मिक ज्ञान में योग्यता प्राप्त व्यक्ति सदैव ही आपकी दिव्य लीलाओं के विषय में श्रवण तथा कीर्तन करने में संलग्न रहते हैं, क्योंकि आपकी लीलाओं के श्रवण व कीर्तन में पापों के एकत्र हुए फल को विफल करने की विशिष्ट शक्ति है । वास्तव में बुद्धिमान व्यक्ति आपकी अमृतमय गतिविधियों के सागर में डुबकी लगाते हैं तथा अत्यन्त धैर्यपूर्वक उनके विषय में श्रवण करते हैं । इस प्रकार वे तत्काल ही भौतिक त्रिगुणों के प्रदूषण से मुक्त हो जाते हैं । आध्यात्मिक जीवन की गति के लिए उन्हें कठोर व्रत एवं तप नहीं करना पड़ता है । आपकी दिव्य लीलाओं के विषय में यह श्रवण तथा कीर्तन आत्मज्ञान की सरलतम प्रक्रिया है । दिव्य सन्देश को केवल विनम्रता पूर्वक अपने कानों से श्रवण करने से व्यक्ति का मन निर्मल हो जाता है । इस प्रकार भक्त के हृदय में कृष्णभावनामृत दृढ़ हो जाता है ।
"महान् अधिकारी श्री भीष्मदेव ने भी यह मत दिया है कि श्रीभगवान् के विषय में श्रवण तथा जप की यह प्रक्रिया ही वेदों के समस्त शास्त्रोक्त सम्पादनों का सार है । प्रिय भगवन् ! श्रवण तथा कीर्तन की भक्तिपूर्ण क्रियाओं की इस प्रक्रिया के द्वारा ही जो भक्त अपना उत्कर्ष करने की इच्छा रखता है, वह शीघ्र ही भौतिक अस्तित्त्व के द्वैत के फन्दे से मुक्त हो जाता है । तप एवं त्याग की इस सरल प्रक्रिया के द्वारा भक्त के हृदय में स्थित परमात्मा अति प्रसन्न हो जाते हैं तथा वे भक्ति का मार्गदर्शन करते हैं जिससे कि वह अपने घर, भगवान् के धाम, लौट सके । भगवद्-गीता में कहा गया है कि अपनी समस्त गतिविधियों एवं इन्द्रियों को भगवान् की भक्ति में संलग्न करने वाला प्राणी पूर्ण रूप से शान्त हो जाता है, क्योंकि परमात्मा उससे सन्तुष्ट होते हैं । इस प्रकार भक्त समस्त प्रकार के द्वैतों, जैसे कि शीत, ताप, मान-अपमान, से ऊपर उठ जाता है । समस्त द्वैतों से मुक्त होने से वह दिव्य आनन्द का अनुभव करता है तथा भौतिक अस्तित्त्व के कारण होने वाली चिन्ताएँ तथा उद्विग्नताएँ उसे नहीं सताती हैं । भगवद्-गीता में पुष्टि की गई है कि सदैव कृष्णभावनामृत में लीन रहने वाले भक्त को अपने भरण-पोषण अथवा सुरक्षा के विषय में कोई चिन्ता नहीं होती है । सतत रूप से कृष्णभावनामृत में लीन रहने के कारण वह अन्तत: सर्वोच्च पूर्णता को प्राप्त करता है । जब तक वह भौतिक अस्तित्त्व में रहता है, वह अत्यन्त शान्ति और आनन्दपूर्वक रहता है । उसे कोई भी चिन्ता अथवा उद्विग्नता नहीं रहती है । इस देह को त्यागने के उपरान्त वह अपने घर, भगवान् के धाम, लौट जाता है । भगवान् ने भगवद्-गीता में पुष्टि की है, "मेरा श्रेष्ठ निवासस्थान एक दिव्य स्थान है, जहाँ जाकर कोई भी इस भौतिक जगत् को नहीं लौटता है । शाश्वत निवासस्थान में मेरी साकार भक्ति-सेवा में संलग्न रह कर जो कोई भी परम पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, वह मानव-जीवन की सर्वोच्च पूर्णता तक पहुँच जाता है । उसे पुन: इस दुःखपूर्ण भौतिक जगत् में लौटना नहीं पड़ता है ।" "प्रिय भगवन् ! यह अत्यावश्यक है कि जीवात्मा शास्त्रोक्त विधि से श्रवण, जप तथा आपके आदेशों का पालन करने के द्वारा सदैव भक्ति करते हुए कृष्णभावनामृत में संलग्न रहे । यदि कोई व्यक्ति भक्ति तथा कृष्णभावनामृत में संलग्न नहीं है, तो उसका जीवन व्यर्थ है । यदि कोई व्यक्ति श्वास लेता है, तब उसे साधारणतया जीवित माना जाता है । किन्तु कृष्णभावनामृतविहीन व्यक्ति की तुलना लुहार की दुकान में प्रयुक्त धौंकनी से की जा सकती है । विशाल धौंकनी श्वासोच्छास लेती हुई चमड़े की एक थैली होती है । यदि कोई व्यक्ति प्रेमानुगा-भक्ति तथा कृष्णभावनामृत को अंगीकार नहीं करता है, तो अस्थि व चमड़े के थैले में केवल जीवित रहने वाला वह व्यक्ति धौंकनी से किसी भी प्रकार श्रेष्ठ नहीं है । उसी भाँति अभक्तों के दीर्घ जीवन की तुलना वृक्ष के दीर्घकालीन अस्तित्त्व से की गई है । उनकी अतिलोलुप भक्षणक्षमता की तुलना श्वान व शूकर से की गई है । विषय-भोग में उनके आनन्द की तुलना शूकरों तथा बकरियों से की गई है ।
"विराट जगत् में महाविष्णु के रूप में श्रीभगवान् के इस प्रवेश के कारण ही यह सृष्टि सम्भव हुई है । महाविष्णु के दृष्टिनिक्षेप से समग्र भौतिक शक्ति आन्दोलित हो जाती है और तभी भौतिक त्रिगुणों की परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया का क्रम प्रारम्भ होता है । अतएव यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि हम जो भी भौतिक सुविधाएँ भोगने का प्रयास कर रहे हैं, वे केवल श्रीभगवान् की दया से ही प्राप्य हैं । “शरीर के छह भिन्न-भिन्न कोश हैं, जिन्हें अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय-कोश के नाम से जाना जाता है । जीवन के प्रारम्भ में प्रत्येक प्राणी भोजन के प्रति चेतन होता है । एक बालक अथवा पशु केवल उत्तम भोजन प्राप्त होने पर ही सन्तुष्ट होता है । चेतना का यह स्तर, जिसमें भरपेट भोजन करना ही ध्येय होता है, अन्नमय कहा जाता है । अन्न का अर्थ है भोजन । इसके उपरान्त मनुष्य में जीवित रहने की चेतना होती है । यदि बिना किसी आक्रमण अथवा संहार के व्यक्ति जीवनयापन कर सकता है, तब वह स्वयं को सुखी मानता है । इस स्थिति को प्राणमय अथवा अपने अस्तित्त्व की चेतना कहते हैं । भौतिक सभ्यता मूल रूप से अन्नमय, प्राणमय तथा मनोमय इन्हीं तीन अवस्थाओं पर स्थित है । सभ्य व्यक्तियों की प्रथम चिन्ता आर्थिक विकास की होती है, द्वितीय चिन्ता विनाश से सुरक्षा की होती है तथा इसके उपरान्त उसे मानसिक विचार की चिन्ता होती है, जिसमें वह दार्शनिकतापूर्वक जीवन के मूल्यों पर विचार करता है । “दार्शनिक जीवन की विकास प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति यदा-कदा बौद्धिक जीवन के स्तर पर पहुँच जाता है तथा वह यह समझ पाता है कि वह भौतिक शरीर नहीं, अपितु एक आध्यात्मिक आत्मा है । यदि ऐसा हो जाता है, तब आध्यात्मिक जीवन के विकास के द्वारा वह परमेश्वर अथवा परमात्मा को समझ लेता है । जब व्यक्ति भगवान् से अपना सम्बन्ध विकसित कर लेता है तथा भक्ति करता है, तब जीवन की उस स्थिति को कृष्णभावनामृत अथवा आनन्दमय स्थिति कहते हैं, आनन्दमयोअभ्यासात् परब्रम तथा ब्रम अथवा श्रीभगवान् तथा जीव दोनों ही स्वभाव से आनन्दमय हैं । जब तक जीव अन्नमय, प्राणमय, मनोमय तथा विज्ञानमय नामक चारों निम्नतर जीवन स्तरों में स्थित रहते हैं, उन्हें जीवन की भौतिक दशा में स्थित माना जाता है । किन्तु जैसे ही व्यक्ति आनन्दमय स्थिति को प्राप्त करता है, वह मुक्तात्मा बन जाता है । भगवद्-गीता में इस आनन्दमय स्थिति को ब्रमभूत स्थिति कहा गया है । वहाँ कहा गया है कि जीवन की ब्रमभूत स्थिति में कोई उद्वेग अथवा कोई तृष्णा नहीं होती है । इस स्थिति का प्रारम्भ तब होता है जब व्यक्ति समस्त जीवों के प्रति समभाव रखता है । इसके उपरान्त इसका विस्तार कृष्णभावनामृत की स्थिति में होता है, जिसमें व्यक्ति सदैव श्रीभगवान् की सेवा के लिए लालायित रहता है । भक्ति में प्रगति की यह लालसा भौतिक अस्तित्त्व में इन्द्रियतृप्ति की लालसा करने के समान नहीं है । दूसरे शब्दों में, आध्यात्मिक जीवन में भी लालसा रहती है, किन्तु यह निर्मल हो जाती है । जब हमारी इन्द्रियाँ निर्मल हो जाती हैं तब वे अन्नमय, प्राणमय, मनोमय तथा विज्ञानमय नामक समस्त भौतिक स्थितियों से मुक्त हो जाती हैं तथा वे कृष्णभावनामृत के आनन्दमय जीवन में अथवा सर्वोच्च स्थिति, आनन्दमय स्थिति, में अवस्थित हो जाती हैं । मायावादी दार्शनिक आनन्दमय को परब्रम में लीन होने की स्थिति कहते हैं । उनके लिए आनन्दमय का तात्पर्य है कि परमात्मा तथा जीवात्मा एक हो जाते हैं । किन्तु वास्तविक तथ्य यह है कि एकात्म हो जाने का अर्थ परम ब्रम में मिलना और अपना व्यक्तिगत अस्तित्त्व खो देना नहीं है । आध्यात्मिक अस्तित्त्व में लीन हो जाने का अर्थ है कि परमेश्वर के सच्चिदानन्द रूप के साथ जीव की एकात्मता की अनुभूति है । वास्तविक आनन्दमय स्थिति तभी प्राप्त होती है जब व्यक्ति भक्ति में संलग्न होता है । इस तथ्य की पुष्टि भगवद्-गीता में की गई है । मद्भक्तिं लभते पराम्-ब्रह्मभूत - आनन्दमय स्थिति तभी पूर्ण होती है जब परमात्मा तथा गौण जीवात्माओं के मध्य प्रेम का आदान-प्रदान होता है । जब तक व्यक्ति जीवन के इस आनन्दमय स्तर को प्राप्त नहीं कर लेता है, तब तक उसकी श्वास लुहार की धौंकनी के श्वास लेने के समान ही है । उसके जीवन का अन्तराल वृक्ष के जीवन-काल की भाँति है तथा वह निम्नतरीय पशुओं, जैसे ऊँटों, शूकरों तथा कुत्तों, से किसी भी भाँति श्रेष्ठ नहीं है । निस्सन्देह, शाश्वत जीवात्मा का कभी भी विनाश नहीं हो सकता है । किन्तु निम्न योनियों के प्राणी शोचनीय दशा में रहते हैं, जबकि परमेश्वर की भक्ति में संलग्न रहने वाला प्राणी जीवन की आनन्दमय अथवा सुखपूर्ण स्थिति में रहता है । ऊपर वर्णित विभिन्न स्थितियाँ सभी श्रीभगवान् के सम्बन्ध में हैं । यद्यपि समस्त परिस्थितियों में श्रीभगवान् तथा जीवात्माएँ दोनों ही रहते हैं, किन्तु भेद यह है कि श्रीभगवान् सदैव आनन्दमय स्थिति में ही रहते हैं । इसके विपरीत परमेश्वर के क्षुद्र अंश के रूप में अपनी क्षुद्र स्थिति के कारण गौण जीवात्माएँ जीवन के अन्य स्तरों में पतित हो जाने की ओर उन्मुख होती हैं । यद्यपि सभी स्तरों पर परमेश्वर तथा जीव दोनों का ही अस्तित्त्व होता है, श्रीभगवान् सदैव ही जीवन-विषयक हमारी धारणा से ऊपर होते हैं । हम चाहे बन्धन में रहें अथवा मुक्त हों, श्रीभगवान् हमारी जीवन सम्बन्धी धारणा से सदैव ही अतीत हैं । परमेश्वर की कृपा से ही समस्त सृष्टि सम्भव होती है, परमेश्वर की कृपा से ही इसका अस्तित्त्व रहता है तथा जब इसका विनाश होता है, तब यह परमेश्वर के अस्तित्त्व में ही विलीन हो जाती है । इस प्रकार परमेश्वर ही परम अस्तित्त्व हैं, वे समस्त कारणों के कारण हैं । अतएव यह निष्कर्ष निकलता है कि कृष्णभावनामृत के विकास के बिना व्यक्ति का जीवन समय का अपव्यय है । वे अति भौतिकतावादी व्यक्ति, जो आध्यात्मिक जगत् की स्थिति को नहीं समझ सकते हैं, श्रीकृष्ण के धाम को भी नहीं समझ सकते हैं । ऐसे व्यक्तियों के लिए महर्षियों ने योगिक प्रक्रिया प्रस्तुत की है । योगिक प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति उदर पर ध्यान के द्वारा क्रमश: ऊपर उठता जाता है । इस ध्यान को मूलाधार अथवा मणिपूर का ध्यान कहते हैं । मूलाधार तथा मणिपूर शब्द उदरस्थ आँतों के लिए प्रयुक्त होने वाले विशेष शब्द हैं । स्थूल रूप से भौतिकवादी व्यक्ति यह विचार करते हैं कि आर्थिक विकास सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उन्हें ऐसी धारणा है कि जीव केवल भोजन करने से ही जीवित रहता है । स्थूल रूप से भौतिकतावादी व्यक्ति यह भूल जाते हैं कि यद्यपि हम जितना चाहें खा सकते हैं, किन्तु यदि वह भोजन पचता नहीं है, तो यह अपच तथा अम्लता उत्पन करता है । अतएव भोजन अपने आपमें जीवन की प्राणशक्ति का कारण नहीं है । भोज्य पदार्थों के पचने के लिए हमें अन्य श्रेष्ठतर शक्ति का आश्रय लेना पड़ता है । इस श्रेष्ठतर शक्ति का उल्लेख भगवद्-गीता में वैश्वानर के रूप में किया गया है । भगवद्-गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि वे वैश्वानर के रूप में पाचनक्रिया की सहायता करते हैं । श्रीभगवान् सर्वव्यापी हैं, अतएव वैश्वानर के रूप में उनकी उपस्थिति असाधारण नहीं है ।
वास्तव में श्रीकृष्ण सर्वत्र उपस्थित हैं, अतएव वैष्णव अपने शरीर पर भगवान् विष्णु के मन्दिर चिह्नित करते हैं । सर्वप्रथम वे अपने उदर पर एक तिलक चिह्नित करते हैं । इसके उपरान्त वे अपने भाल पर तथा धीरे-धीरे अपने सिर के ऊपर ब्रमरन्ध्र पर तिलक लगाते हैं । एक वैष्णव के शरीर पर मुद्रित तिलक के तेरह मन्दिर निम्न प्रकार से प्रसिद्ध हैं-भाल पर भगवान् केशव का मन्दिर, उदर पर भगवान् नारायण का मन्दिर, वक्ष पर भगवान् माधव का मन्दिर, दोनों हँसली के मध्य कण्ठ पर भगवान् गोविन्द का मन्दिर, कटि के दाहिने भाग पर भगवान् विष्णु का मन्दिर दाहिनी भुजा पर भगवान् मधुसूदन का मन्दिर तथा हँसुली की हड्ड़ी के दाहिने भाग (स्कन्ध) पर भगवान् त्रिविक्रम का मन्दिर है । इसी के समान कटि के बाई ओर भगवान् वामन देव का मन्दिर है, बाईं भुजा पर भगवान् श्रीधर का मन्दिर है, हँसली के बाईं ओर (स्कन्ध पर) भगवान् हृषीकेष का मन्दिर, ऊपरी पृष्ठ-भाग पर भगवान् पद्मनाभ का मन्दिर, निम्न पृष्ठ-भाग पर भगवान् दामोदर का मन्दिर, सिर के ऊपर वासुदेव का मन्दिर है । यह शरीर के विभिन्न अंगों में भगवान् की स्थिति पर ध्यान की प्रक्रिया है । किन्तु उन लोगों के लिए, जो वैष्णव नहीं हैं, महर्षियों ने जीवन की शारीरिक धारणाओं पर ध्यान को प्रस्तावित किया है, जैसे-आँतों पर ध्यान, हृदय कण्ठ, भाल पर तथा तदुपरात शीश के ऊपरी भाग पर ध्यान महर्षि अरुण की गुरुपरम्परा में कुछ ऋषि हृदय में ध्यान करते हैं, क्योंकि जीवात्मा के साथ-साथ परमात्मा भी हृदय में निवास करते हैं । भगवद्-गीता के पन्द्रहवें अध्याय में इस तथ्य की पुष्टि की गई है, जहाँ पर भगवान् कहते हैं, "मैं सबके हृदय में स्थित हूँ ।"
वैष्णव के लिए भगवान् की सेवा हेतु शरीर-रक्षा भक्ति का अंग है, किन्तु वे व्यक्ति जो स्थूल रूप में भौतिकतावादी हैं शरीर की योगिक प्रक्रिया के द्वारा शरीर की ही उपासना करते हैं । ये शरीर के अंग मणिपूर, दहर तथा हृदय हैं तथा धीरे-धीरे वे शीश के ऊपर ब्रमरन्ध्र तक उठते जाते हैं । योग की प्रणाली के अभ्यास में पूर्णता प्राप्त करके प्रथम श्रेणी का योगी अन्तत: ब्रमरन्ध्र से निकल जाता है तथा भौतिक अथवा आध्यात्मिक जगतों के किसी एक लोक को चला जाता है । एक योगी किस प्रकार एक लोक से दूसरे लोक को अपना स्थानान्तरण कर सकता है, इसका अत्यन्त स्पष्टता से वर्णन श्रीमद्-भागवत के दूसरे अध्याय में किया गया है ।
इस सम्बन्ध में शुकदेव गोस्वामी नवारम्भ करने वालों को भगवान् के विशाल विश्व रूप, विराट पुरुष, की उपासना करने का परामर्श देते हैं । वे व्यक्ति, जो यह विश्वास नहीं कर सकते हैं कि समान सफलता के साथ भगवान् की उपासना श्रीमूर्ति अथवा अर्चा-रूप में की जा सकती है अथवा जो इस रूप पर मन एकाग्र नहीं कर सकते हैं, भगवान् के विश्वरूप की उपासना कर सकते हैं । ब्रह्माण्ड का मध्यवर्ती भाग भगवान् के विश्वरूप का पाँव माना जाता है । ब्रह्माण्ड का मध्यवर्ती भाग भगवान् की नाभि अथवा उदर माना जाता है । उच्चवर्ती ग्रह मण्डल, जैसे जनलोक तथा महर्लोक भगवान् के हृदय हैं । सबसे ऊपर स्थित लोक, ब्रमलोक भगवान् का मस्तक माना जाता है । उपासक की स्थिति के अनुसार ऋषियों ने विभिन्न प्रक्रियाओं का प्रस्ताव किया है, किन्तु समस्त ध्यान तथा योगिक प्रक्रियाओं का चरम लक्ष्य अपने घर, भगवान् के धाम, लौटना ही है । जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है, जो कोई भी श्रीकृष्ण के धाम सर्वोच्च लोक पर पहुँच जाता है, अथवा वैकुण्ठ लोक ही पहुँच जाता है, उसे पुनः कभी इस दुखी भौतिक जीवन में नहीं आना पड़ता है ।
अतएव वेदों का प्रस्ताव है कि व्यक्ति को अपने सभी प्रयासों का लक्ष्य भगवान् श्री विष्णु के चरणारिवन्दो को बनाना चाहिए । तद् विष्णोः परमं पदं—विष्णु लोक समस्त भौतिक लोकों से ऊपर स्थित हैं । ये वैकुण्ठ लोक सनातन-धाम के नाम से प्रसिद्ध हैं तथा शाश्वत हैं । इस भौतिक जगत् का नाश होने पर भी उनका कभी भी विनाश नहीं होता है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि कोई मानव परमेश्वर की उपासना करके अपने जीवन का ध्येय पूर्ण नहीं करता है तथा भगवान् के धाम को वापस नहीं लौटता है, तब यह समझना चाहिए कि वह मानव-जीवन के मुख्य प्रयोजन को सिद्ध करने में निष्फल रहा है ।
मूर्तिमान् वेदों द्वारा की गई भगवान् की अगली स्तुति का सम्बन्ध भगवान् द्वारा विभिन्न जीव योनियों में प्रवेश करने से है । भगवद्-गीता के चौदहवें अध्याय में कहा गया है कि जीवों के प्रत्येक रूप तथा योनि में परमेश्वर का आध्यात्मिक अंश उपस्थित है । भगवान् ने गीता में स्वयं कहा है कि वे जीवों के समस्त प्रकारों तथा योनियों को बीज प्रदान करने वाले पिता हैं, अतएव उन सबको भगवान् की सन्तान मानना चाहिए । प्रत्येक प्राणी के हृदय में परमात्मा के रूप में परमेश्वर का प्रवेश कभी-कभी निराकारवादियों को भ्रमित कर देता है, क्योंकि उनके विचार में जीव तथा परमेश्वर समान हैं । वे विचार करते हैं कि जीवात्मा के साथ-साथ परमेश्वर भी विभिन्न शरीरों में प्रवेश करते हैं, अत: भगवान् तथा जीवात्माओं में कोई भेद नहीं है । वे चुनौती देते हैं, "जीवात्माएँ परमात्मा की उपासना क्यों करें ?" उनके अनुसार परमात्मा तथा जीवात्मा के मध्य एक भेद है तथा इसे भगवद्-गीता के पन्द्रहवें अध्याय में स्पष्ट किया गया है । इसमें भगवान् कहते हैं कि यद्यपि वे जीवात्मा के साथ एक ही शरीर में निवास करते हैं, किन्तु वे श्रेष्ठतर हैं । वे अन्दर से जीवात्मा को आदेश अथवा बुद्धि दे रहे हैं । भगवद्-गीता में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भगवान् जीवात्मा को बुद्धि देते हैं तथा स्मृति एवं विस्मृति दोनों ही परमात्मा के प्रभाव के कारण होती हैं । परमात्मा की अनुज्ञा से स्वतंत्र रह कर कोई भी व्यक्ति कार्य नहीं कर सकता है । अतएव भगवान् के स्मरण दिलाने पर जीवात्मा अपने विगत कर्मों के अनुसार कार्य करती है । विस्मृति तो जीवात्मा का स्वभाव है, किन्तु हृदय में भगवान् की उपस्थिति उसे यह स्मरण दिलाती है कि वह अपने पूर्वजन्म में क्या करना चाहती थी । जीवात्मा की बुद्धि उसी प्रकार प्रदर्शित होती है, जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि । यद्यपि अग्नि सदैव ही अग्नि है, तथापि यह काष्ठ के टुकड़े के आकार के अनुसार बड़े अथवा छोटे आकार में प्रदर्शित होती है । उसी भाँति यद्यपि गुण में जीवात्मा परमेश्वर के ही समान है, किन्तु वह अपने वर्तमान शरीर की सीमाओं के अनुसार अपना प्रदर्शन करती है ।
परमेश्वर अथवा परमात्मा को एक-रस कहा गया है । एक का अर्थ है एक तथा रस का अर्थ है माधुर्य । परमेश्वर की दिव्य स्थिति सत्, चित् तथा आनन्दमय है । जब परमेश्वर प्रत्येक प्राणी के शरीर में जीवात्मा के साक्षी तथा परामर्शदाता बन जाते हैं तब उससे उनकी एक-रस की स्थिति में रंचमात्र भी परिवर्तन नहीं होता है ।
ब्रह्माजी से प्रारम्भ कर के चींटी तक जीवात्मा अपने वर्तमान शरीर के अनुसार अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन करती है । देवता भी मानव शरीरों अथवा पशु शरीरों में निवास करने वाली जीवात्मा के समान वर्ग के हैं । अतएव बुद्धिमान व्यक्ति विभिन्न देवताओं की उपासना नहीं करते हैं, जो कि स्वयं बद्ध शरीरों में प्रकाशित श्रीकृष्ण के अति सूक्ष्म प्रतिनिधि-मात्र हैं । अपने शरीर के आकार तथा प्रकृति के अनुपात में ही जीवात्मा अपने बल तथा क्षमताओं (शक्तियों) का प्रदर्शन कर सकती है । किन्तु श्रीभगवान् किसी भी रूप अथवा आकार में, बिना किसी परिवर्तन के अपनी पूर्ण शक्तियों का प्रदर्शन कर सकते हैं । मायावादियों का यह विचार कि भगवान् तथा जीवात्मा एक हैं, स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि जीवात्मा को विभिन्न प्रकार के शरीरों में निवास करने के अनुसार अपने बल तथा शक्तियों को विकसित करना पड़ता है । जीवात्मा एक शिशु के शरीर में एक वयस्क पुरुष के बल तथा शक्ति का प्रदर्शन नहीं कर सकती है । किन्तु अपनी माता की गोद में शिशु रूप में पड़े होने पर भी, भगवान् श्रीकृष्ण अपने पर आक्रमण करने वाली पूतना तथा अन्य असुरों का वध करके अपने पूर्ण बल तथा शक्ति का प्रदर्शन कर सके थे । अतएव श्रीभगवान् की आध्यात्मिक शक्ति को एक–रस अथवा परिवर्तनहीन कहा गया है । अतएव श्रीभगवान् ही एकमात्र आराध्य हैं तथा भौतिक प्रकृति की शक्ति से अदूषित लोगों को यह तथ्य पूर्ण रूप से ज्ञात है । दूसरे शब्दों में, केवल मुक्तात्माएँ ही श्रीभगवान् की उपासना कर सकती हैं । यह विचार करके कि भगवान् तथा देवता एक ही स्तर के हैं, अल्पबुद्धि मायावादी देवताओं की उपासना को अपना लेते हैं ।
मूर्तिमान् वेदों ने भगवान् को प्रणाम करते हुए आगे स्तुति की, "प्रिय भगवन् ! जन्म-जन्मांतरों के उपरान्त जो लोग वास्तव में बुद्धिमान हो जाते हैं, वे पूर्ण ज्ञान में आपके पादपद्यों की उपासना को अपना लेते हैं ।" इस तथ्य की पुष्टि भगवद्-गीता में भी की गई है, जहाँ भगवान् कहते हैं कि जन्म-जन्मांतरों के पश्चात् महात्मा भलीभाँति यह जानते हुए कि वासुदेव श्रीकृष्ण समस्त कारणों के कारण हैं, भगवान् की शरण ग्रहण करते हैं । वेदों में आगे कहा, "जैसे कि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है, हमारा मन, इन्द्रियाँ तथा बुद्धि हमें भगवान् ने प्रदान की हैं । अतएव जब ये उपकरण वास्तव में निर्मल हो जाते हैं, तब उन सबको भगवान् की भक्ति में संलग्न करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रहता है । विभिन्न योनियों में जीवात्मा का बन्धन, उसके द्वारा मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों का भौतिक गतिविधियों में दुरुपयोग करने के कारण होता है । जीव के कर्मों के फलस्वरूप उसे विभिन्न प्रकार के शरीर प्राप्त होते हैं तथा जीव की इच्छा के अनुसार भौतिक प्रवृत्ति इन शरीरों की रचना करती है । जीव एक विशेष प्रकार के शरीर का अधिकारी होता है तथा उसकी इच्छा करता है, अतएव परमेश्वर के आदेश के अन्तर्गत भौतिक प्रकृति उसे वैसा ही शरीर प्रदान करती है ।
श्रीमद्-भागवत के तृतीय स्कन्ध में यह स्पष्ट किया गया है कि उच्चाधिकारी के नियंत्रण के अधीन जीव को किसी नर के वीर्य में स्थापित किया जाता है । तत्पश्चात् जीवयुक्त वह वीर्य किसी मादा विशेष के गर्भ में स्थापित किया जाता है, जिससे कि वह एक विशिष्ट प्रकार के शरीर का विकास कर सके । जीव अपनी रुचि के अनुसार एक विशिष्ट विधि से अपनी इन्द्रियों, बुद्धि तथा मन आदि का उपयोग करता है और इस प्रकार वह एक विशेष प्रकार के शरीर का विकास करता है, जिसके अन्दर वह बन्दी बन जाता है । इस रीति से विभिन्न स्थितियों तथा परिस्थितियों के अनुसार जीव देवता, मानव अथवा पशु शरीर की विभिन्न स्थितियों में अवस्थित हो जाता है ।
वैदिक साहित्य में स्पष्ट किया गया है कि विभिन्न योनियों में बन्दी जीव परमेश्वर के अंश हैं । मायावादी दार्शनिक जीव को परमात्मा समझने की भूल कर बैठते हैं । वास्तव में परमात्मा एक मित्र के रूप में जीव के साथ रहता है । श्रीभगवान् का अन्तर्यामी पक्ष परमात्मा तथा जीवात्मा दोनों ही शरीर के अन्दर हैं, अतएव कभी-कभी यह समझने में भूल हो जाती है कि दोनों में कोई अन्तर नहीं है । किन्तु जीवात्मा तथा परमात्मा के मध्य एक निश्चित अन्तर है तथा इसे वराह-पुराण में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है :-परमेश्वर के दो प्रकार के अंश होते हैं-जीव को विभिन्नंश कहते हैं, परमात्मा अथवा परमेश्वर के पूर्ण अंश को स्वांश कहते हैं । श्रीभगवान् के स्वांश, श्रीभगवान् के समान ही शक्तिमान हैं । परम पुरुष तथा उनके पूर्ण अंश परमात्मा की शक्ति के मध्य रंचमात्र भी अन्तर नहीं है । किन्तु विभिन्नांश भगवान् की शक्तियों के एक लघुतम अंश से ही युक्त होते हैं । नारद पंचरात्र का कथन है कि परमेश्वर की तटस्था शक्ति-जीव-आध्यात्मिक अस्तित्त्व की गुणवत्ता में भगवान् के समान ही है, किन्तु उसमें भौतिक गुणों का पुट भी होता है । भौतिक गुणों के प्रभाव का भागी होने के कारण सूक्ष्म जीवात्मा को जीव कहा जाता है । कभी-कभी श्रीभगवान् को शिव भी कहा जाता है । शिव का अर्थ है सर्वकल्याणमय । अतएव शिव तथा जीव के मध्य यह अन्तर है कि सर्वकल्याणमय श्रीभगवान् पर भौतिक गुण कभी-भी कोई प्रभाव नहीं डालते हैं, जबकि श्रीभगवान् के सूक्ष्म अंश (जीव) भौतिक प्रकृति के गुणों से प्रभावित हो जाते हैं ।
किसी जीव विशेष के शरीर में निवास करने वाले परमात्मा यद्यपि भगवान् के एक अंश हैं, तथापि वे जीव द्वारा उपास्य हैं । अतएव महर्षियों ने निष्कर्ष निकाला है कि ध्यान की प्रक्रिया की संरचना इस प्रकार की गई है, जिससे कि जीव परमात्मा के रूप (श्रीविष्णु) के चरणकमलों पर अपना ध्यान एकाग्र कर सके । यही समाधि का वास्तविक रूप है । जीव अपने ही प्रयासों द्वारा भौतिक बन्धनों से मुक्त नहीं हो सकता है । अतएव उसे परमेश्वर के चरणकमलों अथवा अपने अन्दर स्थित परमात्मा की भक्ति को स्वीकार करना चाहिए । श्रीमद्भागवत के प्रख्यात टीकाकार श्री श्रीधर स्वामी ने इस सम्बन्ध में एक सुन्दर पद की रचना की है । इस पद का तात्पर्य इस प्रकार है-"प्रिय भगवन् ! मैं सनातन रूप से आपका अंश हूँ किन्तु मैं आपसे ही विकीर्ण होने वाली भौतिक शक्तियों के बन्धन में बद्ध हो गया हूँ । समस्त कारणों के कारण के रूप परमात्मा के रूप में आपने मेरे शरीर में प्रवेश किया है और आपके साथ परमानन्द ज्ञान के जीवन का उपभोग करना मेरा अधिकार है । अतएव हे भगवन् ! मुझे अपनी (भगवान् की) प्रेम-सेवा का आदेश दीजिए, जिससे कि मैं पुनः दिव्य आनन्द की अपनी आदि स्थिति को प्राप्त कर सकूं ।"
महाजनों को इस तथ्य का बोध है कि इस भौतिक जगत् के बंधन में बद्धजीव अपने प्रयास से मुक्त हो सकता है । दृढ़ निष्ठा तथा भक्ति के साथ ऐसे महान् व्यक्ति भगवान् की दिव्य प्रेम-सेवा में संलग्न हो जाते हैं । यही मूर्तिमान् वेदों का निर्णय है । मूर्तिमान् वेदों ने आगे कहा, "प्रिय भगवन् ! परम सत्य का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है । पतित आत्माओं पर आप इतने कृपालु हैं कि आप विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं तथा विभिन्न कार्य सम्पादित करते हैं । आप इस भौतिक जगत् के एक ऐतिहासिक पुरुष के रूप में भी प्रकट होते हैं तथा वैदिक साहित्य में आपकी लीलाओं का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया गया है । ये लीलाएँ दिव्यानन्द के सागर की भाँति आकर्षक हैं । जिन कथाओं में साधारण जीवों का यशगान होता हो, उनका पठन करने की ओर लोगों का स्वाभाविक झुकाव होता है । किन्तु जब वे आपकी शाश्वत लीलाओं का वर्णन करने वाले वैदिक साहित्य की ओर आकर्षित होते हैं, तब वे वास्तव में दिव्य आनन्द के सागर में डुबकी लगाते हैं । जैसे एक श्रमित मानव जलाशय में डुबकी लगा कर विश्रान्ति का अनुभव करता है, उसी भाँति भौतिक गतिविधियों के प्रति अरुचि रखने वाली बद्धात्मा आपकी लीलाओं के दिव्य सागर में डुबकी लगाने मात्र से विश्रान्त हो जाती है तथा भौतिक गतिविधियों के समस्त श्रम को विस्मृत कर देती है । अन्तत: वह दिव्यानन्द के सागर में लीन हो जाती है । अतएव अति बुद्धिमान भक्त भक्ति तथा नवधा भक्ति में सतत संलग्न रहने के अतिरिक्त आत्म-साक्षात्कार के अन्य किसी साधन को नहीं अपनाते हैं । भक्ति की नवधा प्रक्रियाओं में भी श्रवण तथा कीर्तन विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । आपकी दिव्य लीलाओं के विषय में श्रवण तथा कीर्तन करते हुए आपके भक्त, मुक्ति अथवा परम सत्ता के अस्तित्त्व में लीन हो जाने से प्राप्त होने वाले दिव्य आनन्द की भी परवाह नहीं करते हैं । ऐसे भक्त तथाकथित मुक्ति में भी रुचि नहीं रखते हैं । निश्चय ही उन्हें इन्द्रियतृप्ति के हेतु स्वर्ग लोक प्राप्ति के लिए की जाने वाली भौतिक गतिविधियों में भी कोई रुचि नहीं होती है । शुद्ध भक्त केवल परमहंसों अथवा महान्-भक्तों की संगति की ही खोज में रहते हैं, जिससे कि वे निरन्तर आपके यश का श्रवण या जप कर सकें । इस प्रयोजन के लिए शुद्ध भक्त जीवन के समस्त सुखों का परित्याग करने को तत्पर रहते हैं । वे पारिवारिक जीवन एवं तथाकथित समाज, मैत्री तथा प्रेम के भौतिक सुखों का त्याग करने के लिए भी तत्पर रहते हैं । आपके यश का कीर्तन करने की दिव्य ध्वनि-
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
का रसास्वादन करने के द्वारा जिन्होंने भक्ति के अमृत का आस्वाद ले लिया है, वे अन्य किसी आध्यात्मिक आनन्द अथवा भौतिक सुखों में रुचि नहीं रखते हैं । शुद्ध भक्त को ये सुख तथा आनन्द, तृण से भी तुच्छ प्रतीत होते हैं ।"
मूर्तिमान् वेदों ने आगे कहा, "प्रिय भगवन् ! जब पूर्ण कृष्णभावनामृत में स्वयं को भक्ति-सेवा में संलग्न करने के द्वारा कोई व्यक्ति अपने मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को निर्मल करने में समर्थ हो जाता है, तब उसका मन उसका सखा बन जाता है । अन्यथा उसका मन सदैव ही उसका शत्रु होता है । जब मन भगवान् की भक्ति-सेवा में संलग्न होता है, तब यह जीव का घनिष्ठ मित्र बन जाता है, क्योंकि तब मन सदैव ही परमेश्वर का चिन्तन कर सकता है । भगवान् जीवात्मा को सनातन रूप से प्रिय हैं, अतएव जब मन आपके चिन्तन में संलग्न होता है, तब व्यक्ति तत्काल ही उस परम सन्तोष का अनुभव करता है, जिसकी उसे जन्म-जन्मांतर से लालसा रही है । जब व्यक्ति का मन इस प्रकार से श्रीभगवान् के चरणकमलों में केन्द्रित हो जाता है, तब वह किसी अन्य प्रकार की निकृष्ट उपासना अथवा आत्म-साक्षात्कार की निकृष्ट प्रक्रिया को नहीं अपनाता है । किसी एक देवता की उपासना का प्रयास करने अथवा आत्म-साक्षात्कार की किसी अन्य प्रक्रिया का अवलम्ब लेने से जीव जन्म-मरण के चक्र का शिकार बन जाता है । इस बात का कोई अनुमान नहीं लगा सकता है कि जीवन की कुत्ते-बिल्ली जैसी निकृष्ट योनियों में प्रवेश करने से जीव कितना तुच्छ बन जाता है ।"
श्रीनरोत्तम दास ठाकुर ने गाया है कि भगवान् की भक्ति को न अपना कर मीमांसा तथा कर्मकाण्ड के प्रति आकृष्ट होने वाले लोगों को ऐसे कर्मों का विषैला परिणाम भोगना पड़ता है । ऐसे लोगों को विभिन्न योनियों में जन्म लेने तथा मांसभक्षण एवं मदिरापान जैसी घृणित आदतों को अपनाने के लिए बाध्य होना पड़ता है । साधारण भौतिकतावादी लोग क्षणभंगुर भौतिक शरीर की उपासना करते हैं तथा शरीर के अन्दर की आत्मा के कल्याण को विस्मृत कर देते हैं । कुछ लोग दैहिक सुखों की वृद्धि के हेतु भौतिकतावादी विज्ञान का आश्रय लेते हैं तथा अन्य लोकों को जाने की कामना से देवताओं की उपासना अपना लेते हैं । उनके जीवन का उद्देश्य भौतिक शरीर को सुखी बनाना है, जबकि वे आत्मा के लाभ को विस्मृत कर देते हैं । ऐसे लोगों को वैदिक साहित्य में आत्मघाती कहा गया है, क्योंकि भौतिक शरीर एवं इसके सुखों के प्रति मोह जीव को निरन्तर जीवन-मरण की प्रक्रिया में भटकने को बाध्य कर देता है, जहाँ उसे अनिवार्य रूप से भौतिक दुःख सहन करने पड़ते हैं । मानव-योनि में जन्म लेना जीव के लिए अपनी स्थिति को समझने का एक अवसर है तथा बुद्धिमान व्यक्ति अपने मन, इन्द्रियों तथा शरीर को बिना चूके भगवान् की सेवा में संलग्न करने के लिए भक्ति का आश्रय लेता है ।
मूर्तिमान् वेदों ने आगे कहा, "प्रिय भगवन् ! अनेक योगी ऐसे हैं, जो अति विद्वान तथा जीवन की सर्वोच्च पूर्णता को प्राप्त करने में दृढ़ संकल्प हैं । वे प्राणवायु को शरीर के अन्दर नियंत्रित कर के योग-प्रणाली का अभ्यास करते हैं । किन्तु अत्यन्त श्रमपूर्ण त्याग, तपस्या तथा नियमन के उपरान्त भी उन्हें वही गन्तव्य प्राप्त होता है, जो आपके प्रति वैरभाव रखने वाले लोगों को प्राप्त होता है । दूसरे शब्दों में, योगी तथा महान् बुद्धिमान दार्शनिक विचारक दोनों को अन्ततः निराकार ब्रम की ज्योति प्राप्त होती है । भगवान् के नियमित शत्रु असुरों को भी यही ब्रम-ज्योति अनायास ही प्राप्त होती है । कंस, शिशुपाल तथा दन्तवक्र के समान असुरों को भी ब्रम-ज्योति प्राप्त होती है, क्योंकि वे निरन्तर श्रीभगवान् का ध्यान करते हैं । गोपियों के समान स्त्रियाँ श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं तथा उनके सौन्दर्य से मोहित हो गई थीं । श्रीकृष्ण पर उनके मन की एकाग्रता के मूल में वासना थी । वे सर्प की गोलाकार सुन्दर आकृति के सदृश दीखने वाली श्रीकृष्ण की भुजाओं द्वारा आलिंगनबद्ध होना चाहती थीं । इसी तरह हम वैदिक ऋचाएँ भी अपना मन आपके चरणारविन्दों पर केन्द्रित करती हैं । गोपियों के समान स्त्रियाँ वासना के वशीभूत हो कर आप पर मन एकाग्र करती हैं तथा हम अपने घर, भगवान् के धाम, लौटने के लिए आपके पदकमलों पर ध्यान केन्द्रित करती हैं । आपके शत्रु भी सदैव आपका वध करने के उपायों के विषय में विचार करते हुए आप पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तथा आपकी निर्विशेष ज्योति को प्राप्त करने के लिए योगी महान् तप तथा त्याग करते हैं । ये सभी विभिन्न व्यक्ति यद्यपि अपने मन को भिन्न-भिन्न प्रकार से एकाग्र करते हैं, तथापि वे अपने विभिन्न दृष्टिकोणों के अनुसार आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करते हैं, क्योंकि आप अपने समस्त भक्तों के प्रति समभाव रखते हैं ।"
इस सम्बन्ध में श्री श्रीधर स्वामी ने एक श्रेष्ठ पद की रचना की है-"प्रिय भगवन्, सदैव आपके चरणाविन्दों के चिन्तन में संलग्न रहना अत्यन्त कठिन है । ऐसा करना केवल उन महान् भक्तों के लिए सम्भव होता है, जिन्होंने पहले से ही आपके प्रति प्रेम को प्राप्त कर लिया है तथा जो दिव्य प्रेमाभक्ति में संलग्न हैं । प्रिय भगवन् ! मेरी इच्छा है कि कम से कम कुछ समय के लिए ही, मेरा मन भी किसी प्रकार से आपके चरण कमलों में संलग्न हो जाए ।"
विभिन्न अध्यात्मवादियों के द्वारा आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति को भगवद्-गीता में स्पष्ट किया गया है, जहाँ भगवान् कहते हैं कि वे अपने प्रति समर्पण के अनुपात में भक्त को उसकी अभीप्सित पूर्णता प्रदान करते हैं । निरार्विशेषवादी, योगी तथा भगवान् के शत्रु भगवान् की दिव्य ज्योति में प्रवेश करते हैं । किन्तु वृन्दावनवासियों के चरणचिह्नों का अनुसरण करने वाले अथवा भक्ति के पथ पर दृढ़तापूर्वक चलने वाले सगुणवादी श्रीकृष्ण के निजी धाम गोलोक वृन्दावन अथवा वैकुण्ठ लोकों को प्राप्त करते हैं । निर्विशेषवादी तथा सगुणवादी दोनों ही अध्यात्म क्षेत्र अथवा चिदाकाश में प्रवेश करते हैं, किन्तु निर्विशेषवादियों को निर्विशेष ब्रम ज्योति में स्थान प्राप्त होता है, जबकि सगुणवादियों को भगवान् की विभिन्न रसों में सेवा करने की उनकी इच्छा के अनुसार वैकुण्ठ लोकों अथवा वृन्दावन लोक में स्थान प्रदान किया जाता है ।
मूर्तिमान् वेदों ने कहा कि इस भौतिक जगत् की सृष्टि के उपरान्त जन्म लेने वाले लोग अपने भौतिक ज्ञान का उपभोग कर के श्रीभगवान् के अस्तित्त्व को नहीं समझ सकते हैं । जैसे कि किसी एक विशेष परिवार में जन्म लेने वाला व्यक्ति वर्तमान पीढ़ी के जन्म से पूर्व जीवित रहने वाले अपने पितामह की स्थिति को नहीं समझ सकता है, उसी भाँति हम भी आध्यात्मिक जगत् में शाश्वत अस्तित्त्व वाले श्रीभगवान् नारायण अथवा श्रीकृष्ण को समझने में असमर्थ हैं । भगवद्-गीता के आठवें अध्याय में यह स्पष्टरूप से कहा गया है कि सनातन रूप से भगवान् के आध्यात्मिक लोक (सनातन-धाम) में निवास करने वाले परम पुरुष के समीप केवल भक्ति के द्वारा ही जाया जा सकता है । जहाँ तक भौतिक सृष्टि का सम्बन्ध है, ब्रह्मा उसके प्रथम व्यक्ति हैं । ब्रह्मा से पूर्व इस भौतिक जगत् में कोई जीव नहीं था । गर्भोंदकशायी विष्णु के उदर से निकले हुए कमल पुष्प पर ब्रह्मा का जन्म होने के पूर्व यह शून्य एवं अंधकारमय था । गर्भोंदकशायी विष्णु कारणोदकशायी विष्णु के अंश हैं, कारणोदकशायी विष्णु संकर्षण के अंश हैं तथा संकर्षण बलराम जी के अंश हैं । बलराम जी भगवान् श्रीकृष्ण के स्वांश हैं । ब्रह्मा की सृष्टि के उपरान्त दो प्रकार के देवताओं का जन्म हुआ: सनक, सनातन, सनन्दन तथा सनत् कुमार चार भाइयों जैसे देवता, जो कि जगत् में वैराग्य के प्रतिनिधि हैं; तथा मरीचि एवं उनके वंशजों जैसे देवता, जिनकी सृष्टि इस भौतिक जगत् के उपभोग के लिए हुई । इन्हीं दो प्रकार के देवताओं से धीरे-धीरे मानव सहित अन्य सब जीव आविभूत हुए । इस प्रकार ब्रह्मा, समस्त देवताओं तथा समस्त राक्षसों सहित इस भौतिक जगत् के किसी भी जीव को आधुनिक समझना चाहिए । इसका अर्थ है कि उनका जन्म हाल ही में हुआ है । अतएव जैसे कि हाल ही में किसी परिवार में जन्म लेने वाला व्यक्ति अपने अतीत के पूर्वज को नहीं समझ सकता है, उसी भाँति इस भौतिक जगत् का कोई जीव आध्यात्मिक जगत् में परमेश्वर की स्थिति को नहीं समझ सकता है, क्योंकि भौतिक जगत् की रचना हाल ही में हुई है । यद्यपि उनका अस्तित्त्व दीर्घकालीन है, तथापि भौतिक जगत् के सभी अंश जैसे कि काल, तत्त्व, जीव, वेद तथा स्थूल व सूक्ष्म तत्त्व सभी की कभी-न-कभी सृष्टि की गई थी । इस निर्मित स्थिति में रचित किसी भी वस्तु को अथवा जिस किसी वस्तु को सृष्टि के मूल कारण को समझने का साधन स्वीकार किया जाए आधुनिक मानना चाहिए ।
अतएव कर्मकाण्ड, मीमांसा अथवा योग के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार अथवा भगवद्-साक्षात्कार की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति वास्तव में प्रत्येक वस्तु के परम स्रोत तक नहीं पहुँच सकता । जब सृष्टि का पूर्ण रूप से अन्त हो जाता है, जब वेदों का कोई अस्तित्त्व नहीं रहता है, भौतिक काल, सूक्ष्म तथा स्थूल भौतिक तत्त्वों का कोई अस्तित्त्व नहीं रहता है तथा जब अव्यक्त स्थिति में समस्त जीव नारायण में विश्राम कर रहे होते हैं, तब ये सब निर्मित प्रक्रियाएँ अर्थहीन हो जाती हैं तथा कार्य नहीं कर सकती हैं । किन्तु शाश्वत आध्यात्मिक जगत् में भक्ति शाश्वत रूप से चलती रहती है । अतएव आत्म-साक्षात्कार अथवा ईश्वर के साक्षात्कार की एकमात्र तथ्यपूर्ण प्रक्रिया भक्ति ही है । यदि कोई इस प्रक्रिया को अपनाता है, तो वह ईश्वर के साक्षात्कार की वास्तविक प्रक्रिया को अपनाता है । अतएव श्रील श्रीधर स्वामी ने इस सम्बन्ध में एक पद की रचना की है । इसका आशय है कि प्रत्येक वस्तु के परम स्रोत श्रीभगवान् इतने महान् तथा असीम हैं कि किसी भौतिक उपलब्धि के द्वारा उन्हें समझना जीव के लिए सम्भव नहीं है । अतएव प्रत्येक व्यक्ति को भगवान् से यही प्रार्थना करनी चाहिए कि वह शाश्वत रूप से भगवान् की भक्ति में संलग्न रहे, जिससे कि भगवान् की कृपा से व्यक्ति सृष्टि के परम स्रोत को समझ सके । सृष्टि के परम स्रोत परमेश्वर, स्वयं को केवल भक्तों के समक्ष ही प्रकट करते हैं । भगवद्-गीता के चौथे अध्याय में भगवान् अर्जुन से कहते हैं, "प्रिय अर्जुन, तुम मेरे भक्त हो तथा तुम मेरे अन्तरंग सखा हो, अतएव मुझे समझने की प्रक्रिया मैं तुम्हारे समक्ष प्रकट करूंगा ।" दूसरे शब्दों में, सृष्टि के परम स्रोत श्रीभगवान् को हम केवल अपने प्रयास से नहीं समझ सकते हैं । प्रथम हमें भक्ति के द्वारा भगवान् को प्रसन्न करना होगा तब वे स्वयं को हमारे समक्ष प्रकट करेंगे । तब हम उन्हें कुछ सीमा तक समझ सकते हैं ।
विभिन्न प्रकार के ऐसे दार्शनिक भी हैं जिन्होंने परम स्रोत को अपने मानसिक चिन्तन के द्वारा समझने का प्रयास किया है । साधारणतया छह प्रकार के दार्शनिक होते हैं । उन्हें षड्-दर्शन कहा जाता है । ये समस्त दार्शनिक निराकारवादी हैं तथा इन्हें मायावादी कहा जाता है । इनमें से प्रत्येक ने अपने मत की स्थापना करने का प्रयत्न किया है, यद्यपि कालान्तर में उन्होंने समझौता कर लिया है तथा कहा है कि सभी मत एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं, अतएव प्रत्येक मत न्यायोचित है । किन्तु मूर्तिमान् वेदों की स्तुति के अनुसार उनमें से कोई भी मत न्यायोचित नहीं है, क्योंकि उनकी ज्ञान-प्रक्रिया की रचना अस्थायी भौतिक जगत् में हुई है । वे सभी वास्तविक विषय से चूक गए हैं । वास्तविक तथ्य यह है कि परम सत्य अथवा श्रीभगवान् को केवल भक्ति के द्वारा ही समझा जा सकता है ।
मीमांसक नाम से विख्यात दार्शनिकों के एक वर्ग ने, जिसका प्रतिनिधित्व जैमिनि जैसे ऋषि करते हैं, निष्कर्ष निकाला है कि प्रत्येक व्यक्ति को पुण्य कर्मों अर्थात् अपने नियत कर्मों में संलग्न रहना चाहिए तथा ऐसे कर्मों से सर्वोच्च सिद्धि मिल सकती है । भगवद्गीता के नवें अध्याय में इसका खण्ड़न किया गया है, जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि पुण्य कर्मों के द्वारा व्यक्ति का स्वर्ग लोकों तक उन्नयन हो सकता है, किन्तु जैसे ही व्यक्ति के संचित पुण्य समाप्त हो जाते हैं वैसे ही उसे स्वर्ग लोक त्याग देना पड़ता है । संचित पुण्यों के समाप्त होते ही व्यक्ति को स्वर्ग लोकों में उच्चतर स्तर की भौतिक सम्पन्नता के भोग का त्याग कर तत्काल ही इन निम्न लोकों को आना पड़ता है । इन निम्न लोकों में जीवन की अवधि अत्यन्त अल्प होती है तथा भौतिक सुख का स्तर भी निम्न स्तर का होता है । गीता में प्रयुक्त शब्द हैं, क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति/ अतएव मीमासंक दार्शनिकों का यह निष्कर्ष, कि पुण्य कर्मों की ओर स्वाभाविक झुकाव होता है, वैध नहीं है । तथापि केवल पुण्य कर्मों के द्वारा ही कोई भी श्रीभगवान् की कृपा नहीं प्राप्त कर सकता हैं । पुण्य कर्म व्यक्ति को तमो तथा रजोगुण के कारण हुए दूषणों से निर्मल कर सकते है । किन्तु भगवद्-गीता, श्रीमद्-भागवत तथा उसी के समान अन्य धर्मग्रन्थों के रूप में श्रीभगवान् के दिव्य सन्देश का श्रवण करने में निरन्तर संलग्न रहने वाले भक्त को यह स्थिति अपने आप प्राप्त हो जाती है । भगवद्गीता से हमें समझ में आता है कि यदि कोई व्यक्ति पुण्य कर्मों के स्तर तक नहीं पहुँचा है, किन्तु वह पूर्ण रूप से भक्ति में संलग्न है, तब उसे आध्यात्मिक पूर्णता के मार्ग पर भलीभाँति स्थित समझना चाहिए । भगवद्-गीता में यह भी कहा गया है कि भक्ति में प्रेम तथा श्रद्धापूर्वक संलग्न व्यक्ति का मार्गदर्शन उसके अन्दर से स्वयं श्रीभगवान् करते हैं । परमात्मा के रूप में स्वयं भगवान् अथवा व्यक्ति के हृदय में आसीन गुरु भक्त का ठीक-ठीक मार्गदर्शन करते हैं, जिसके द्वारा वह शनै:शनै: भगवान् के धाम जा सकता है । मीमांसक दार्शनिकों का निष्कर्ष व्यक्ति को वास्तविक समझ की ओर ले जाने वाला सत्य नहीं है । इसी के समान सांख्यवादी दार्शनिक, तत्त्वज्ञानी अथवा भौतिक वैज्ञानिक हैं, जो कि अपने द्वारा आविष्कृत वैज्ञानिक विधि से इस सृष्टि का अध्ययन करते हैं । वे सृष्टि के रचयिता के रूप में भगवान् की परम सत्ता को नहीं मानते हैं । इसके विपरीत वे यह अशुद्ध निष्कर्ष निकालते है कि सृष्टि का मूल कारण भौतिक तत्त्वों की क्रियाप्रतिक्रिया है । किन्तु भगवद्-गीता इस विचार को स्वीकार नहीं करती । उसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सृष्टि की गतिविधियों के पीछे श्रीभगवान् का निर्देशन है । असद् व इदम् अग्र आसीत-इस वैदिक निर्देश के द्वारा भी उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है । असद् वा इदम् अग्र आसीत् का अर्थ है विराट जगत् की अभिव्यक्ति के पूर्व सृष्टि के मूल का अस्तित्त्व था । यद्यपि भौतिक तत्त्वों को भौतिक कारणों के रूप में स्वीकार किया जाता है, तथापि परम कारण स्वयं श्रीभगवान् हैं । अतएव भगवद्-गीता का कथन है कि भौतिक प्रकृति श्रीकृष्ण के निर्देशन में कार्य करती है ।
नास्तिक सांख्य दर्शन का निष्कर्ष है कि भौतिक जगत् के परिणाम अस्थायी व मायावी होते हैं, अतएव उसका कारण भी मायावी अथवा भ्रममूलक है । सांख्यवादी दार्शनिक शून्यवाद के पक्ष में है, किन्तु वास्तविक तथ्य यह है कि श्रीभगवान् मूल कारण हैं तथा यह सृष्टि भगवान् की भौतिक शक्ति की अस्थायी अभिव्यक्ति है । जब इस अस्थायी अभिव्यक्ति (जगत्) का विनाश हो जाता है, तब इसके कारण, आध्यात्मिक जगत् का सनातन अस्तित्त्व जैसे का तैसा बना रहता है । इसीलिए आध्यात्मिक जगत् को सनातन-धाम कहा जाता है । सनातन-धाम का अर्थ है, शाश्वत निवास-स्थान । अतएव सांख्यवादी का निष्कर्ष न्यायोचित नहीं है ।
इसके अतिरिक्त वे दार्शनिक भी हैं जिनके प्रमुख गौतम तथा कणाद हैं । उन्होंने भौतिक तत्त्वों के कार्य-कारण का अत्यन्त सूक्ष्मता से अध्ययन किया है और वे अन्तत: इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि आणविक संयोग सृष्टि का मूल कारण है । वर्तमान काल के भौतिक वैज्ञानिक भी गौतम तथा कणाद के अनुयायी हैं जिन्होंने परमाणुवाद की स्थापना की है । किन्तु इस सिद्धान्त की कोई पुष्टि नहीं हो सकती है, क्योंकि अणु प्रत्येक वस्तु के मूल कारण नहीं हैं । इस तथ्य की पुष्टि भगवद्-गीता, श्रीमद्-भागवत तथा वेदों में भी की गई है, जिसमें कहा गया है, एको नारायण आसीत्/ इसका अर्थ है सृष्टि के पूर्व केवल नारायण का अस्तित्त्व था । श्रीमद्भागवततथा वेदान्त-सूत्र भी कहते हैं कि मूल कारण चेतन है तथा प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दोनों ही रूप से उसे इस सृष्टि के अन्दर प्रत्येक वस्तु का ज्ञान है । भगवद्-गीता में श्रीकृष्ण कहते है, अहं सर्वस्य प्रभव:-"मैं प्रत्येक वस्तु का मूल कारण हूँ ।" वे यह भी कहते हैं, मत्त: सर्वं प्रवर्तते-”मुझसे ही प्रत्येक वस्तु को अस्तित्त्व प्राप्त होता है ।" अतएव अणु भौतिक अस्तित्त्व के आधारभूत संयोग बन सकते हैं, किन्तु इन अणुओं की उत्पति श्रीभगवान् से होती है । इस प्रकार गौतम तथा कणाद के दर्शन का अनुमोदन नहीं किया जा सकता है ।
इसी प्रकार निर्विशेषवादियों में प्रमुख अष्टावक्र तथा बाद में शंकराचार्य स्वीकार करते हैं कि निराकार ब्रम ही सभी कारणों का मूल कारण है । उनके सिद्धान्त के अनुसार यह भौतिक जगत् अस्थायी और मिथ्या है तथा निर्विशेष ब्रमज्योति सत्य है । किन्तु इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि भगवद्-गीता में भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि ब्रह्मज्योति भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर की किरण मात्र है । इस प्रकार निराकार ब्रह्म इस ब्रह्माण्ड का वास्तविक कारण नहीं हो सकता । सभी कारणों के परम कारण तो भगवान् श्रीगोविन्द ही हैं ।
निर्विशेषवादियों का सबसे खतरनाक सिद्धान्त तो यह है कि उनके अनुसार जब श्रीभगवान् अवतरित होते हैं, तो वे भौतिक त्रिगुणों के अधीन यह शरीर धारण करते हैं । यह कथन बहुत ही अपराधपूर्ण है तथा इस मायावादी सिद्धान्त की श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा निन्दा की गई है । उन्होंने कहा, यदि कोई यह सोचे कि श्रीभगवान् के दिव्य शरीर का निर्माण इस भौतिक प्रकृति के अधीन हुआ है, तो यह भगवान् विष्णु के प्रति एक महान् अपराध है । इसी प्रकार श्रीमद्भागवत में भी कथन है कि मूर्ख तथा अज्ञानी ही श्रीभगवान् का उपहास करते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण, भगवान् राम तथा भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु मानव-समाज में वस्तुत: नरवत् लीला मात्र करते हैं ।
मूर्तिमान वेद पूर्ण रूप से निराकारवादी धारणा की असत्य कथन के रूप में निन्दा करते हैं । ब्रह्म-संहिता में आनन्द चिन्मयरस कह कर श्रीभगवान् के श्रीविग्रह का वर्णन किया गया है । श्रीभगवान् आध्यात्मिक विग्रह के स्वामी हैं, न कि भौतिक देह के । वे अपने शरीर के किसी भी भाग से किसी भी वस्तु को भोग सकते हैं, इसीलिए वे सर्वशक्तिमान हैं । भौतिक शरीर के अंग केवल एक विशेष कार्य को ही सम्पादित कर सकते हैं, जैसे कि हाथ पकड़ने का काम करते हैं, किन्तु वे देख अथवा सुन नहीं सकते हैं । किन्तु श्रीभगवान् का शरीर आनन्द चिन्मयरस से निर्मित है अथवा सच्चिदानन्दविग्रह है, अतएव वे अपने किसी भी अंग से कुछ भी भोग सकते हैं अथवा सब कुछ कर सकते हैं । भगवान् के आध्यात्मिक शरीर को भौतिक मानने की धारणा का जन्म श्रीभगवान् को बद्धात्मा के बराबर बना देने की व्यक्ति की प्रवृत्ति के कारण होता है । बद्धात्मा भौतिक शरीरधारी होती है । अतएव यदि भगवान् भी भौतिक शरीरधारी हों, तब श्रीभगवान् तथा जीवों को एक मानने के निराकारवादी सिद्धान्त का अत्यन्त सरलता से प्रचार किया जा सकता है ।
वास्तव में जब श्रीभगवान् का आगमन होता है, तब वे विभिन्न लीलाओं का प्रदर्शन करते हैं, फिर माता यशोदा की गोद में लेटे हुए उनके शिशु शरीर तथा असुरों से युद्ध कर रहे उनके तथाकथित युवा शरीर के मध्य कोई भेद नहीं है । अपने शिशु शरीर में भी उन्होंने पूतना, तृणावर्त, अघासुर आदि के समान असुरों से युद्ध किया था । उस समय भी उनकी शक्ति उसी के बराबर थी, जितनी शक्ति से उन्होंने अपनी युवावस्था में दन्तवक्र, शिशुपाल तथा अन्य असुरों से युद्ध किया था ।
भौतिक जीवन में जैसे ही एक बद्धात्मा अपना शरीर परिवर्तन करती है, उसे अपने पूर्व शरीर के विषय में सब कुछ विस्मृत हो जाता है । किन्तु भगवद्-गीता से हमें ज्ञात होता है कि सच्चिदानन्दविग्रह होने के कारण श्रीकृष्ण को यह विस्मृति नहीं हुई कि करोड़ों वर्ष पूर्व उन्होंने सूर्यदेव को भगवद्-गीता के विषय में उपदेश दिया था । अतएव भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही अस्तित्वों से परे होने के कारण भगवान् को पुरुषोत्तम के रूप में जाना जाता है । वे समस्त कारणों के कारण हैं । इसका अर्थ है कि वे आध्यात्मिक जगत् के साथ-साथ भौतिक जगत् के भी कारण हैं । श्रीभगवान् सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ हैं । चूँकि एक भौतिक शरीर न तो सर्वशक्तिमान हो सकता है न ही सर्वज्ञ, अतएव निश्चित रूप से भगवान् का शरीर भौतिक नहीं है । मायावादियों के इस सिद्धान्त का किसी भी प्रकार से अनुमोदन नहीं किया जा सकता है कि श्रीभगवान् एक भौतिक शरीर के साथ इस भौतिक जगत् में आते हैं ।
यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भौतिकतावादी दार्शनिकों की समस्त उत्पत्तियाँ स्वप्न में निकाले गए निष्कर्षों के समान अस्थायी मायावी अस्तित्त्व से उद्धृत होती हैं । निश्चित रूप से ऐसे निष्कर्ष हमें परम सत्य तक नहीं ले जा सकते हैं । परम सत्य को केवल भक्ति के द्वारा ही समझा जा सकता है, जैसाकि भगवान् भगवद्-गीता में कहते हैं, भक्त्ा माम् अभिजानाति-"कोई भी व्यक्ति मुझे केवल भक्ति के द्वारा ही समझ सकता है ।" श्रील श्रीधर स्वामी ने इस सम्बन्ध में एक उत्तम पद की रचना की है, जिसमें कहा है, "प्रिय भगवन् ! अन्य लोगों को झूठे तर्कों एवं नीरस विचारों में संलग्न रहने दीजिए । उन्हें अपने महान् दार्शनिक विचारों पर सिद्धान्त बनाने दीजिए । उन्हें अज्ञान एवं माया के अंधकार में भटकने दीजिए । यद्यपि वे श्रीभगवान् के ज्ञान से रहित हैं, तथापि स्वयं को अत्यन्त विद्वान पण्डित समझ कर वे झूठे आनन्द में मग्न रहते हैं । जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं सर्वसुन्दर श्रीभगवान् के पावन नामों-माधव, वामन, त्रिनयन, संकर्षण, श्रीपति तथा गोविन्द-का जप करने मात्र के द्वारा ही मोक्षप्राप्ति की कामना करता हूँ । केवल भगवान् के दिव्य नामों के जप के द्वारा ही मुझे इस भौतिक अस्तित्त्व के दूषणों से मुक्त हो जाने दीजिए ।” इस प्रकार से मूर्तिमान् वेदों ने कहा, "प्रिय भगवन् ! आपकी कृपा मात्र से जब कोई जीव आपकी उत्कृष्ट दिव्य स्थिति के विषय में उचित निष्कर्ष पर पहुँच जाता है, तब वह तथाकथित दार्शनिकों अथवा मीमांसकों के द्वारा विरचित विभिन्न सिद्धान्तों के विषय में चिन्ता करना बन्द कर देता है ।" यहाँ पर गौतम, कणाद, पतञ्जलि तथा कपिल (निरीश्वरवादी) के तर्कवादी सिद्धान्तों के विषय में उल्लेख किया गया है । वास्तव में दो कपिल हैं-कर्दम मुनि के पुत्र कपिल भगवान् के एक अवतार हैं तथा दूसरे कपिल आधुनिक काल के एक नास्तिक हैं । नास्तिक कपिल को असत्य रूप से प्राय: स्वायम्भुव मनु की कालावधि में कर्दम मुनि के पुत्र के रूप में प्रकट हुए श्रीभगवान् को समझ लिया जाता है । श्रीभगवान् के अवतार भगवान् कपिल दीर्घ काल पूर्व प्रकट हुए थे । आधुनिक युग वैवस्वत मनु का युग है जब कि वे स्वायम्भुव मनु के काल में प्रकट हुए थे ।
मायावादी दर्शन के अनुसार यह व्यक्त जगत् अथवा भौतिक जगत् मिथ्या, माया अथवा असत्य है । उनका सिद्धान्त है ब्रम-सत्य जगत्-मिथ्या//उनके अनुसार केवल ब्रमज्योति ही सत्य है तथा सृष्टि मायावी (भ्रम) अथवा असत्य है । किन्तु वैष्णव दर्शन के अनुसार श्रीभगवान् इस सृष्टि के रचयिता हैं । भगवद्-गीता में भगवान् कहते हैं कि वे अपने एक अंश के द्वारा इस भौतिक जगत् में प्रवेश करते हैं और इस प्रकार सृष्टि होती है । वेदों से भी हम समझ सकते हैं कि यह असत् अथवा अस्थायी जगत् सत् अथवा तथ्य का एक विकिरण भी है । वेदान्त-सूत्र से भी हम यह समझते हैं कि प्रत्येक वस्तु का जन्म परब्रम से हुआ है । इस प्रकार वैष्णव इस सृष्टि को मिथ्या नहीं मानते हैं । वैष्णव दार्शनिक इस भौतिक जगत् में प्रत्येक वस्तु का अवलोकन परमेश्वर के सम्बन्ध में करते हैं ।
भौतिक जगत् की इस धारणा का श्रील रूप गोस्वामी ने अतीव सुन्दरता से स्पष्टीकरण किया है । उन्होंने कहा कि इस तथ्य से अज्ञात रह कर कि यह भौतिक जगत् भी परमेश्वर का ही विस्तार है, इस भौतिक जगत् को माया अथवा मिथ्या मान कर त्याग देने का व्यावहारिक रूप से कोई मूल्य नहीं है । किन्तु वैष्णवजन इस जगत् के प्रति मोह से मुक्त होते हैं, क्योंकि सामान्यतया भौतिक जगत् को इन्द्रियतृप्ति की विषयवस्तु के रूप में स्वीकार किया जाता है । वैष्णवजन इन्द्रियतृप्ति के पक्ष में नहीं है, अतएव वे भौतिक गतिविधियों पर अनुरक्त नहीं हैं । वैष्णवजन इस भौतिक जगत् को वैदिक आदेशों के विधि-विधानों के अनुसार स्वीकार करते हैं । श्रीभगवान् प्रत्येक वस्तु के मूल कारण हैं, अतएव इस भौतिक जगत् में भी वैष्णवजन प्रत्येक वस्तु का अवलोकन श्रीकृष्ण से उसका सम्बन्ध मान कर करते हैं । इस प्रगतिशील ज्ञान के द्वारा प्रत्येक वस्तु अध्यात्ममय बन जाती है । दूसरे शब्दों में भौतिक जगत् में प्रत्येक वस्तु पहले से ही अध्यात्ममय है, किन्तु अपनी अज्ञानता के कारण हम वस्तुओं को भौतिक रूप में देखते हैं ।
मूर्तिमान् वेदों ने दृष्टान्त प्रस्तुत किया कि स्वर्ण की खोज करने वाले स्वर्ण निर्मित कुण्डल, चूड़ियों अथवा स्वर्णनिर्मित अन्य किसी वस्तु का केवल इसलिए तिरस्कार नहीं करते कि वे मूल स्वर्ण से भिन्न आकार में हैं । समस्त जीव परमेश्वर के विभिन्न अंश हैं तथा गुण में उनके समान ही हैं, किन्तु अब उन्हें चौरासी लाख योनियों में भिन्न-भिन्न आकार प्राप्त है । यह ठीक उसी प्रकार है जैसे स्वर्ण के एक ही स्रोत से भिन्न-भिन्न प्रकार के आभूषण निर्मित होते हैं । जिस प्रकार स्वर्ण में रुचि रखने वाला व्यक्ति समस्त विभिन्न आकार-प्रकार के स्वर्ण आभूषणों को स्वीकार कर लेता है, उसी भाँति यह भलीभाँति जानते हुए कि समस्त जीव गुणों में श्रीभगवान् के समान ही हैं, एक वैष्णव समस्त जीवों को भगवान् के सनातन सेवकों के रूप में स्वीकार करता है । इस प्रकार एक वैष्णव के रूप में व्यक्ति को इन बद्ध तथा पथभ्रष्ट जीवों को सुधार कर, उन्हें कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षित करने तथा उन्हें अपने घर, भगवान् के धाम, ले जाने के द्वारा श्रीभगवान् की सेवा करने का पर्याप्त अवसर प्राप्त होता है । तथ्य यह है कि अब जीवों के मन भौतिक त्रिगुणों द्वारा व्याकुल हैं तथा इसीलिए जीव स्वप्नवत् एक देह से दूसरे देह में देहान्तरण कर रहे हैं । किन्तु जब उनकी चेतना कृष्णभावनामृत में परिवर्तित हो जाती है, तब वे तत्काल ही श्रीकृष्ण को अपने हृदय में स्थापित कर लेते हैं और इस प्रकार उनके मोक्ष का मार्ग निष्कंटक बन जाता है । समस्त वेदों में श्रीभगवान् एवं जीवों को समान गुणयुक्त-चैतन्य अथवा आध्यात्मिक-कहा गया है । इस तथ्य की पुष्टि पद्म-पुराण में भी की गई है, जिसमें कहा गया है कि दो प्रकार के आध्यात्मिक अस्तित्त्व होते हैं, एक को जीव तथा दूसरे को परमेश्वर कहा जाता है । ब्रह्माजी से लेकर चींटी तक समस्त जीवित इकाइयाँ जीव हैं, जबकि भगवान् चतुर्भुज श्रीविष्णु अथवा जनार्दन हैं । आत्मा शब्द केवल श्रीभगवान् के लिए ही प्रयुक्त किया जा सकता है, किन्तु जीव भी भगवान् के अंश हैं, अतएव कभी-कभी आत्मा शब्द जीवों के लिए भी प्रयुक्त होता है । अतएव जीवों को जीवात्मा कहा जाता है तथा परमेश्वर को परमात्मा कहा जाता है । परमात्मा तथा जीवात्मा दोनों ही इस भौतिक जगत् में हैं, अतएव इस भौतिक जगत् का इन्द्रियतृप्ति से भिन्न एक दूसरा ही प्रयोजन है । इन्द्रियतृप्ति के जीवन की धारणा माया (भ्रम) है, किन्तु इस भौतिक जगत् में भी जीवात्मा के द्वारा परमात्मा की सेवा की धारणा कदापि माया अथवा भ्रममूलक नहीं है । एक कृष्ण भक्त को इस तथ्य का पूर्ण बोध रहता है, इस प्रकार वह इस भौतिक जगत् को मिथ्या नहीं मानता, अपितु दिव्य सेवा की वस्तुस्थिति में कर्म करता है । इसलिए भक्त इस भौतिक जगत् में प्रत्येक वस्तु को भगवान् की सेवा के अवसर के रूप में देखता है । वह किसी भी वस्तु को भौतिक कह कर उसका तिरस्कार नहीं करता है, अपितु प्रत्येक वस्तु को भगवान् की सेवा में नियोजित कर देता है । इस प्रकार भक्त सदैव दिव्य स्थिति में रहता है तथा वह प्रत्येक वस्तु, जिसका भक्त उपयोग करता है, भगवान् की सेवा में प्रयुक्त होने से आध्यात्मिक रूप से निर्मल हो जाती है ।
इस सम्बन्ध में श्रीधर स्वामी ने एक सुन्दर पद की रचना की है-"कुछ लोगों द्वारा मिथ्या समझे जाने वाले इस भौतिक जगत् में भी सदैव सत्य के रूप में प्रकाशित होने वाले श्रीभगवान् की मैं उपासना करता हूँ ।" इस भौतिक जगत् के मिथ्या होने की धारणा का कारण अज्ञान है, किन्तु कृष्णभावनामृत में प्रगतिशील व्यक्ति प्रत्येक वस्तु में श्रीभगवान् के दर्शन करता है । यह वास्तव में वैदिक सूत्र सर्वं खल्विदं ब्रम "सब कुछ ब्रम है"-का साक्षात्कार है । मूर्तिमान् वेदों ने आगे स्तुति की, "प्रिय भगवन् ! अल्पबुद्धि मानव आत्म– साक्षात्कार के अन्य मार्गों का अवलम्बन करते हैं, किन्तु वास्तव में जब तक व्यक्ति पूर्ण रूप से विशुद्ध भक्त न हो तब तक भौतिक प्रदूषण से मुक्ति अथवा जन्म तथा मृत्यु के निरन्तर चक्र को रोकने का कोई अवसर नहीं है । हे भगवन् ! जैसाकि वेदों में कहा गया है (एको बहूनां यो विदधाति कामान् ) प्रत्येक वस्तु आपकी विभिन्न शक्तियों पर आश्रित है तथा आप प्रत्येक व्यक्ति का पोषण करते हैं । अतएव भगवन् ! आप समस्त जीवों-देवताओं, मानवों तथा पशुओं-के पोषक तथा पालनकर्ता हैं । आप सबका पोषण करते हैं तथा आप सबके हृदय में भी स्थित हैं । दूसरे शब्दों में, आप समस्त सृष्टि के मूल हैं । अतएव आपकी भक्ति में संलग्न व्यक्ति स्थिर चित्त से सदैव आपकी उपासना करते हैं । वस्तुत: ऐसे भक्त विश्व वृक्ष के मूल में जलदान करते हैं । अतएव भक्ति सेवा के द्वारा व्यक्ति न केवल श्रीभगवान् को अपितु अन्य सब को भी सन्तुष्ट करता है, क्योंकि श्रीभगवान् ही प्रत्येक जीव के पोषणकर्ता एवं पालनहार हैं । श्रीभगवान् के सर्वव्यापी स्वभाव को समझने के कारण एक भक्त सर्वाधिक व्यावहारिक लोकहित चिन्तक तथा परोपकारी है । कृष्णभावनामृत में पूर्णरूपेण संलग्न ऐसे विशुद्ध भक्त अति सरलतापूर्वक जन्म-मरण के चक्र पर विजय प्राप्त कर लेते हैं तथा वे मृत्यु के सिर पर से छलांग लगा लेते हैं ।"
एक भक्त मृत्यु अथवा शरीर-परिवर्तन से कभी भी भयभीत नहीं होता है । उसकी चेतना कृष्णभावनामृत में रूपान्तरित हो गई है और यदि वह भगवान् के धाम वापस नहीं जाता है, यदि वह अन्य भौतिक शरीर में देहान्तरण करता है, तब भी उसके लिए भय का कोई कारण नहीं है । इसका एक ज्वलन्त दृष्टान्त भरत महाराज हैं । यद्यपि अपने अगले जन्म में वे एक मृग बने तथापि उसके बाद के जन्म में वे समस्त भौतिक दूषणों से पूर्णरूपेण मुक्त हो गए तथा उन्हें भगवान् के धाम की प्राप्ति हुई । अतएव भगवद्-गीता में पुष्टि की गई है कि एक भक्त की कभी-भी पराजय नहीं होती है । उसका अपने घर, भगवान् के धाम, वैकुण्ठ लोक को लौटने का पथ निश्चित है । यद्यपि एक जन्म में भक्त से कोई भूल हो जाए, तदापि उसके कृष्णभावनामृत की निरन्तरता के कारण उसकी अधिकाधिक उन्नति होती जाती है, जब तक कि वह भगवान् के धाम नहीं लौट जाता है । एक शुद्ध भक्त न केवल अपने व्यक्तिगत अस्तित्त्व को ही निर्मल करता है, अपितु जो कोई उसका शिष्य बनता है, वह भी अन्तत: निर्मल हो जाता है तथा बिना किसी कठिनाई के भगवान् के धाम में प्रवेश करने में समर्थ होता है । शुद्ध भक्त न केवल स्वयं सरलतापूर्वक मृत्यु का अतिक्रमण कर लेता है, अपितु उसकी कृपा से उसके शिष्य भी बिना किसी कठिनाई के ऐसा कर सकते हैं । भक्ति की शक्ति इतनी महान् है कि अज्ञान के सागर को पार करने पर अपने दिव्य उपदेशों के द्वारा एक शुद्ध भक्त अन्य व्यक्ति को भी प्रेरित कर सकता है ।
एक शुद्ध भक्त का अपने शिष्य को उपदेश देना भी अत्यन्त सरल होता है । शुद्ध भक्त के पदचिह्नों का अनुसरण करने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होती है । जो श्रीशुकदेव गोस्वामी, यमराज आदि भगवान् के महान् भक्तों की गुरु–परम्परा का अनुसरण करता है, उसे मोक्ष के द्वार सरलतापूर्वक प्राप्त होते हैं । दूसरी ओर वे लोग हैं, जो भक्त नहीं हैं, किन्तु ज्ञान, योग तथा कर्म जैसी आत्म-साक्षात्कार की अनिश्चित प्रक्रियाओं में संलग्न हैं । उन्हें अभी-भी दूषित समझा जाता है । दूषित व्यक्ति यद्यपि आत्म-साक्षात्कार में प्रगतिशील प्रतीत होते हैं, तथापि वे स्वयं को भी मुक्त नहीं कर सकते हैं, फिर उनका अनुसरण करने वाले अन्य लोगों का तो कहना ही क्या ! ऐसे अभक्तों की तुलना खूंटे से बँधे हुए पशु से की गई है, क्योंकि वे एक निश्चित मत की औपचारिकताओं की सीमा से आगे जा सकने में असमर्थ रहते हैं । वेदवाद कह कर भगवद्-गीता में उनकी निन्दा की गई है । वे यह नहीं समझ सकते हैं कि वेद प्रकृति के भौतिक गुणों-रज तम तथा सत-की गतिविधियों के विषय में बताते हैं ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को परामर्श दिया था कि व्यक्ति को वेदों द्वारा निर्धारित कर्तव्यों की सीमा से आगे जाना चाहिए तथा कृष्णभावनामृत अर्थात् भक्ति को अपनाना चाहिए । भगवद्-गीता में कहा गया है, निस्त्रैगुण्यो भावार्जुन, "प्रिय अर्जुन ! वैदिक शास्त्रोक्त विधियों से ऊपर उठने का प्रयास करो ।" वैदिक शास्त्रोक्त विधियों के सम्पादन से आगे की यह दिव्य स्थिति भक्ति है । भगवद्-गीता में भगवान् स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो व्यक्ति विशुद्ध रूप से उनकी भक्ति में संलग्न हैं, वे ब्रम में स्थित हैं । वास्तविक ब्रम-साक्षात्कार का अर्थ है कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में संलग्न रहना । अतएव भक्तगण सच्चे ब्रह्मचारी हैं, क्योंकि उनकी गतिविधियाँ सदैव ही कृष्णभावनामृत अथवा भक्ति में होती है ।
अतएव कृष्णभावनामृत आन्दोलन सभी प्रकार के धर्मवादियों के लिए एक महान् आह्वान है । यह आह्वान अधिकारपूर्वक उन्हें इस आन्दोलन में सम्मिलित होने का निमंत्रण देता है, जिसके द्वारा व्यक्ति भगवान् से प्रेम करने की विधि सीख सकता है तथा इस प्रकार धर्मग्रन्थों के विधि-निषेधों के समस्त सूत्रों तथा औपचारिकताओं का अतिक्रमण कर सकता है । जो व्यक्ति अपरिवर्तनशील धार्मिक सिद्धान्तों की सीमाओं पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता, उसकी तुलना अपने स्वामी द्वारा खूंटे से बाँध दिए गए पशु से की गई है । समस्त धर्मों का प्रयोजन भगवान् को समझना तथा श्रीभगवान् के प्रति अपने सुप्त प्रेम का विकास करना है । यदि कोई व्यक्ति केवल धार्मिक सूत्रों तथा औपचारिकताओं से ही चिपका रहता है तथा ईश्वर के प्रति प्रेम की स्थिति तक उन्नति नहीं करता है, तब उसे खूंटे से बद्ध पशु समझा जाता है । दूसरे शब्दों में, यदि कोई व्यक्ति कृष्णभावनामृत में अवस्थित नहीं है, तब वह भौतिक अस्तित्त्व के दूषणों से मुक्त होने का अधिकारी नहीं होता है ।
श्रील श्रीधर स्वामी ने एक सुन्दर पद की रचना की है, जिसमें कहा है, "अन्य लोगों को कठोर तप में संलग्न रहने दीजिए, उन्हें पर्वत के शिखर से भूमि पर गिर कर प्राणोत्सर्ग करने दीजिए, उन्हें मोक्ष के लिए अनेक तीर्थ स्थानों की यात्रा करने दीजिए, अथवा उन्हें दर्शन तथा वैदिक साहित्य के गहन अध्ययन में संलग्न रहने दीजिए, योगियों को ध्यान मग्न रहने दीजिए तथा विभिन्न मतों को अपने-अपने मत की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए अनावश्यक तर्क-वितर्क में संलग्न रहने दीजिए । किन्तु यह तथ्य है कि जब तक व्यक्ति कृष्णभावनाभावित नहीं होता है, जब तक व्यक्ति भक्ति में संलग्न नहीं होता है तथा जब तक व्यक्ति को श्रीभगवान् की दया प्राप्त नहीं होती है, वह भव-सागर को पार नहीं कर सकता है ।" अतएव बुद्धिमान व्यक्ति समस्त अपरिवर्तशील धारणाओं को त्याग देता है तथा वास्तविक मोक्ष के हेतु कृष्णभावनामृत-आन्दोलन में सम्मिलित हो जाता है ।
मूर्तिमान वेदों ने आगे स्तुति की, "प्रिय भगवन् ! आपके निराकार लक्षण को वेदों में स्पष्ट किया गया है-आपके हाथ नहीं हैं, किन्तु आप अर्पित किए जाने वाले समस्त यज्ञ स्वीकार कर सकते हैं । आपके पैर नहीं है, किन्तु आप किसी से भी अधिक तीव्र गति से चल सकते हैं । यद्यपि आपके नेत्र नहीं हैं, तथापि आप भूत, वर्तमान तथा भविष्य की समस्त घटनाओं को देख सकते हैं । आपके कर्ण नहीं हैं । किन्तु आप कही हुई प्रत्येक बात सुन सकते हैं । यद्यपि आपके मन नहीं है, तथापि आपको प्रत्येक व्यक्ति तथा उसके भूत, वर्तमान तथा भविष्य के समस्त कर्मों का ज्ञान है । फिर भी कोई यह नहीं जानता है कि आप कौन हैं । आप सबको जानते हैं, किन्तु आपको कोई नहीं जानता है, अतएव आप आदि तथा परम-पुरुष हैं ।"
इस भाँति वेदों के एक अन्य भाग में कहा गया है, "आपके लिए कोई कार्य नहीं है । आप अपने ज्ञान तथा शक्ति में इतने पूर्ण हैं कि आपकी इच्छा मात्र से प्रत्येक वस्तु प्रकाशित हो जाती है । आपके बराबर अथवा आपसे बढ़कर कोई नहीं तथा प्रत्येक प्राणी आपके सनातन सेवक के रूप में कार्य कर रहा है ।" इस प्रकार वैदिक कथन वर्णन करते हैं कि परम सत्ता के पैर, हाथ, नेत्र, कर्ण तथा मन नहीं हैं और फिर भी वे अपनी शक्तियों के माध्यम से क्रिया कर सकते हैं तथा समस्त जीवों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं । जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है, भगवान् के हाथ व पैर सर्वत्र हैं, वह सर्वव्यापी है । समस्त जीवों के हाथ, पैर, कर्ण तथा चक्षु जीव के हृदय में स्थित परमात्मा के निर्देशानुसार ही कर्म कर रहे हैं तथा गतिशील हैं । जब तक परमात्मा उपस्थित न हों, हाथ व पैरों का कर्म करना सम्भव नहीं है । किन्तु श्रीभगवान् इतने महान्, स्वतंत्र तथा पूर्ण हैं कि चक्षु, पैर तथा कर्ण के न होने पर भी वे अपनी गतिविधियों के लिए अन्यों पर निर्भर नहीं हैं । इसके विपरीत अपनी विभिन्न इन्द्रियों की गतिविधियों के लिए अन्य लोग ही श्रीभगवान् पर निर्भर हैं । जब तक कि जीव को परमात्मा से प्रेरणा प्राप्त नहीं होती है, वह कर्म नहीं कर सकता है ।
तथ्य यह है कि अन्तत: परम सत्य ही परम पुरुष हैं । किन्तु वे अपनी विभिन्न शक्तियों के माध्यम से कार्य कर रहे हैं, जिन्हें देखना स्थूल भौतिकतावादियों के लिए असम्भव है, अतएव भौतिकतावादी उन्हें निराकार अथवा निर्विशेष मानते हैं । उदाहरण के लिए एक पुष्प के चित्र में हम व्यक्तिगत कलात्मक कौशल देख सकते हैं तथा यह भी समझ सकते हैं कि रंग-संयोजन तथा आकार आदि के चित्रण में कलाकार ने अपना पूर्ण ध्यान लगाया है । विभिन्न खिले हुए पुष्पों के चित्रण में कलाकार का कौशल स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है । किन्तु वास्तविक खिले हुए पुष्पों जैसी कलात्मक अभिव्यक्ति में ईश्वर का हाथ देखे बिना स्थूल भौतिकतावादी यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि परम सत्य निराकार है । वास्तव में परम सत्य साकार है, किन्तु वह स्वतंत्र है । उसे स्वयं रंग व तूलिका उठा कर फूलों में रंग भरने की आवश्यकता नहीं होती है, किन्तु उसकी शक्तियाँ इतने अद्भुत रूप से कार्य कर रही है कि ऐसा प्रतीत होता है कि किसी कलाकार की सहायता बिना पुष्प अपने आप ही उत्पन्न हो गए हैं । अल्प बुद्धि मानव ही परम सत्य के निराकार दृष्टिकोण को स्वीकार करते हैं, क्योंकि जब तक व्यक्ति भगवान् की सेवा में संलग्न नहीं होता है, वह परमेश्वर की कार्य-विधि को नहीं समझ सकता है, वह उनके नाम को भी नहीं जान सकता है । उनकी गतिविधियों तथा व्यक्तिगत लक्षणों के विषय में प्रत्येक बात भक्त के सम्मुख उसकी भक्ति की प्रवृत्ति के माध्यम से ही प्रकट होती है । भगवद्-गीता में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है, भोक्तारं यज्ञ तपसाम्-भगवान् सभी प्रकार के यज्ञों तथा समस्त तपों के फल का भोग करने वाले हैं । भगवान् यह भी कहते हैं, सर्व-लोक-महेश्वरम्-"मैं समस्त लोकों का स्वामी हूँ ।" इस प्रकार यही श्रीभगवान् की स्थिति है । यद्यपि वे वृन्दावन में उपस्थित हैं तथा अपने सनातन संगियों, गोपियों तथा ग्वालबालों, के सान्निध्य में दिव्य सुख का भोग करते हैं, तथापि उनकी शक्तियाँ उनके निर्देशन में सम्पूर्ण सृष्टि में कार्य कर रही हैं । वे उनकी सनातन लीलाओं में व्यवधान नहीं डालती हैं ।
भक्ति के माध्यम से ही व्यक्ति यह समझ सकता है कि अपनी अचिन्त्य शक्तियों के द्वारा श्रीभगवान् किस प्रकार एक ही साथ निराकार तथा साकार रूप में कार्य करते हैं । वे ठीक एक सम्राट की भाँति कार्य कर रहे हैं तथा उनके अन्तर्गत हजारों राजा तथा मुखिया कार्य कर रहे हैं । श्रीभगवान् परम स्वतंत्र नियन्ता हैं तथा ब्रह्माजी, शिवजी, स्वर्ग के राजा इन्द्र, चन्द्र लोक के राजा तथा सूर्यलोक के राजा सहित समस्त देवता उनके निर्देशन में कार्य कर रहे हैं । वेदों में इस बात की पुष्टि की गई है कि श्रीभगवान् के भय के कारण ही सूर्य चमक रहा है, पवन बह रहा है तथा अग्नि ताप वितरित कर रहा है । भौतिक प्रकृति समस्त प्रकार की चल तथा अचल वस्तुओं का उत्पादन कर रही है, किन्तु उनमें से कोई भी स्वतंत्र रूप से, परमेश्वर के निर्देशन के बिना, न तो कुछ निर्माण कर सकती है, न कार्य कर सकती है । जिस प्रकार सम्राट को वार्षिक कर देने वाले अधीनस्थ राजा होते हैं उसी भाँति वे सब् श्रीभगवान् के सहायक के रूप में कार्य कर रही हैं ।
वैदिक निर्देशों में कहा गया है कि प्रत्येक जीव श्रीभगवान् को अर्पित किए गए भोजन के शेषांश को खा कर जीवित रहता है । महान् यज्ञों के विषय में विधान है कि यज्ञ के अधिष्ठाता देवता के रूप में श्रीनारायण को उपस्थित रहना चाहिए तथा यज्ञ के सम्पादित होने के पश्चात् भोजन का शेषांश देवताओं में वितरित किया जाता है । इसे यज्ञ-भाग// कहते हैं । प्रत्येक देवता के लिए एक निश्चित यज्ञ-भाग होता है, जिसे वह प्रसाद के रूप में स्वीकार करता है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि देवतागण स्वतंत्ररूप से शक्तिमान नहीं हैं । श्रीभगवान् के आदेश के अन्तर्गत उन्हें विभिन्न अधिकारियों के रूप में नियुक्त किया गया है तथा वे प्रसाद अथवा यज्ञों के शेषांश का भक्षण कर रहे हैं । वे परमेश्वर के आदेशों को ठीक उनके योजनानुसार कार्यान्वित कर रहे हैं । श्रीभगवान् पृष्ठभूमि में हैं तथा अन्य लोग उनके आदेशों को कार्यान्वित कर रहे हैं । यह केवल प्रतीत होता है कि वे निराकार हैं, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । अपनी पूर्णरूपेण भौतिकतावादी विधि से हम यह सोच भी नहीं सकते हैं कि परमेश्वर किस प्रकार भौतिक प्रकृति की निर्विशेष गतिविधियों से ऊपर हैं । अतएव भगवान् भगवद्-गीता में स्पष्ट करते हैं कि उनसे श्रेष्ठ और कुछ नहीं है तथा उनकी व्यक्तिगत किरणों के प्रकाश के रूप में निराकार ब्रम उनके अधीनस्थ रूप में स्थित है । श्रीपाद श्रील श्रीधर स्वामी ने इस सम्बन्ध में एक श्रेष्ठ पद की रचना की है, "मैं श्रीभगवान् को सादर प्रणाम करता हूँ, जो स्वयं भौतिक इन्द्रिय-विहीन हैं, किन्तु जिनके निर्देश तथा इच्छा के माध्यम से समस्त भौतिक इन्द्रियाँ क्रियाशील हैं । वे समस्त भौतिक इन्द्रियों की परम शक्ति हैं । वे सर्वशक्तिमान हैं तथा वे प्रत्येक कार्य के परम कर्ता हैं । अतएव वे सबके उपास्य हैं । उन परम पुरुष को मैं सादर प्रणाम करता हूँ ।" भगवद्-गीता में श्रीकृष्ण ने स्वयं भी घोषणा की है कि वे पुरुषोत्तम हैं, जिसका अर्थ है परम पुरुष । पुरुष का अर्थ है व्यक्ति तथा उत्तम का अर्थ है परम अथवा दिव्य । भगवद्-गीता में भगवान् ने यह भी कहा है कि समस्त जड़ तथा जीवों से ऊपर होने के कारण वे पुरुषोत्तम के नाम से विख्यात हैं । एक अन्य स्थान पर भगवान् कहते हैं, जैसे वायु सर्वव्यापी आकाश में स्थित है, उसी भाँति प्रत्येक प्राणी उनमें स्थित है तथा प्रत्येक व्यक्ति उनके निर्देशन में कार्य कर रहा है ।
मूर्तिमान् वेदों ने आगे स्तुति की, "प्रिय भगवन् ! आप सबके प्रति सम भाव रखते हैं । किसी विशेष जीव के प्रति आप पक्षपात नहीं करते हैं । आपके अंश के रूप में जीव जीवन की विभिन्न दशाओं में सुख अथवा दुःख भोगते हैं । वे ठीक अग्नि के स्फुलिंग की भाँति हैं । जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि पर स्फुलिंग नृत्य करते हैं, उसी भाँति समस्त जीव आपके पोषण के भरोसे पर नृत्य कर रहे हैं । आप उन्हें उनकी इच्छित प्रत्येक वस्तु उपलब्ध करा देते हैं, तथापि आप उनकी सुख अथवा दुःख की दशा के लिए उत्तरदायी नहीं हैं । जीव विभिन्न प्रकार के होते हैं यथा देवता, मानव, पशु, वृक्ष, पक्षी, वन्य पशु, कीड़े, मकोड़े, कीटाणु तथा जलचर । वे सब आप पर आश्रित होने से सुख अथवा दुःख भोग रहे हैं । जीव दो प्रकार के होते हैं-एक वर्ग को नित्य-मुक्त कहते हैं तथा दूसरे वर्ग को नित्य-बद्ध कहते हैं । नित्य-मुक्त जीव आध्यात्मिक लोक में हैं तथा नित्य-बद्धजीव इस भौतिक जगत् में हैं ।
"आध्यात्मिक जगत् में भगवान् तथा जीव दोनों ही ज्वलन्त अग्नि में जलते हुए स्फुलिंगों की भाँति अपनी मौलिक वस्तु-स्थिति में प्रकाशित होते हैं । यद्यपि भगवान् अपने निराकार लक्षण में सर्वव्यापी हैं, किन्तु भौतिक जगत् में जीवों ने अपने कृष्णभावनामृत को विस्मृत कर दिया है जैसे कि प्रज्ज्वलित अग्नि से कभीकभी स्फुलिंग गिर पड़ते हैं तथा अपनी मौलिक जगमगाहट को खो देते हैं । कोई-कोई स्फुलिंग सूखी हुई घास पर गिर जाते हैं तथा इस प्रकार एक अन्य अग्नि को प्रज्ज्वलित कर देते हैं । यहाँ पर यह बात शुद्ध भक्तों के सम्बन्ध में कही गई है, जो कि दीन एवं निर्दोष जीवों पर दयालु हो जाते हैं । शुद्ध भक्त बद्धात्माओं के हृदय में कृष्णभावनामृत की ज्योति जलाते हैं और इस प्रकार आध्यात्मिक जगत् की प्रज्ज्वलित अग्नि भौतिक जगत् में भी प्रकाशित हो जाती है । कुछ स्फुलिंग जल में गिर पड़ते हैं और तत्काल अपनी मौलिक प्रभा को खो कर लगभग बुझ जाते हैं । इसकी तुलना उन जीवों से की जा सकती है, जो पूर्णरूप से भौतिकतावादी लोगों के मध्य जन्म लेते हैं, जिस दशा में उनका मौलिक कृष्णभावनामृत लगभग बुझ जाता है । कुछ स्फुलिंग धरती पर गिर जाते हैं तथा ज्वलन्त एवं बुझी हुई दशाओं के मध्य स्थित रहते हैं । इस प्रकार कुछ जीव कृष्णभावनामृत से रहित होते हैं, कुछ कृष्णभावनामृत युक्त तथा उससे रहित होने की अवस्था के मध्य रहते हैं तथा कुछ वास्तविक रूप से कृष्णभावनामृत में अवस्थित होते हैं । ब्रह्माजी से लेकर इन्द्र, चन्द्र, सूर्यदेव, चन्द्रदेव तथा अन्य अनेक उच्चतर लोकों में निवास करने वाले देवता, सभी कृष्णभावनाभावित हैं । मानव-समाज देवताओं तथा पशुओं के मध्य में है, अतएव कुछ मानव कुछ अधिक कृष्णभावनाभावित हैं तथा कुछ मानवों को कृष्णभावनामृत पूर्णरूपेण विस्मृत हो गया है । तृतीय श्रेणी के जीवन जैसे पशु, वृक्ष आदि तथा जलजीवों ने कृष्णभावनामृत को पूर्ण रूप से विस्मृत कर दिया है । वेदों में कथित प्रज्ज्वलित अग्नि के स्फुलिंगों का यह उदाहरण विभिन्न प्रकार के जीवों की दशा को समझने के लिए अत्यन्त उपयुक्त है । किन्तु समस्त जीवों के ऊपर श्रीभगवान्, श्रीकृष्ण अथवा पुरुषोत्तम हैं, जो कि सदैव ही समस्त भौतिक दशाओं से मुक्त हैं ।
"अब यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि जीव क्यों दैवयोग से जीवन की विभिन्न दशाओं में पतित हुए हैं । इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें पहले यह समझना आवश्यक है कि जीवों के लिए दैवयोग का कोई प्रभाव नहीं हो सकता है । दैवयोग निर्जीवों के लिए है । वैदिक साहित्य के अनुसार जीवों को ज्ञान होता है और इस प्रकार उन्हें चैतन्य कहा जाता है, जिसका अर्थ है, वह व्यक्ति जो ज्ञान में स्थित हो । अतएव जीवन की विभिन्न दशाओं में उनकी स्थिति आकस्मिक नहीं है । यह स्थिति उनके अपने चयन के द्वारा है, क्योंकि उन्हें ज्ञान है । भगवद्-गीता में भगवान् कहते हैं, “सबकुछ त्याग कर मेरी शरण में आ जाओ ।" श्रीभगवान् के साक्षात्कार की यह प्रक्रिया सबके लिए उपलब्ध है, किन्तु इस प्रस्ताव को स्वीकार अथवा अस्वीकार करना जीव-विशेष का अपना चयन है । भगवद्-गीता के अन्तिम भाग में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से अत्यन्त स्पष्ट रूप से कहा है, "प्रिय अर्जुन ! अब मैंने तुमसे सब कुछ कह दिया है । अब सब कुछ इस पर ही निर्भर करता है कि तुम स्वीकार करना चाहते हो अथवा नहीं ।" इसी भाँति इस जगत् में आए हुए जीवों ने इस भौतिक जगत् के सुखोपभोग करने का चयन कर लिया है । ऐसा नहीं है कि श्रीकृष्ण ने उन्हें इस भौतिक जगत् में भेजा है । भौतिक जगत् की सृष्टि उन जीवों के भोग के लिए की हुई है, जो स्वयं ही परम भोक्ता बनने के लिए भगवान् की सनातन सेवा को त्यागना चाहते थे । वैष्णव दर्शन के अनुसार जब जीव भगवान् की सेवा को विस्मृत कर देता है तथा अपनी इन्द्रियों की तृप्ति की कामना करता है, तब उसे अपनी इच्छानुसार स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिए भौतिक जगत् में स्थान दे दिया जाता है । इस प्रकार वह जीवन की ऐसी दशा का निर्माण करता है, जिसमें वह या तो सुख भोगता है अथवा दुःख । हमें यह निश्चित रूप से ज्ञात होना चाहिए कि भगवान् तथा जीव शाश्वत रूप से सचेत हैं । भगवान् अथवा जीवों के लिए न तो कोई जन्म है न मृत्यु । जब सृष्टि की रचना होती है, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि जीवों की रचना होती है । बद्धात्माओं को कृष्णभावनामृत के उच्चतर स्तर तक अपना उत्कर्ष करने का अवसर प्रदान करने के लिए भगवान् इस भौतिक जगत् की सृष्टि करते हैं । यदि बद्धात्मा इस अवसर का लाभ नहीं उठाती है, तो इस भौतिक जगत् के प्रलय के उपरान्त वह नारायण के शरीर में प्रवेश करती है तथा दूसरी सृष्टि के समय तक प्रगाढ़ निद्रा में वहीं रहती है ।
"इस सम्बन्ध में वर्षा ऋतु का उदाहरण अत्यन्त उपयुक्त है । ऋतु के अनुरूप वर्षा को सृष्टि के कर्ता के रूप में लिया जा सकता है, क्योंकि वर्षा के उपरान्त भीगे हुए खेत विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों के उत्पादन के लिए अनुकूल होते हैं । उसी भाँति भगवान् के भौतिक प्रकृति पर दृष्टिपात के द्वारा जैसे ही सृष्टि होती है वैसे ही जीव तत्काल ही जीवन की अपनी विभिन्न दशाओं में प्रकट हो जाते हैं । यह ठीक वैसा ही है जैसे कि वर्षा के उपरान्त विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ उग जाती हैं । वर्षा तो एक ही है, किन्तु विभिन्न वनस्पतियों की रचना में वैभिन्य है । पूरे खेत पर वर्षा एक-सी ही होती है, किन्तु बोए हुए बीजों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूप व आकार में भिन्न-भिन्न सब्जियाँ उग जाती हैं । इसी भाँति हमारी इच्छाओं के बीज भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं । प्रत्येक जीव की इच्छा एक भिन्न प्रकार की होती है तथा वह इच्छा ही वह बीज है, जो एक विशेष प्रकार के शरीर में उसके विकास का कारण बनता है । श्रीरूप गोस्वामी ने इसे पाप-बीज शब्द के द्वारा स्पष्ट किया है । हमारी समस्त भौतिक इच्छाओं को पाप-बीज समझना चाहिए । भगवद्-गीता में स्पष्ट किया गया है कि वह पापपूर्ण इच्छा अथवा पाप-बीज यह है कि हम भगवान् की शरण में नहीं जाते हैं । अतएव भगवद्-गीता में भगवान् कहते हैं, “मैं तुम्हें पापेच्छा के कर्मफल से सुरक्षा प्रदान करूंगा ।" इन पापेच्छाओं का विस्तार विभिन्न प्रकार के शरीरों में होता है । अतएव कोई भी परमेश्वर पर यह दोषारोपण नहीं कर सकता है कि उन्होंने एक जीव को एक विशेष प्रकार का शरीर प्रदान किया है तथा दूसरे जीव को दूसरे प्रकार का । चौरासी लाख योनियों के समस्त शरीर जीव विशेष की मानसिक दशा के अनुसार आते हैं । श्रीभगवान् पुरुषोत्तम जीवों को उनके इच्छानुसार कार्य करने का अवसर-मात्र प्रदान करते हैं । अतएव ईश्वर-प्रदत सुविधाओं का लाभ उठाते हुए जीव कर्म कर रहे हैं ।
"साथ ही साथ उनका जन्म भगवान् के दिव्य विग्रह से हुआ है । वैदिक साहित्य में जीवों तथा भगवान् के मध्य इस सम्बन्ध को स्पष्ट किया गया है । वहाँ कहा गया है कि अपनी समस्त सन्तानों को उनकी अभीप्सित वस्तु देकर परमेश्वर उन सबका पालन करते हैं । इसी भाँति भगवद्-गीता में भगवान् कहते है, “मैं समस्त जीवों का बीज प्रदान करने वाला पिता हूँ ।" यह समझना अत्यन्त सरल है कि पिता सन्तान को जन्म देता है, किन्तु सन्तान अपनी इच्छानुसार कार्य करती है । अतएव अपनी सन्तानों के भिन्न-भिन्न भविष्य के लिए पिता कभी भी उत्तरदायी नहीं है प्रत्येक सन्तान अपने पिता की सम्पत्ति तथा उपदेशों का लाभ उठा सकती है । किन्तु यद्यपि उत्तराधिकार तथा उपदेश समस्त सन्तानों के लिए एक ही है, तथापि अपनी भिन्न-भिन्न इच्छाओं के कारण प्रत्येक सन्तान एक भिन्न जीवनपद्धति का निर्माण करती है तथा उसके द्वारा सुख अथवा दुःख भोगती है ।
"उसी भाँति भगवद्-गीता का उपदेश सबके लिए बराबर है । प्रत्येक व्यक्ति को परमेश्वर की शरण ग्रहण करनी चाहिए तथा वे उसका भार ग्रहण करके पापों से उसकी रक्षा करेंगे । भगवान् की सृष्टि में जीने की सुविधाएँ समस्त जीवों को समान रूप से प्राप्त हैं । आकाश में, जल पर अथवा पृथ्वी पर जो कुछ भी है, वह समस्त जीवों को समान रूप से दिया गया है । समस्त जीव परमेश्वर की सन्तानें हैं, अतएव प्रत्येक जीव ईश्वरप्रदत्त भौतिक सुविधाओं का सुखोपभोग कर सकता है । किन्तु दुर्भाग्यवश परस्पर युद्ध करने के द्वारा जीव जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्माण कर लेते हैं । इस युद्ध तथा जीवन की अनुकूल एवं प्रतिकूल स्थितियों के निर्माण का उत्तरदायित्व श्रीभगवान् पर नहीं, अपितु जीवों पर है । अतएव यदि जीव भगवद्-गीता में दिए गए भगवान् के उपदेशों का लाभ उठाएँ एवं कृष्णभावनामृत का विकास करें, तब जीवन उदात्त बन जाएँगे तथा वे अपने घर, भगवान् के धाम, लौट सकेंगे ।
"कोई तर्क कर सकता है कि यह भौतिक जगत् भगवान् द्वारा निर्मित है, अतएव वे ही इसकी स्थिति के लिए उत्तरदायी हैं । निश्चय ही वे इस भौतिक जगत् की सृष्टि तथा इसके पालन के लिए परोक्ष रूप से उत्तरदायी हैं, किन्तु जीवों की विभिन्न स्थितियों के लिए वे कदापि उत्तरदायी नहीं हैं । भगवान् के द्वारा इस भौतिक जगत् की रचना की तुलना मेघों द्वारा वनस्पति की सृष्टि से की गई है । वर्षा ऋतु में मेघ धरती पर जल वर्षा करता है, किन्तु यह प्रत्यक्ष रूप से कभी-भी धरती का स्पर्श नहीं करता है । उसी भाँति भगवान् भौतिक शक्ति पर केवल दृष्टिपात करके इस भौतिक जगत् की सृष्टि करते हैं । इस तथ्य की पुष्टि वेदों में भी की गई है । “भगवान् ने भौतिक प्रकृति पर दृष्टिपात किया और इस प्रकार सृष्टि हुई ।” भगवद्-गीता में इस तथ्य की पुष्टि भी की गई है कि भौतिक प्रकृति पर अपने दिव्य दृष्टि-निक्षेप के द्वारा भगवान् चर तथा अचर जीवित एवं मृत आदि भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवों की सृष्टि करते हैं ।
"अतएव इस भौतिक जगत् की सृष्टि को भगवान् की एक लीला के रूप में लिया जा सकता है । जब कभी-भी उनकी इच्छा होती है, भगवान् इस भौतिक जगत् की रचना करते हैं, अतएव इसे भगवान् की एक लीला कहा गया है । श्रीभगवान् की यह इच्छा उनकी महती दया भी है, क्योंकि यह बद्धात्माओं को अपनी मौलिक चेतना का विकास करने तथा भगवान् के धाम लौटने का एक और अवसर प्रदान करती है । अतएव कोई भी परमेश्वर को इस भौतिक जगत् की सृष्टि करने के लिए दोषी नहीं ठहरा सकता है ।
"विचाराधीन विषयवस्तु से हम निराकारवादी तथा साकारवादियों के मतभेद को स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं । निराकारवादी धारणा परम सत्ता के अस्तित्त्व में लीन हो जाने को कहती है तथा शून्यवादी दर्शन समस्त भौतिक भिन्नताओं को शून्य कर देने (अथवा नकारने) को कहता है । यह दोनों ही दर्शन मायावाद के नाम से प्रसिद्ध हैं । निश्चय ही जब जीव एक अन्य सृष्टि होने तक विश्राम करने के लिए नारायण के शरीर में लीन हो जाते हैं, सृष्टि का अन्त होकर शून्य हो जाता है तथा इसे एक निराकार स्थिति कहा जा सकता है, किन्तु ये दशाएँ कभी-भी नित्य नहीं होती हैं । भौतिक जगत् की विविधता-विचित्रता की समाप्ति तथा अपने जीवों का परम सत्ता के शरीर में लय होना स्थायी नहीं है, क्योंकि सृष्टि पुन: होगी तथा अपनी कृष्णभावनामृत का विकास किए बिना जो जीव परम सत्ता के शरीर में लीन हो जाते हैं, वे एक और सृष्टि होने पर पुन: इस भौतिक जगत् में प्रकट होंगे । भगवद्-गीता इस तथ्य की पुष्टि करती है कि इस भौतिक जगत् की सृष्टि तथा विनाश होता रहता है । यह क्रम निरन्तर चलता रहता है तथा जब-जब भौतिक सृष्टि होती है कृष्णभावनामृत रहित बद्धात्माएँ पुन: पुन: भौतिक जगत् में आती रहती हैं । यदि ऐसी बद्धात्माएँ इस अवसर का लाभ उठाकर, भगवान् के प्रत्यक्ष उपदेश के अन्तर्गत कृष्णभावनामृत का विकास करती हैं, तो वे अध्यात्म लोक को चली जाती हैं तथा उन्हें पुन: इस भौतिक सृष्टि में नहीं आना पड़ता है । अतएव कहा गया है कि शून्यवादी तथा निराकारवादी बुद्धिमान नहीं हैं, क्योंकि वे भगवान् के चरणारविन्दों में शरण नहीं ग्रहण करते हैं । अल्पबुद्धि होने के कारण ये शून्यवादी तथा निराकारवादी जीवन की भौतिक दशा की समाप्ति, अर्थात् निर्वाण की स्थिति अथवा भगवान् के शरीर में लीन होने के द्वारा उनसे एकीकरण प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार की तपस्या का अवलम्बन लेते हैं । वे सभी पुन: पतित हो जाते हैं, क्योंकि वे भगवान् के चरणकमलों की उपेक्षा करते हैं ।"
चैतन्य चरितामृत के रचयिता श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी ने समस्त वैदिक साहित्य के अध्ययन तथा समस्त महात्माओं के विचारों का श्रवण करने के उपरान्त अपना मत दिया है कि श्रीकृष्ण ही एकमात्र परम स्वामी हैं तथा समस्त जीव उनके नित्य दास हैं । मूतिमान् वेदों की स्तुति में उनके कथन की पुष्टि की गई है । अत: निष्कर्ष यह निकलता है कि प्रत्येक व्यक्ति श्रीभगवान् के नियंत्रण में है, प्रत्येक व्यक्ति भगवान् के परम निर्देश के अन्तर्गत सेवा कर रहा है तथा प्रत्येक व्यक्ति श्रीभगवान् से भयभीत है । उनके ही भय से कार्य उचित रीति से किए जा रहे हैं । सब की स्थिति परमेश्वर के अधीन है, तथापि जीवों के प्रति भगवान् के दृष्टिकोण में कोई पक्षपात नहीं है । भगवान् अनन्त आकाश की भाँति हैं । जिस प्रकार अग्नि में अग्निकण नाचते हैं, उसी भाँति समस्त जीव अनन्त आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की भाँति हैं । उनमें से कुछ अत्यधिक ऊँचे उड़ रहे हैं, कुछ उससे कम ऊँचाई पर उड़ रहे हैं तथा कुछ उससे भी कम ऊँचाई पर उड़ रहे हैं । अपनी-अपनी उड़ान की क्षमता के अनुसार भिन्न-भिन्न पक्षी भिन्न-भिन्न स्थितियों में उड़ रहे हैं, किन्तु इस क्षमता से आकाश का कोई सम्बन्ध नहीं है । भगवद्गीता में भी भगवान् इसकी पुष्टि करते हैं कि वे विभिन्न जीवों को उनकी शरणागति के अनुसार स्थितियाँ प्रदान करते हैं । श्रीभगवान् के द्वारा जीवों को यह आनुपातिक पुरस्कार पक्षपात नहीं है । अतएव विभिन्न दशाओं, विभिन्न लोकों तथा विभिन्न योनियों में जीवों के स्थित होने पर भी वे समस्त जीव सदैव ही श्रीभगवान् के नियंत्रण के अधीन हैं और फिर भी भगवान् उनके जीवन की विभिन्न दशाओं के लिए कदापि उत्तरदायी नहीं हैं । अतएव स्वयं को परमेश्वर के बराबर समझना बनावट तथा मूर्खता है । उससे भी अधिक मूर्खता यह सोचना है कि किसी ने ईश्वर के दर्शन नहीं किए हैं । प्रत्येक व्यक्ति भगवान् के विभिन्न रूपों में उनके दर्शन कर रहा है । अन्तर केवल इतना ही है कि आस्तिक व्यक्ति भगवान् के दर्शन परम प्रिय श्रीकृष्ण, श्रीभगवान् के रूप में करता है तथा नास्तिक व्यक्ति परम सत्य का दर्शन मृत्यु के रूप में करता है ।" मूर्तिमान् वेदों ने आगे स्तुति की, "प्रिय भगवन् ! समस्त वैदिक ज्ञान से यह समझ में आ जाता है कि आप परम नियन्ता हैं तथा समस्त जीव नियंत्रित हैं । भगवान् तथा जीव दोनों को ही नित्य कहा जाता है और इस प्रकार गुणवत्ता में वे एक ही हैं । फिर भी एक नित्य है अथवा परमेश्वर नियन्ता हैं, जबकि अनेक नित्य नियंत्रित हैं । विशेष, नियंत्रित जीव शरीर में निवास करता है तथा परम नियन्ता भी परमात्मा के रूप में वहाँ उपस्थित हैं, किन्तु परमात्मा जीवात्मा का नियंत्रण कर रहे हैं ।
वेदों का यही निर्णय है । यदि जीवात्मा परमात्मा के द्वारा नियंत्रित न हो तब वेदों के इस मत की व्याख्या किस प्रकार कर सकते हैं कि अपने पूर्वकर्मों के फल का सुख अथवा दुःख भोगते हुए जीव एक देह से दूसरे देह में देहान्तरण करता है । कभी-कभी उसका उत्कर्ष जीवन के उच्चतर स्तर तक हो जाता है तथा कभी-कभी उसकी अवनति जीवन के निम्नतर स्तर तक हो जाती है । इस प्रकार बद्धात्माएँ न केवल परमेश्वर के नियंत्रण के अन्तर्गत हैं, अपितु वे भौतिक प्रकृति के नियंत्रण द्वारा भी बद्ध हैं । परमेश्वर के साथ जीवों का यह नियंत्रित तथा नियन्ता का सम्बन्ध निश्चित रूप से यह सिद्ध कर देता है कि यद्यपि परमात्मा सर्वव्यापक हैं, किन्तु जीवात्माएँ कदापि सर्वव्यापक नहीं हैं । यदि जीवात्माएँ सर्वव्यापक होतीं तब उनके नियंत्रित होने का प्रश्न ही नहीं उठता । अतएव यह सिद्धान्त कि परमात्मा एवं जीवात्मा एकसमान हैं, एक दूषित निष्कर्ष है तथा कोई भी समझदार व्यक्ति इसे स्वीकार नहीं करता है । इसके विपरीत व्यक्ति को परम नित्य तथा गौण नित्य के मध्य भेद को समझने का प्रयास करना चाहिए ।" अतएव मूर्तिमान् वेदों ने निष्कर्ष के रूप में कहा, "हे भगवन् ! आप तथा सीमित ध्रुवगण अर्थात् जीव दोनों ही नित्य हैं । कभी-कभी अनन्त नित्य को विश्वरूप में देख-जाता है तथा उपनिषदों जैसे वैदिक साहित्य में सीमित नित्य के रूप का स्पष्ट वर्णन किया गया है । उसमें कहा गया है कि जीव का मौलिक आध्यात्मिक रूप एक बाल की नोक के आकार का दस हजारवाँ भाग होता है । कहा गया है कि आत्मा विशालतम से भी विशाल तथा लघुतम से भी लघु होती है । भगवान् के नित्यअंश जीवात्माएँ लघुतम से भी लघु हैं । अपनी भौतिक इन्द्रियों से हम न तो महान्तम से महान् परमात्मा के दर्शन कर सकते हैं न ही लघुतम से लघु जीवात्मा के । महान्तम तथा लघुतम दोनों को ही हमें वैदिक साहित्य के अधिकारी स्रोतों से समझना पड़ता है । वैदिक साहित्य में कहा गया है कि जीव के शरीर में आसीन परमात्मा अँगूठे के बराबर बड़ा है । अतएव यह तर्क प्रस्तुत किया जा सकता है कि अँगूठे के आकार की कोई वस्तु चींटे के हृदय में किस प्रकार रह सकती है । इसका उत्तर यह है कि परमात्मा को अँगूठे के आकार से नापने की कल्पना जीव के शरीर के अनुपात में की गई है । अतएव यद्यपि दोनों ही एक जीव के भौतिक शरीर में प्रवेश करते हैं, तथापि समस्त परिस्थितियों में जीव तथा परमात्मा को एक नहीं माना जा सकता है । शरीर में निवास करने वाले परमात्मा का कार्य जीव पर नियंत्रण रखना या सदैव ही उसका निर्देशन करना है । यद्यपि दोनों ही ध्रुव अर्थात् नित्य हैं, तथापि जीव सदैव ही परमात्मा के निर्देशन के अन्तर्गत रहता है ।
“यह तर्क किया जा सकता है कि भौतिक प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण समस्त जीव एकसमान तथा स्वतंत्र हैं । किन्तु वैदिक साहित्य में यह कहा गया है कि श्रीभगवान् भौतिक प्रकृति को जीवों से पूरित करते हैं और तत्पश्चात् बाहर आ जाते हैं । अतएव एक स्त्री द्वारा उत्पादित सन्तान उसका स्वतंत्र उत्पादन नहीं है । उसी भाँति जीवात्माओं का प्राकट्य, तथ्यत: केवल भौतिक प्रकृति के कारण ही नहीं होता है । पहले एक पुरुष द्वारा स्त्री का गर्भाधान किया जाता है और तब सन्तान उत्पन्न होती है । स्त्री द्वारा उत्पन्न सन्तान पुरुष का अंश होती है । इसी भाँति प्रकट रूप में जीवों की उत्पत्ति भौतिक प्रकृति के द्वारा होती है, किन्तु यह क्रिया स्वतंत्र रूप से नहीं होती है । परम पिता के द्वारा भौतिक प्रकृति के गर्भाधान के कारण ही जीवों की उपस्थिति सम्भव है । अतएव यह तर्क कि जीव परमात्मा के अंश नहीं हैं, सिद्ध नहीं होता है । उदाहरणार्थ, शरीर के विभिन्न अंशों को पूर्ण शरीर के रूप में नहीं लिया जा सकता है । इसके विपरीत पूर्ण शरीर विभिन्न अंगों को नियंत्रण में रखता है । इसी भाँति परम पूर्ण के अंश सदैव ही उस पर निर्भर रहते हैं तथा सदैव ही अंशों के उद्गम के द्वारा नियंत्रित होते हैं । भगवद्-गीता में इस तथ्य की पुष्टि की गई है कि जीव श्रीकृष्ण के ही अंश हैं-ममैवांशो/ अतएव कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करेगा कि परमात्मा तथा जीवात्मा एक ही वर्ग के हैं । गुणवत्ता में वे समान हैं, किन्तु परिमाण में परमात्मा सदैव ही सर्वोत्कृष्ट है तथा जीवात्मा सदैव ही परमात्मा के अधीन है । वेदों का यही निष्कर्ष है ।"
इस सम्बन्ध में प्रयुक्त दो अर्थपूर्ण शब्द हैं- यन्मय तथा चिन्मय/ संस्कृत व्याकरण में मयत् शब्द का प्रयोग रूपान्तर तथा यथेष्ठता के अर्थ में किया गया है । मायावादी दार्शनिक यह अर्थ निकालते हैं कि यन्मय अथवा चिन्मय का संकेत यह है कि जीव सदैव ही परमात्मा के समान है । किन्तु हमें यह विचार करना है कि मयन् उपसर्ग का प्रयोग यथेष्ठता के लिए हुआ है अथवा रूपान्तर के लिए । जीव के पास कुछ भी ठीक उसी अनुपात में नहीं होता है, जिस अनुपात में वह श्रीभगवान् के पास होता है । अतएव मयत् उपसर्ग का प्रयोग इस अर्थ में नहीं किया जा सकता है कि जीव "स्वयं-पूर्ण" है । जीव के पास कभी-भी पूर्ण ज्ञान नहीं होता है, अन्यथा वह माया अथवा भौतिक शक्ति के नियंत्रण के अन्तर्गत किस प्रकार आ सकता था ? अतएव "पूर्ण" शब्द को जीव के महत्त्व के अनुपात में ही स्वीकार किया जा सकता है । परमेश्वर तथा जीव की आध्यात्मिक एकता को कदापि समानता के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है । प्रत्येक जीव एक विशिष्ट व्यक्तित्व का स्वामी होता है । यदि समानता को स्वीकार कर लिया जाए तब एक जीवात्मा के मुक्त होने के द्वारा ही अन्य सब जीवात्माएँ मुक्त हो गई होतीं । किन्तु तथ्य यह है कि प्रत्येक विशिष्ट जीवात्मा भौतिक जगत् में भिन्न-भिन्न प्रकार से सुख और दुःख भोग रही है ।
"मयत्" शब्द का प्रयोग रूपान्तर के अर्थ में भी किया जाता है, अथवा कभी-कभी इसका प्रयोग अप्रधान रचना के अर्थ में भी किया जाता है । निर्विशेषवादियों का सिद्धान्त है कि स्वयं ब्रम ने भिन्न-भिन्न प्रकार की देहों को स्वीकार किया है तथा यह उसकी लीला है । किन्तु जीवन की दशाओं के विभिन्न स्तरों में सैकड़ों व हजारों योनियाँ हैं, जैसे कि मानव, देवता, पशु, पक्षी तथा वन्य पशु । यदि वे सभी परम पूर्ण सत्य के विस्तार होते तब मोक्ष का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि ब्रम पहले से ही मुक्त है । मायावादियों द्वारा प्रस्तुत एक और अर्थ यह है कि प्रत्येक मन्वन्तर में विभिन्न प्रकार के शरीर अभिव्यक्त होते हैं और जब मन्वन्तर का अन्त होता है, तब भिन्न-भिन्न प्रकार के सारे शरीर अथवा ब्रम के विस्तार अपने आप एक हो जाते हैं, जिससे भिन्न-भिन्न प्रकार की समस्त अभिव्यक्तियों का अन्त हो जाता है । यदि हम इस सिद्धान्त को स्वीकार करें, तो ब्रम परिवर्तनशील हो जाता है । किन्तु यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है । वेदान्त-सूत्र से हमें ज्ञात होता है कि ब्रम स्वभाव से आनन्दमय है । अतएव वह अपने को दुःखमय परिस्थितियों का भागी होने वाले शरीर में परिवर्तित नहीं कर सकता है । वस्तुत: ब्रम के अंश जीव अतिसूक्ष्म कण हैं, जिन्हें माया ने आच्छादित कर लिया है । जैसाकि पहले भी स्पष्ट किया गया है, ब्रम के कण अग्नि में आनन्दपूर्वक नृत्य करते हुए स्फुलिंगों के समान हैं । किन्तु उनके अग्नि से धूम्र में पतित हो जाने का भय है । यद्यपि धूम्र भी अग्नि की ही एक अन्य स्थिति है, किन्तु यह अग्नि नहीं है । यह भौतिक जगत् ठीक धूम्र की भाँति है तथा आध्यात्मिक जगत् ठीक प्रज्ज्वलित अग्नि की भाँति है । जब वे माया से प्रभावित होते हैं तब असंख्य जीव आध्यात्मिक जगत् से भौतिक जगत् तक पतित हो जाते हैं । जब वास्तविक ज्ञान के विकास के द्वारा जीव पूर्णरूप से भौतिक जगत् के दूषणों से निर्मल हो जाता है, तब उसके लिए पुनः मुक्त हो जाना भी सम्भव है ।
असुरों का यह सिद्धान्त है कि भौतिक प्रकृति अथवा प्रकृति से पुरुष के संयोग से जीवों का जन्म होता है । इस सिद्धान्त को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि श्रीभगवान् तथा प्रकृति दोनों का ही नित्य अस्तित्त्व है । प्रकृति अथवा श्रीभगवान् में से कोई भी उत्पन्न नहीं हो सकता है । परमेश्वर को अज के रूप में जाना जाता है । इसी के समान प्रकृति को भी अजा कहा जाता है । प्रकृति तथा परमेश्वर दोनों ही अजन्मा हैं, अतएव उनसे जीवों की उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है । जिस प्रकार वायु के सम्पर्क में आने पर कभी-कभी जल में असंख्य बुलबुले दीखते हैं, उसी प्रकार श्रीभगवान् एवं भौतिक प्रकृति के संयोग से इस भौतिक जगत् में जीवों का प्रादुर्भाव होता है । जिस प्रकार जल में विभिन्न आकारों के बुलबुले प्रकट होते हैं, उसी भाँति भौतिक प्रकृति के गुणों से प्रभावित होकर जीव भी इस भौतिक जगत् में विभिन्न आकारों तथा स्थितियों में प्रकट होते हैं । अतएव यह निष्कर्ष निकालना अनुचित न होगा कि मानवों, देवताओं, पशु, पक्षियों तथा वन्य पशुओं आदि जैसे विभिन्न आकारों में इस भौतिक जगत् में प्रकट होने वाले सभी जीव अपनी भिन्न-भिन्न इच्छाओं के कारण अपने-अपने शरीर को प्राप्त करते हैं । कोई यह नहीं कह सकता है कि उनमें ये इच्छाएँ कब जाग्रत् हुई थीं, अतएव कहा गया है, "अनादि-कर्म"-ऐसे भौतिक अस्तित्त्व का कारण खोजना सम्भव नहीं है । यह किसी का प्रारम्भ बिन्दु अवश्य है, क्योंकि मौलिक रूप से प्रत्येक जीव एक चित्कण है । जिस भाँति अग्नि से भूमि पर गिरने वाले स्फुलिंग का एक प्रारम्भ होता है, उसी भाँति इस भौतिक जगत् में आने वाले जीवों का भी एक आदि अथवा प्रारम्भ होता है, किन्तु यह प्रारम्भ कब हुआ यह कोई नहीं कह सकता । प्रलय के समय भी ये जीव, गहन निद्रामग्न की भाँति भगवान् के आध्यात्मिक अस्तित्त्व में लीन रहते हैं, किन्तु भौतिक जगत् पर प्रभुता की उनकी कामनाओं का अन्त नहीं होता है । जब पुनः सृष्टि होती है, तब वे उन्हीं इच्छाओं की पूर्ति के लिए पुन: भौतिक जगत् में आते हैं और इसीलिए वे विभिन्न योनियों में प्रकट होते हैं ।
प्रलय के काल में परमेश्वर में इस विलय की तुलना मधु से की गई है । मधुमक्खी के छत्ते में विभिन्न पुष्पों व फलों का रस संचित रहता है । जब व्यक्ति मधुपान करता है, तब वह यह भेद नहीं कर पाता है कि कौन-सा मधु किस पुष्प से एकत्र किया गया है । किन्तु मधु के सुमधुर स्वाद में ही यह तथ्य समाहित है कि मधु किसी एक प्रकार का रस नहीं है, अपितु विभिन्न रसों का संयोग है । एक अन्य उदाहरण है कि यद्यपि विभिन्न नदियाँ अन्ततः सागर के जल में मिल जाती हैं, किन्तु उसका यह तात्पर्य नहीं है कि उससे नदियों का वैयक्तिक स्वरूप लुप्त हो जाता है । यद्यपि गंगा एवं यमुना नदियों का जल सागर के जल में मिल जाता है, तथापि गंगा तथा यमुना नदियों का स्वतंत्र अस्तित्त्व बना रहता है । प्रलय के समय विभिन्न जीवों के ब्रम में विलय होने में भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीरों का विलोप निहित है । किन्तु अपनी भिन्न-भिन्न रुचियों रहित जीव ब्रम में वैयक्तिक रूप से निमग्न रहते हैं तथा भौतिक जगत् की एक अन्य अभिव्यक्ति होने तक वैसे ही रहते हैं । जिस प्रकार सागर के जल का खारापन तथा गंगाजल का मधुर स्वाद अलग-अलग है तथा यह भेद बराबर बना रहता है उसी भाँति परमेश्वर तथा जीवों के मध्य का भेद भी सतत रूप से रहता है, चाहे फिर प्रलय के समय वे दोनों एक होते हुए क्यों न प्रतीत हों । अतएव निष्कर्ष यह है कि जब जीव भौतिक दशाओं के समस्त प्रदूषणों से मुक्त हो जाते हैं तब वे अध्यात्म जगत् में लीन हो जाते हैं, किन्तु परमेश्वर के सम्बन्ध में उनकी वैयक्तिक रुचियों का अस्तित्त्व तब भी रहता है ।
मूर्तिमान् वेदों ने आगे कहा, "प्रिय भगवन् ! हमारा निष्कर्ष यह है कि समस्त जीव आपकी भौतिक शक्ति द्वारा आकर्षित हैं तथा वे आपके साथ अपने सनातन सम्बन्ध को भूल कर, एक प्रकार के शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण कर रहे हैं । अज्ञानवश ये जीव स्वयं को भिन्न-भिन्न योनियों में एक रूप मानने की भूल करते हैं । विशेषरूप से जब उनका उत्कर्ष मानव योनि तक हो जाता है, तब वे आपके सनातन सेवकों के रूप में अपने वास्तविक स्वरूप को भूल कर किसी विशेष वर्ग, देश, जाति अथवा तथाकथित धर्म के मनुष्यों के साथ अपनी पहचान जोड़ लेते हैं । जीवन की इस दोषपूर्ण धारणा के कारण उन्हें बारम्बार जन्म-
मरण का भागी बनना होता है । ऐसे करोड़ों लोगों में से यदि कोई एक जीव बुद्धिमान हो जाता है, तब भक्तों के संसर्ग के द्वारा उसे कृष्णभावनामृत की समझ प्राप्त होती है तथा वह मिथ्या भौतिक धारणाओं के अधिकार-क्षेत्र से बाहर आ जाता है ।"
चैतन्यचरितामृत में भगवान् श्री चैतन्य ने इस बात की पुष्टि की है कि इस ब्रह्माण्ड में जीव अनेक योनियों में भटक रहे हैं, किन्तु यदि उनमें से कोई एक गुरु तथा भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से पर्याप्त बुद्धिमान हो जाता है, तब वह कृष्णभावनामृत में अपना भक्तिपूर्ण जीवन प्रारम्भ कर देता है । कहा गया है, हरिं बिना न मृतिं तरन्ति-श्रीभगवान् की सहायता के बिना प्राणी बारम्बार जन्म-मरण के फन्दे से मुक्त नहीं हो सकता है । दूसरे शब्दों में, केवल परमेश्वर, श्रीभगवान् ही बद्धात्माओं को बारम्बार जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा दिला सकते हैं ।
मूर्तिमान् वेदों ने आगे स्तुति की, "भूत, वर्तमान तथा भविष्य-काल का प्रभाव तथा भौतिक दुःख जैसे कि अति ताप, अति शीत, जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधियाँ आदि समस्त आपकी भ्रू-भंगिमाएँ हैं । प्रत्येक वस्तु आपके संकेत पर कार्य कर रही है । भगवद्-गीता में कहा गया है कि समस्त भौतिक गतिविधियाँ भगवान् श्रीकृष्ण के निर्देशन में हो रही हैं । जो आपके प्रति शरणागत नहीं हैं ऐसे व्यक्तियों के लिए भौतिक अस्तित्त्व की समस्त दशाएँ विरोधी तत्त्व हैं । किन्तु शरणागत तथा पूर्णरूपेण कृष्णभावनामृत में स्थित आत्माओं के लिए ये वस्तुएँ भय का कारण नहीं हो सकती हैं । जब भगवान् नृसिंहदेव प्रकट हुए थे तब प्रह्वाद महाराज उनसे भयभीत नहीं हुए थे, जबकि उनके नास्तिक पिता को मूर्तिमान् यमराज का साक्षात्कार हुआ तथा उसका वध कर दिया गया । यद्यपि हिरण्यकशिपु जैसे नास्तिक के लिए नृसिंहदेव मृत्यु के रूप में प्रकट हुए, तथापि प्रह्वाद जैसे भक्तों के लिए वे सदैव ही दयालु तथा समस्त सुखों के सागर हैं । अतएव एक विशुद्ध भक्त जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधियों से भयभीत नहीं होता है ।"
श्रीपाद श्रीधर स्वामी ने एक सुन्दर पद की रचना की है, जिसका तात्पर्य इस प्रकार है : "मैं भौतिक अस्तित्त्व की दशाओं द्वारा निरन्तर उद्विग्न होने वाला एक जीव हूँ । भौतिक अस्तित्त्व के विनाशकारी चक्र ने मुझे विभिन्न खण्डों में भंग कर दिया है । इस भौतिक जगत् में रहते हुए किए गए अपने अनेक पापकर्मों में मैं भौतिक फल की प्रज्ज्वलित अग्नि में दग्ध हो रहा हूँ । हे भगवन् ! किसी प्रकार मैं अब आपके चरणारविन्दों की शरण में आ गया हूँ । कृपया मुझे स्वीकार कीजिए तथा मुझे अभयदान दीजिए ।" श्रील नरोत्तमदास ठाकुर भी इसी प्रकार स्तुति करते हैं, "प्रिय भगवन् ! हे नन्दलाल, वृषभानुसुता के स्वामी ! जीवन की भौतिक दशा से अत्यन्त दुखी होने के उपरान्त मैं आपके चरणकमलों की शरण में आया हूँ । मैं यही प्रार्थना कर रहा हूँ कि कृपया आप मुझ पर दयालु हो जाँए । कृपया मुझे न ठुकराएँ आपके अतिरिक्त मेरा कोई आश्रय नहीं है ।"
निष्कर्ष यह है कि आत्म-साक्षात्कार अथवा ईश्वर-साक्षात्कार की, भक्तियोग अथवा भक्ति के अतिरिक्त, अन्य कोई भी प्रक्रिया अत्यन्त कठिन है । अतएव पूर्ण कृष्णभावनामृत में भगवान् की भक्ति का आश्रय लेना, विशेष रूप से इस युग में, भौतिक बद्ध जीवन के दूषणों से मुक्त होने का एकमात्र मार्ग है । जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में स्थित नहीं हैं, वे केवल अपना समय व्यर्थ कर रहे हैं तथा उनके पास आध्यात्मिक जीवन का कोई ठोस प्रमाण नहीं है ।
भगवान् श्रीरामचन्द्र ने कहा है, "जो कोई मेरी शरण ग्रहण करता है तथा निश्चित रूप से यह निश्चय कर लेता है कि वह मेरा सनातन सेवक है, मैं सदैव ही उसको विश्वास तथा सुरक्षा प्रदान करता हूँ क्योंकि यह मेरी प्रवृत्ति है ।" इसी के समान भगवान् श्रीकृष्ण भगवद्-गीता में कहते हैं, "भौतिक प्रकृति का प्रभाव अजेय है, किन्तु जो कोई मेरी शरण ग्रहण करता है, वह अत्यन्त सरलता से भौतिक प्रकृति के प्रभाव पर विजय प्राप्त कर सकता है ।" अभक्तों के सिद्धान्तों का खण्ड़न करने के लिए उनसे तर्क करने में भक्तों की रंचमात्र भी रुचि नहीं है । अपने समय को व्यर्थ करने के स्थान पर वे सदैव ही पूर्ण कृष्णभावनामृत में भगवान् की सेवा में संलग्न रहते हैं ।
मूर्तिमान् वेदों ने आगे स्तुति की, "प्रिय भगवन् ! महान् योगियों का अपने मनरूपी मातंग पर और इन्द्रियरूपी तूफान पर पूर्ण नियंत्रण हो सकता है, तथापि जब तक वे एक प्रामाणिक गुरु की शरण में नहीं जाते हैं, वे भौतिक प्रभाव के शिकार बने रहते हैं तथा आत्म-साक्षात्कार के अपने प्रयास में कभी सफल नहीं होते हैं । ऐसे गुरुहीन लोगों की तुलना नाविकरहित जलयान पर समुद्र में जाने वाले व्यापारियों से की गई है । अतएव अपने व्यक्तिगत प्रयासों के द्वारा कोई भी व्यक्ति भौतिक प्रकृति के चंगुल से छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकता है । व्यक्ति को एक प्रामाणिक गुरु स्वीकार करके उनके निर्देश के अनुसार कार्य करना पड़ता है । तभी भौतिक दशाओं के अज्ञान पर विजय प्राप्त करना सम्भव है । इस सम्बन्ध में श्रीपाद श्रीधर गोस्वामी ने एक उत्तम पद की रचना की है, जिसमें वे कहते हैं, "हे परमदयालु गुरुदेव ! आप श्रीभगवान् के प्रतिनिधि हैं । मेरा मन कब पूर्णरूपेण आपके चरणकमलों की शरण में आएगा ? तभी, केवल आपकी दया से मैं आध्यात्मिक जीवन के मार्ग की समस्त बाधाओं से मुक्ति पाने तथा आनन्दमय जीवन में स्थित होने में समर्थ हो सकूंगा ।"
वस्तुत: आनन्दमय समाधि अथवा श्रीभगवान् में चित्त की लवलीनता, भगवान् की सेवा में निरन्तर संलग्न रहने के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है । इन भक्ति में सतत संलग्न रहना तभी सम्भव हो सकता है, जब व्यक्ति किसी प्रामाणिक गुरु के निर्देश में कार्य कर रहा हो । अतएव वेदों का उपदेश है कि भक्ति के विज्ञान को जानने के लिए व्यक्ति को प्रामाणिक गुरु के प्रति आत्म-समर्पण करना पड़ता है । जिसे गुरु-परम्परा में भक्ति के विज्ञान का ज्ञान है, वही प्रामाणिक गुरु है । इस गुरुपरम्परा को "श्रोत्रियम्" कहते हैं । गुरु-परम्परा में गुरु बन चुके व्यक्ति का मुख्य लक्षण यह है कि वह भक्तियोग में शत प्रतिशत अविचल रूप से स्थिर होता है । कभी-कभी लोग गुरु स्वीकार करने के उपदेश की अवव्हेलना कर देते हैं और उसके स्थान पर वे योग-साधना के द्वारा आत्म-साक्षत्कार करने का प्रयास करते हैं, किन्तु इसमें विश्वामित्र जैसे महान् योगियों की असफलता के भी अनेक उदाहरण हैं । अर्जुन ने भगवद्-गीता में कहा है कि मन को नियंत्रित करना उतना ही अव्यावहारिक है जितना की तूफान को रोकना । कभी-कभी मन की तुलना मन्त-मातंग से की जाती है । गुरु के निर्देशों का अनुसरण किए बिना व्यक्ति मन तथा इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं कर सकता है । दूसरे शब्दों में, यदि कोई योग-साधना करता है, किन्तु प्रामाणिक गुरु की शरण नहीं लेता है, तब वह निश्चित रूप से असफल होगा । वह केवल अपना समय ही नष्ट करेगा । वेदों का आदेश है कि आचार्य के पथ-प्रदर्शन के बिना किसी को पूर्णज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है । आचार्यवान् पुरुषो वेद-जिसने एक आचार्य को स्वीकार कर लिया है उसी को वस्तुस्थिति का ज्ञान होता है । परम सत्य को तर्कों के द्वारा नहीं समझा जा सकता है । जिसने आदर्श ब्राह्मणत्व की स्थिति प्राप्त कर ली है, वह स्वाभाविक रूप से त्यागी बन जाता है । वह भौतिक लाभ के लिए प्रयास नहीं करता है, क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञान के द्वारा वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि इस जगत् में कोई अभाव नहीं है । श्रीभगवान् ने प्रत्येक वस्तु पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराई है । अत: एक सच्चा ब्राह्मण भौतिक पूर्णता के लिए प्रयास नहीं करता है, अपितु वह उनसे आदेश लेने के लिए किसी प्रामाणिक गुरु के समीप जाता है । एक गुरु की योग्यता यह है कि वह ब्रमनिष्ठम् होता है, जिसका अर्थ है कि उसने अन्य समस्त गतिविधियों का त्याग कर दिया है तथा अपना जीवन भगवान् श्रीकृष्ण के लिए कार्य करने के हेतु समर्पित कर दिया है । जब एक प्रामाणिक शिष्य एक प्रामाणिक गुरु के समीप जाता है, वह अत्यन्त विनम्रतापूर्वक गुरु से प्रार्थना करता है, प्रिय भगवन्! कृपया मुझे अपना शिष्य स्वीकार कीजिए तथा मुझे ऐसी शिक्षा दीजिए कि मैं आत्म-साक्षात्कार की अन्य समस्त प्रक्रियाओं को त्यागने में समर्थ हो सकूं एवं केवल कृष्णभावनामृत या भक्ति में संलग्न हो सकूं ।
" गुरु के निर्देशन द्वारा भगवान् की दिव्य भक्ति में संलग्न भक्त इस प्रकार चिन्तन करता है, "प्रिय भगवन् ! आप सुख के सागर हैं । आप उपस्थित हैं, अतएव समाज, मैत्री तथा प्रेम से प्राप्त होने वाले क्षणिक सुखों का क्या उपयोग है ? सुख के परम सागर से अनजान व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति के सुख प्राप्त करने में संलग्न रहते हैं, किन्तु यह सुख अनित्य तथा भ्रामक है ।" महान् वैष्णव भक्त तथा कवि इस सम्बन्ध में कहते है, "प्रिय भगवन् ! समाज के मध्य, मैत्री तथा प्रेम में निस्सन्देह कुछ सुख है, यद्यपि यह सुख भौतिक प्रकृति का है । किन्तु मेरा हृदय एक मरुस्थल की भाँति है, जिसे ऐसे सुख सन्तुष्ट नहीं कर सकते हैं ।" एक मरुस्थल में जल के सागर की आवश्यकता होती है । किन्तु यदि मरुस्थल में जल की केवल एक बूंद डाली जाए, तो ऐसे जल का मूल्य क्या है ? इसी भाँति हमारे भौतिक हृदय विविध इच्छाओं से पूर्ण हैं, जिन्हें मैत्री तथा प्रेम के भौतिक समाज में पूरा नहीं किया जा सकता है । जब हमारे हृदय सुख के परम सागर से सुख प्राप्त करना प्रारम्भ करते हैं तभी हम सन्तुष्ट हो सकते हैं । पूर्ण कृष्णभावनामृत में या भक्ति में ही वह दिव्य सन्तोष सम्भव है ।
मूर्तिमान् वेदों ने आगे कहा, "प्रिय भगवन् ! आप सच्चिदानन्द-विग्रह हैं अर्थात् ज्ञान के नित्य आनन्द स्वरूप । जीव आपके स्वरूप के ही अंश हैं, अतएव उनके अस्तित्त्व की स्वाभाविक स्थिति यह है कि वे आपके प्रति पूर्ण सचेत रहें । इस भौतिक जगत् में जिसने भी ऐसे कृष्णभावनामृत का विकास कर लिया है, उसे भौतिकतावादी जीवनधारा में रुचि नहीं रहती है । एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति की पारिवारिक जीवन अथवा ऐश्वर्यपूर्ण जीवन में रुचि नहीं रहती है । उसे अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के लिए अति अल्प सुविधाओं की आवश्यकता होती है । दूसरे शब्दों में, अब इन्द्रियतृप्ति में उसकी रुचि नहीं रहती है । मानव जीवन की पूर्णता ज्ञान तथा वैराग्य पर आधारित है, किन्तु गृहस्थ जीवन में रहते हुए ज्ञान तथा वैराग्य की स्थिति तक पहुँचने का प्रयास करना अत्यन्त कठिन है । ऐसे लोगों को परमात्मा तथा जीवों के मध्य के सम्बन्ध का बोध होता है तथा वे शरीर को जीवन मानने की धारणा नहीं रखते हैं । ऐसे लोग आपको पूर्ण चेतना के साथ सदैव अपने हृदय में धारण करते हैं, अतएव वे इतने पावन हो जाते हैं कि वे जिस स्थान पर भी जाते हैं वह एक पावन तीर्थस्थान बन जाता है । उनके चरण धोने वाला जल (चरणोदक) इस भौतिक जगत् में भटकने वाले अनेक पापियों को मुक्त करने में समर्थ है ।
" जब प्रह्वाद महाराज के नास्तिक पिता ने उनसे अपनी सीखी हुई किसी अत्यन्त उत्तम वस्तु का वर्णन करने को कहा, तब उन्होंने अपने पिता को उत्तर दिया कि अस्थायी तथा सापेक्ष सत्यों में संलग्न रहने के कारण सदैव ही उद्विग्नताओं से परिपूर्ण रहने वाले एक भौतिकतावादी व्यक्ति के लिए सर्वोत्तम मार्ग यह है कि वह गृहस्थ जीवन के अन्धे कुएँ को त्याग दे तथा परमेश्वर की शरण ग्रहण करने के लिए वन में चला जाए । जो वास्तव में विशुद्ध भक्त हैं उन्हें महात्मा अथवा महर्षि कह कर उनकी सराहना की जाती है । वे ज्ञान में पूर्ण पुरुष हैं । वे सदैव ही परमेश्वर तथा उनके चरणकमलों का चिन्तन करते हैं और इस प्रकार वे अपने आप मुक्त हो जाते हैं । उस दशा में सदा स्थित रहने वाले भक्त भगवान् की अचिन्त्य शक्तियों से प्राणान्वित हो जाते हैं और इसलिए जो कोई ऐसे शुद्ध भक्त का स्पर्श करता है या उसकी शरण में जाता है, वह स्वयं आध्यात्मिक शक्तियों से अनुप्राणित हो जाता है । ऐसे भक्त भौतिक ऐश्वर्यों से कभी गर्व-स्फीत नहीं होते । सामान्य रूप से भौतिक ऐश्वर्यों में उत्तम वंश, शिक्षा, सुंदरता और संपत्ति की गणना की जाती है, किन्तु, यद्यपि भगवान् के एक भक्त को ये चारों भौतिक ऐश्वर्य सुलभ हो सकते हैं, वह कभी-भी ऐसी विशिष्टताओं का स्वामी होने के गर्व में अपने को नहीं खोता । भगवान् के महान् भक्त एक तीर्थस्थान से दूसरे तीर्थस्थान में होते हुए संसार भर की यात्रा करते हैं और मार्ग में उन्हें अनेक बद्धजीव मिलते हैं जिनका उद्धार वे अपने साहचर्य और दिव्य ज्ञान के वितरण से करते हैं । वे वृन्दावन, मथुरा, द्वारका, जगन्नाथपुरी एवं नवद्वीप जैसे स्थानों में रहते हैं और संतों की संगति का लाभ उठाते हैं और ऐसी संगति के परिणाम स्वरूप कृष्णभावनामृत की साधना में उत्तरोत्तर आगे बढ़ते जाते हैं । ऐसी प्रगति गृहस्थ-जीवन में संभव नहीं और इस प्रकार वे स्वयं अपने अनुयायियों एवं भक्तों के लिए मोक्ष का स्रोत बन जाते हैं । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से पूर्णत: प्राणान्वित होता है । क्योंकि साधारण गृहस्थ जीवन कृष्णभावनामृत से शून्य है ।
मूर्तिमान वेदों ने आगे कहा, "प्रिय भगवन् ! अध्यात्मवादियों के दो वर्ग हैं, निर्विशेषवादी तथा साकारवादी । निर्विशेषवादियों का मत है कि यह भौतिक सृष्टि मिथ्या है तथा केवल परम सत्य ही तथ्यरूप है । किन्तु साकारवादियों का मत है, यद्यपि भौतिक जगत् अत्यन्त अस्थायी है, तथापि यह मिथ्या नहीं, अपितु वास्तविक है । इस प्रकार अध्यात्मवादियों के पास अपने-अपने मत की प्रामाणिकता को स्थापित करने के लिए भिन्न-भिन्न तर्क हैं । वास्तविकता यह है कि भौतिक जगत् एक ही साथ सत्य व मिथ्या दोनों ही है । यह सत्य है क्योंकि प्रत्येक वस्तु परम पूर्ण सत्य का ही प्रकाश है और यह मिथ्या है, क्योंकि भौतिक जगत् का अस्तित्त्व अस्थायी है । इसकी सृष्टि होती है तथा इसका विनाश होता है । इसके अस्तित्त्व की विभिन्न दशाओं के कारण सृष्टि की कोई निश्चित स्थिति नहीं होती है । भौतिक जगत् को मिथ्या स्वीकार करने का परामर्श देने वाले साधारणतया ब्रम सत्य जगन्मिथ्या के सूत्र द्वारा विख्यात हैं । वे यह तर्क देते हैं कि भौतिक जगत् में प्रत्येक वस्तु द्रव्यों से निर्मित होती है । उदाहरणार्थ, मिट्टी से अनेक वस्तुओं का निर्माण होता है, जैसे मिट्टी के घड़े, कटोरी तथा गेंद । इनके नष्ट होने के उपरान्त ये वस्तुएँ अन्य अनेक भौतिक वस्तुओं में परिवर्तित हो सकती हैं, किन्तु इन सबमें मिट्टी के रूप में उनका अस्तित्त्व बना रहता है । मिट्टी का घड़ा टूटने के पश्चात् कटोरी, तश्तरी अथवा अन्य पात्र में परिवर्तित हो सकता है, किन्तु तश्तरी, कटोरी अथवा घड़े के रूप मिथ्या हैं, परन्तु मिट्टी के रूप में उनका अस्तित्त्व सत्य है । यह निर्विशेषवादियों का मत है । यह सृष्टि निश्चय ही परम सत्य से ही उत्पन्न होती है, परन्तु इसका अस्तित्त्व अस्थायी होने के कारण यह मिथ्या है । निर्विशेषवादियों का मत है कि सदैव उपस्थित रहने वाला परम सत्य ही एकमात्र सत्य है । किन्तु दूसरे अध्यात्मवादियों के मतानुसार परम सत्य से उत्पन्न होने वाला यह भौतिक जगत् भी सत्य है । इसके उत्तर में निर्विशेषवादी तर्क देते हैं कि भौतिक जगत् तथ्यरूप नहीं है, क्योंकि कभी-कभी आत्मा से भौतिक द्रव्य की उत्पत्ति होते दिखाई देती है तथा कभी-कभी भौतिक द्रव्य से आत्मा की उत्पत्ति होती दिखाई देती है । ऐसे दार्शनिक यह मत प्रस्तुत करते हैं कि यद्यपि गोबर एक निर्जीव द्रव्य है, तो भी कभी-कभी गोबर में से बिच्छू निकलता हुआ भी मिलता है । उसी भाँति जीवित देह में से निर्जीव नाखून तथा बाल निकलते हैं । अतएव एक वस्तुविशेष से उत्पन्न होने वाली वस्तुएँ सदैव उसके समान नहीं होती हैं । इस तर्क के बल पर मायावादी दार्शनिक यह स्थापित करते हैं कि यद्यपि यह सृष्टि निश्चय ही परम सत्य से ही निकलती है, किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि सृष्टि भी सत्य हो । अतएव इस दृष्टिकोण के अनुसार परम सत्य ब्रम को सत्य स्वीकार करना चाहिए । यद्यपि यह सृष्टि परम सत्य से ही उत्पन्न होती है तथापि इसे सत्य रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है ।"
मायावादी दार्शनिकों के दृष्टिकोण को भगवद्-गीता में असुरों का दृष्टिकोण कहा गया है । भगवद्-गीता में भगवान् कहते हैं असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् / असुरों का सृष्टि सम्बन्धी दृष्टिकोण है कि सृष्टि मिथ्या है । असुरों का विचार है कि केवल द्रव्यों की क्रिया-प्रतिक्रिया ही सृष्टि का स्रोत है तथा कोई नियन्ता अथवा ईश्वर नहीं है । किन्तु वस्तुत: तथ्य यह नहीं है । गीता के सातवें अध्याय से हमें ज्ञात होता है कि क्षिति, जल, पावक गगन व समीर के स्थूल तत्त्व तथा मन, बुद्धि तथा अंहकार के तीन सूक्ष्म तत्त्व परमेश्वर की आठ भिन्न शक्तियाँ हैं । इस तीन भौतिक शक्तियों से परे एक आध्यात्मिक शक्ति भी है, जिसे जीवों के रूप में जाना जाता है । जीवों को भी भगवान् की श्रेष्ठतर शक्ति माना जाता है । समस्त सृष्टि हीन व श्रेष्ठ शक्तियों का एक संयोग है तथा इन शक्तियों का स्रोत श्रीभगवान् है । श्रीभगवान् विभिन्न प्रकार की शक्तियों के स्वामी हैं । इस बात की पुष्टि वेदों में की गई है, परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते-भगवान् की दिव्य शक्तियाँ विविधरंगी हैं । परमेश्वर से अद्भुत होने के कारण ये विविधाताएँ मिथ्या नहीं हो सकती हैं । भगवान् का अस्तित्त्व नित्य है तथा उनकी शक्तियाँ भी नित्य अस्तित्त्व वाली हैं । कुछ शक्तियाँ अस्थायी हैं-वे कभी प्रकाशित होती हैं कभी अप्रकाशित रहती हैं-किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि ये मिथ्या हैं । यह उदाहरण दिया जा सकता है कि क्रोधावस्था में व्यक्ति अपने सामान्य जीवन की स्थिति से भिन्न रूप में व्यवहार करता है, किन्तु इस क्रोध के भाव के प्रकट व अप्रकट होने का यह अर्थ नहीं कि क्रोध की शक्ति मिथ्या है । वैष्णव दार्शनिक मायावादियों के इस तर्क को कि जगत् मिथ्या है स्वीकार नहीं करते हैं । भगवान् ने स्वयं इस तथ्य की पुष्टि की है कि इस भौतिक सृष्टि का कोई परम कारण न मानने वाला दृष्टिकोण आसुरी दृष्टिकोण है । ईश्वर के अस्तित्त्व को न मानने वाला तथा प्रत्येक वस्तु को द्रव्यों की क्रिया-प्रतिक्रिया की रचना-मात्र मानने वाला दृष्टिकोण असुरों का दृष्टिकोण है ।
मायावादी दार्शनिक कभी-कभी रस्सी व सर्प का तर्क प्रस्तुत करते हैं । संध्या के अंधकार में गोलाकार पड़ी हुई रस्सी को कभी-कभी अज्ञानवश सर्प समझा जा सकता है । किन्तु रस्सी को सर्प समझने का यह अर्थ नहीं है कि रस्सी अथवा सर्प मिथ्या है । अतएव जगत् के मिथ्यात्व को प्रदर्शित करने वाले मायावादियों द्वारा प्रयुक्त यह उदाहरण न्यायोचित नहीं है । जब किसी वस्तु को तथ्य मान लिया जाता है, किन्तु वास्तव में उसका कोई अस्तित्त्व नहीं होता है, तब उसे मिथ्या कहते हैं । किन्तु यदि किसी एक वस्तु को भूल से कुछ दूसरी वस्तु समझ लिया जाए, तो इसका यह अर्थ नहीं की वह मिथ्या है । इस भौतिक जगत् की तुलना एक मिट्टी के पात्र से करते हुए, वैष्णव दार्शनिक एक अत्यन्त उपयुक्त दृष्टान्त का उपयोग करते हैं । जब हम एक मिट्टी के पात्र को देखते हैं तब यह तत्काल ही तिरोहित होकर किसी अन्य वस्तु में परिवर्तित नहीं हो जाता है । यह अनित्य हो सकता है किन्तु मिट्टी के पात्र का उपयोग जल लाने के लिए किया जाता है तथा हम इसे मिट्टी के पात्र के रूप में देखते रहते हैं । यद्यपि घड़ा अनित्य है तथा मूल मिट्टी से भिन्न है, तथापि हम इसको मिथ्या नहीं कह सकते हैं । अतएव हमें यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि सम्पूर्ण भूमि तथा घड़ा दोनों ही सत्य हैं, क्योंकि एक वस्तु दूसरे से उत्पन्न होता है । भगवद्-गीता से हमें ज्ञात होता है कि सृष्टि के प्रलय के उपरान्त शक्ति श्रीभगवान् में प्रवेश कर जाती है । अपनी विविध शक्तियों सहित श्रीभगवान् का नित्य अस्तित्त्व रहता है । भौतिक सृष्टि भगवान् से ही निकलती है, अतएव हम यह नहीं कह सकते हैं कि यह सृष्टि शून्य से उत्पन्न होती है । श्रीकृष्ण शून्य नहीं हैं । जब कभी-भी हम श्रीकृष्ण की चर्चा करते हैं, वे अपने रूप, गुण, नाम, पार्षदों तथा वैशिष्य के साथ उपस्थित रहते हैं । अतएव श्रीकृष्ण निर्विशेष नहीं हैं । प्रत्येक वस्तु का मूल कारण न तो शून्य है न ही निर्विशेष, अपितु परम पुरुष है । असुर यह कह सकते हैं कि यह भौतिक सृष्टि अनीश्वर अथवा नियन्ता या भगवान् से रहित हैं, किन्तु अन्तत: ऐसे तर्क सिद्ध नहीं हो सकते हैं ।
मायावादी दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत तर्क कि नाखून, केश आदि निर्जीव द्रव्य सजीव शरीर से निकलते हैं, अत्यन्त युक्तियुक्त तर्क नहीं है । नाखून तथा केश निस्सन्देह ही निर्जीव हैं, किन्तु वे सजीव जीवों से नहीं अपितु निर्जीव भौतिक देह से निकलते हैं । उसी भाँति गोबर में से बिच्छू निकलता है, अर्थात् पदार्थ में से जीव निकलता है, यह तर्क भी युक्तियुक्त नहीं है । गोबर में से निकलने वाला बिच्छू निस्सन्देह ही एक जीव है, किन्तु जीव गोबर में से नहीं निकलता है । जीव का केवल भौतिक शरीर अथवा बिच्छू का शरीर ही गोबर में से निकलता है ।
जैसाकि हमें भगवद्-गीता से ज्ञात होता है जीवों के स्फुलिंग भौतिक प्रकृति में स्थापित हो जाते हैं और तत्पश्चात् वे बाहर आते हैं । विभिन्न रूपों में जीवों का शरीर भौतिक प्रकृति की देन है, किन्तु जीव स्वयं परमेश्वर से प्राप्त होता है । जीव के लिए विशेष परिस्थितियों में आवश्यक शरीर उसे माता पिता देते हैं । जीव अपनी विभिन्न इच्छाओं के अनुसार एक शरीर से दूसरे में देहान्तरण करता रहता है । बुद्धि, मन तथा अंहकार के सूक्ष्म रूप में इच्छाएँ जीव के साथ एक देह से दूसरे देह में जाती हैं तथा परमेश्वर के प्रबन्ध के द्वारा जीव को एक विशेष प्रकार के भौतिक शरीर के गर्भ में स्थापित कर दिया जाता है और तत्पश्चात् वह भी उसी के समान शरीर विकसित कर लेता है । अतएव आत्मा की उत्पति द्रव्य से नहीं होती है, अपितु यह परमेश्वर के प्रबन्ध के अन्तर्गत एक विशेष प्रकार का शरीर धारण करती है । हमारे वर्तमान अनुभव में यह भौतिक जगत् पदार्थ व आत्मा का संयोग है-आत्मा पदार्थ को गतिमान करती है । आत्मा (जीव) तथा पदार्थ परमेश्वर की भिन्न-भिन्न शक्तियाँ हैं । दोनों ही शक्तियाँ परम नित्य अथवा परम सत्य की उत्पाद हैं, अतएव वे सत्य हैं, मिथ्या नहीं हैं । जीव परमेश्वर का अंश है, अतएव उसका अस्तित्त्व नित्य है । फलत: जन्म तथा मृत्यु का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है । तथाकथित जन्म तथा मृत्यु भौतिक परम ब्रम से निकलती हैं, अतएव हम जिसका अनुभव करते हैं, वह प्रत्येक वस्तु ब्रम से भिन्न नहीं है ।
इस भौतिक जगत् के अस्तित्त्व के विषय में अनेक तर्क हैं, किन्तु वैष्णवों का दार्शनिक निष्कर्ष सर्वश्रेष्ठ है । घड़े का उदाहरण अत्यन्त उपयुक्त है । घड़े का रूप अनित्य हो सकता है, किन्तु इसका एक निश्चित प्रयोजन है । घड़े का प्रयोजन एक स्थान से दूसरे स्थान तक जल ले जाना है । उसी भाँति यह भौतिक शरीर भी अनित्य है, किन्तु इसका एक विशेष उपयोग है । सृष्टि के प्रारम्भ से ही जीव को अनन्त काल से संचित अपनी एकत्र इच्छाओं के अनुसार, विभिन्न प्रकार की भौतिक देहों का विकास करने का अवसर प्रदान किया गया है । मानव-शरीर एक विशेष अवसर है, जिसमें चेतना के विकसित रूप का उपयोग किया जा सकता है ।
कभी-कभी मायावादी दार्शनिक यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि यदि यह भौतिक जगत् सत्य है, तो गृहस्थ लोगों को इस भौतिक जगत् से अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर के संन्यास ग्रहण करने का परामर्श क्यों दिया जाता है ? किन्तु वैष्णव दार्शनिकों के संन्यास का दृष्टिकोण यह नहीं है कि यह जगत् मिथ्या है, अतएव मानव को भौतिक गतिविधियों का त्याग करना चाहिए । वैष्णव संन्यास का प्रयोजन है कि वस्तुओं का उचित उपयोग करें । श्रील रूप गोस्वामी ने इस भौतिक जगत् से व्यवहार करने के दो सूत्र दिए हैं । जब एक वैष्णव जीवन की भौतिकतावादी रीति को त्याग कर संन्यास ग्रहण करता है, तब वह ऐसा भौतिक जगत् के मिथ्यात्व की धारणा के आधार पर नहीं करता है । अपितु वह प्रत्येक को पूर्ण रूप से भगवान् की सेवा में संलग्न करने के हेतु अपने को समर्पित करने के लिए ऐसा करता है । अतएव श्रील रूप गोस्वामी यह सूत्र प्रदान करते हैं कि व्यक्ति को भौतिक जगत् से अनासक्त रहना चाहिए, क्योंकि भौतिक मोह निरर्थक है । समस्त भौतिक जगत् या समस्त सृष्टि भगवान् श्रीकृष्ण की है । अतएव प्रत्येक वस्तु का उपयोग श्रीकृष्ण के लिए ही करना चाहिए तथा भक्त को भौतिक वस्तुओं के प्रति अनासक्त रहना चाहिए । वैष्णव संन्यास का यही प्रयोजन है । भौतिकवादी इन्द्रियतृप्ति के लिए जगत् से चिपका रहता है, किन्तु वैष्णव संन्यासी अपनी वैयक्तिक इन्द्रियतृप्ति के लिए किसी वस्तु को स्वीकार नहीं करता है, तथापि प्रत्येक वस्तु को भगवान् की सेवा के लिए उपयोग करने की कला उसे ज्ञात होती है । अतएव श्रील रूप गोस्वामी ने मायावादी संन्यासियों की आलोचना की है, क्योंकि उन्हें यह ज्ञान नहीं है कि प्रत्येक वस्तु का भगवान् की सेवा के लिए उपयोग होता है । इसके विपरीत वे जगत् को मिथ्या मानते हैं और इस प्रकार भौतिक जगत् के दूषणों से मुक्त होने का मिथ्या विचार करते हैं । प्रत्येक वस्तु परमेश्वर की शक्ति का एक अंश है, अतएव अंश उतने ही वास्तविक हैं जितने की परमेश्वर हैं ।
सृष्टि केवल अस्थायी रूप से अभिव्यक्त होती है । इसका यह अर्थ नहीं है कि यह मिथ्या है, अथवा इसकी अभिव्यक्ति का स्रोत मिथ्या है । इसकी अभिव्यक्ति का स्रोत सत्य है, अतएव अभिव्यक्ति भी सत्य है, किन्तु व्यक्ति को इसका उपयोग करने की रीति आनी चाहिए । यहाँ भी वही उदारहण दिया जा सकता है-सम्पूर्ण भूमि से अस्थायी घड़े का उत्पादन किया जाता है, किन्तु जब इसका उचित प्रयोजन के लिए उपयोग किया जाता है, तब घड़ा मिथ्या नहीं होता है । वैष्णव दार्शनिकों को इस भौतिक जगत् की अस्थायी रचना के उचित उपयोग की प्रणाली ज्ञात है, जैसे कि एक बुद्धिमान व्यक्ति को घड़े की अस्थायी रचना के उपयोग की विधि ज्ञात होती है । जब घड़े का उपयोग गलत उद्देश्य के लिए किया जाता है, तब वह मिथ्या है । उसी भाँति जब यह भौतिक शरीर या यह भौतिक जगत् मिथ्या इन्द्रियतृप्ति हेतु प्रयुक्त किया जाता है, तो वह मिथ्या है । किन्तु यदि मानव-शरीर तथा भौतिक सृष्टि का उपयोग परमेश्वर की सेवा के लिए किया जाए, तो उनकी गतिविधियाँ कभी भी मिथ्या नहीं होती हैं । अतएव भगवद्-गीता में इसकी पुष्टि की गई है कि इस देह तथा भौतिक जगत् को भगवान् की सेवा के लिए उपयोग करने की थोड़ी सी सेवाभावना व्यक्ति को जीवन के भयंकरतम संकटों से मुक्ति दिला सकती है । जब उनका उचित उपयोग किया जाता है, तब श्रीभगवान् से निकलने वाली श्रेष्ठ (परा) तथा निकृष्ट (अपरा) दोनों शक्तियों में से कोई भी मिथ्या नहीं होती है । जहाँ तक सकाम कर्मों का प्रश्न है वे मुख्यत: इन्द्रियतृप्ति के स्तर पर आधारित हैं । अतएव एक प्रगतिशील कृष्णभावनाभावित व्यक्ति उन्हें अंगीकार नहीं करता है । सकाम कर्मों का फल व्यक्ति का उच्चतर लोकों (स्वर्ग) तक उत्कर्ष कर सकता है । किन्तु जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है, स्वर्ग लोक में अपने पुण्यकर्मों के फल को भोगने के पश्चात् मूर्खलोग पुन: इस निम्न जगत् में लौट आते हैं । तत्पश्चात् वे पुन: स्वर्ग लोक जाने का प्रयास करते हैं । उनका एकमात्र लाभ जाने तथा आने का कष्ट है, जैसे कि आजकल कई भौतिक वैज्ञानिक चन्द्रलोक पर जाने तथा वापस लौटने के प्रयास में इतना समय नष्ट कर रहे हैं । ऐसे कार्यों में संलग्न लोगों को मूर्तिमान वेदों ने अन्धपरम्परा अथवा वेदों के विधि-विधानों का अन्धानुसरण करने वाला कहा है । यद्यपि ऐसे संस्कारों का वेदों में निश्चित रूप से उल्लेख किया गया है, किन्तु वे बुद्धिमान वर्ग के लोगों के लिए नहीं हैं । भौतिक सुख से अत्यधिक लगाव रखने वाले व्यक्ति स्वर्गादि लोकों तक उत्कर्ष करने की सम्भावना से मुग्ध हो जाते हैं, अतएव वे ऐसे विधि-विधानों को अंगीकार कर लेते हैं । किन्तु एक बुद्धिमान व्यक्ति, अथवा वस्तुओं को उनके वास्ताविक रूप में देखने की इच्छा से प्रामाणिक गुरु की शरण में आया हुआ व्यक्ति सकाम कर्म नहीं करता है, अपितु वह भगवान् की दिव्य प्रेमसेवा में संलग्न हो जाता है ।
जो व्यक्ति भक्त नहीं हैं, वे भौतिक कारणों से वैदिक विधि-विधानों को अंगीकार करते हैं और तत्पश्चात् वे दिग्भ्रमित हो जाते हैं । इसका एक सजीव उदाहरण दिया जा सकता है-करोड़ों रुपयों के नोटों का स्वामी, एक बुद्धिमान व्यक्ति उन रुपयों का उपयोग किए बिना ही उन्हें रखे नहीं रहता है । यद्यपि उसे भलीभाँति यह ज्ञात होता है कि अपने आप में नोट कागजमात्र हैं और अन्य कुछ भी नहीं । जब व्यक्ति के पास करोड़ों रुपए के नोट होते हैं तब वास्तव में वह केवल कागजों के एक विशाल गट्ठर का स्वामी होता है, किन्तु यदि वह इसका उपयोग किसी प्रयोजन के लिए करता है, तो वह लाभान्वित होता है । उसी भाँति यद्यपि यह भौतिक जगत् कागज की भाँति मिथ्या हो सकता है, किन्तु इसका भी उचित लाभकारी उपयोग है । रुपये के नोटों को सरकार चलाती है, अतएव उनका पूरा मूल्य है । उसी भाँति यह भौतिक जगत् भी मिथ्या तथा अस्थायी हो सकता है, किन्तु परमेश्वर से निकलने के कारण इसका पूरा मूल्य है । वैष्णव दार्शनिक इस भौतिक जगत् के मूल्य को पहचान कर उसे स्वीकार करते हैं तथा उन्हें इसके उचित उपयोग की विधि ज्ञात है, जबकि मायावादी दार्शनिक भूल से रुपये के नोटों को मिथ्या कागज मान कर उसका त्याग कर देता है तथा धन का उपयोग नहीं कर सकता है । अतएव श्रील रूप गोस्वामी कहते हैं कि श्रीभगवान् की सेवा को साधन के रूप में इस भौतिक जगत् की महत्ता पर विचार न करते हुए यदि कोई इस भौतिक जगत् को मिथ्या मान कर इसका परित्याग कर देता है, तो ऐसे त्याग का मूल्य अत्यल्प है । जो व्यक्ति भगवान् की सेवा के निमित्त इस भौतिक जगत् के यथार्थ मूल्य को जानता है, जिसे भौतिक जगत् से मोह नहीं है तथा जो इन्द्रियतृप्ति के लिए भौतिक जगत् को स्वीकार न करके इसका परित्याग करता है, वही वास्तविक त्यागी अथवा संन्यासी है । यह भौतिक जगत् भगवान् की भौतिक शक्ति का विस्तार है । अतएव यह सत्य है । सर्प तथा रज्जु के दृष्टान्त के द्वारा कभी-कभी जो निष्कर्ष निकाला जाता है कि जगत् मिथ्या है, वह सत्य नहीं है । यह जगत् मिथ्या नहीं है ।
मूर्तिमान वेदों ने आगे कहा, "अपने अस्थायी अस्तित्त्व की चंचल प्रकृति के कारण अल्पबुद्धि मानवों को यह सृष्टि मिथ्या प्रतीत होती है ।" मायावादी दार्शनिक इस जगत् को मिथ्या बताने वाले अपने सिद्धान्त को सिद्ध करने के लिए इस सृष्टि की चंचल प्रकृति का लाभ उठाते हैं । वेदों के अनुसार सृष्टि से पूर्व इस जगत् का कोई अस्तित्त्व नहीं था तथा प्रलय के उपरान्त जगत् का अस्तित्त्व नहीं रहेगा । शून्यवादी दार्शनिक भी वेदों के इस मत का लाभ उठा कर यह निष्कर्ष निकालते हैं कि इस भौतिक जगत् का कारण शून्य है । किन्तु वेदों का आदेश यह नहीं कहता है कि यह शून्य है । वेदों का निर्देश सृष्टि के उद्गम तथा प्रलय की परिभाषा इस प्रकार करता है-यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते-अर्थात् "वह, जिनसे यह सृष्टि निकलती है तथा प्रलय के उपरान्त जिनमें प्रत्येक वस्तु विलीन हो जाएगी ।” इसी को वेदान्तसूत्र में तथा श्रीमद्-भागवत के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में जन्माद्यस्य शब्द के द्वारा स्पष्ट किया गया है-वह जिससे प्रत्येक वस्तु उत्पन्न होती है । ये सभी वैदिक निर्देश यह संकेत देते हैं कि सृष्टि के कारण परम पूर्ण श्रीभगवान् हैं तथा जब इस सृष्टि का प्रलय होता है, तब यह उनमें ही विलीन हो जाती है । इस बात की पुष्टि भगवद्-गीता में भी की गई है-यह सृष्टि अस्तित्त्व में आती है और इसका लय होता रहता है जब इस सृष्टि का प्रलय होता है, तो प्रलयोपरान्त यह परमेश्वर के अस्तित्त्व में विलीन हो जाती है । यह कथन इस बात की निश्चितरूप से पुष्टि करता है कि माया के नाम से विख्यात चंचल प्रकृति की यह बहिरंगा शक्ति परमेश्वर की शक्ति है तथा अपने आप में यह मिथ्या नहीं हो सकती है । यह केवल मिथ्या प्रतीत होती है । मायावादी दार्शनिक यह निष्कर्ष निकालते हैं कि प्रारम्भ में भौतिक प्रकृति का कोई अस्तित्त्व नहीं था तथा प्रलय के पश्चात् भी इसका अस्तित्त्व नहीं होता, अतएव यह मिथ्या है । किन्तु मिट्टी के घड़े तथा पात्रों के दृष्टान्त के द्वारा वैदिक मत प्रस्तुत किया जाता है-यद्यपि परम सत्य से निकलने वाले विशिष्ट पदार्थ अनित्य हैं, तथापि परमेश्वर की शक्ति नित्य है । मिट्टी का घड़ा टूट सकता है, अथवा उसका दूसरे आकार में रूपान्तर हो सकता है, जैसे कि थाली अथवा कटोरी के आकार में, किन्तु उसकी सामग्री अथवा मिट्टी नामक आधारभूत पदार्थ वही रहता है । इस सृष्टि का आधारभूत सिद्धान्त सदैव वही ब्रम अथवा परम सत्य रहता है । अतएव मायावादी दार्शनिकों का सिद्धान्त कि जगत् मिथ्या है, निश्चय ही उनके दिमाग की उपज-मात्र है । सृष्टि के अनित्य तथा चंचल होने का यह अर्थ नहीं है कि यह मिथ्या है । मिथ्या की परिभाषा है, वह वस्तु जिसका कभी अस्तित्त्व नहीं था, किन्तु जिसका अस्तित्त्व केवल नाम-मात्र का है । उदाहरणार्थ घोड़े का अंडा, आकाशकुसुम अथवा खरगोश के सींग आदि ऐसे पदार्थ हैं जिनका अस्तित्त्व उनके नाम-मात्र का ही है । घोड़े के अंडे नहीं होते है, खरगोश के कोई सींग नहीं होता है तथा आकाश में प्रस्फुटित होने वाला कोई पुष्प नहीं है । ऐसी बहुत सी वस्तुएँ हैं जिनका अस्तित्त्व केवल नाम में अथवा कल्पना में ही होता है, किन्तु उनका कोई वास्तविक विस्तार नहीं होता है । ऐसी वस्तुओं को मिथ्या कहा जा सकता है । किन्तु केवल भौतिक जगत् की अनित्य प्रकृति के व्यक्त तथा प्रलय होने के कारण ही वैष्णव दार्शनिक इसे मिथ्या नहीं मान सकते हैं ।
मूर्तिमान् वेदों ने आगे कहा कि परमात्मा तथा जीवात्मा किसी भी परिस्थिति में समान नहीं हो सकते हैं, यद्यपि दोनों एक ही वृक्ष पर बैठे हुए पक्षियों के समान एक ही शरीर में प्रतिष्ठित हैं । जैसाकि वेदों में घोषित किया गया है ये दोनों पक्षी यद्यपि मित्रवत् बैठे हैं, तथापि वे समान नहीं हैं । उनमें से एक केवल साक्षी-मात्र है । यह पक्षी परमात्मा है । दूसरा पक्षी वृक्ष का फल खा रहा है, वह जीवात्मा है । जब सृष्टि होती है, तब जीवात्मा अपने पूर्व सकाम कर्मों के अनुसार सृष्टि में विभिन्न रूपों में प्रकट होता है । अपने वास्तविक अस्तित्त्व को विस्मृत कर देने के कारण वह भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा प्रदत्त किसी रूप विशेष से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है । एक भौतिक रूप ग्रहण कर लेने के उपरान्त वह प्रकृति के भौतिक त्रिगुणों का विषय बन जाता है तथा भौतिक जगत् में अपने अस्तित्त्व का क्रम जारी रखता है । अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा में उसके प्राकृतिक ऐश्वर्यों का अस्तित्त्व रहता है, तथापि वे लगभग लुप्तप्राय हो जाते हैं । किन्तु परमात्मा अथवा श्रीभगवान् के ऐश्वर्यों का ह्रास कभी नहीं होता है, चाहे वे भौतिक जगत् में ही क्यों न प्रकट हों । वे समस्त ऐश्वर्यों एवं पूर्णताओं को सम्पूर्ण रूप से बनाए रखते हैं और फिर भी स्वयं को इस भौतिक जगत् के समस्त दुखों से अलग रखते हैं । बद्धात्मा इस भौतिक जगत् में फँस जाता है, जबकि परमात्मा अथवा श्रीभगवान् इसे बिना किसी मोह के उसी प्रकार त्याग देते हैं, जैसे सर्प अपनी केंचुल त्याग देता है । परमात्मा तथा बद्ध जीवात्मा में भेद यह है कि परमात्मा अथवा श्रीभगवान् अपने प्राकृतिक ऐश्वर्यों को बनाए रखते हैं । ये प्राकृतिक ऐश्वर्य षडैश्वर्य, अष्टसिद्धि तथा अष्टगुण हैं ।
अपनी अल्पज्ञता के कारण मायावादी दार्शनिक यह तथ्य विस्मृत कर देते हैं कि श्रीकृष्ण सदैव ही षडैश्वर्यों, अष्ट दिव्य गुणों तथा अष्ट सिद्धियों से परिपूर्ण रहते हैं । कोई भी धन, बल, सौन्दर्य, यश, ज्ञान तथा वैराग्य में श्रीकृष्ण से बढ़कर नहीं है । यही षडैश्चर्य हैं । श्रीकृष्ण के अष्ट दिव्य गुणों में सर्वप्रथम यह है कि भौतिक अस्तित्त्व का दूषण उन्हें कभी स्पर्श नहीं करता है । इस बात का उल्लेख ईशोपनिषद् में भी किया गया है-अपाप विद्धम्/जिस प्रकार सूर्य किसी भी दूषण से दूषित नहीं होता है उसी प्रकार परमेश्वर किसी भी पाप से दूषित नहीं होता है । उसी के समान यद्यपि कभी-कभी श्रीकृष्ण के कर्म अपवित्र प्रतीत हो सकते हैं, किन्तु वे ऐसे कर्मों से कभी भी दूषित नहीं होते हैं । द्वितीय दिव्य गुण है कि श्रीकृष्ण की कभी मृत्यु नहीं होती है । भगवद्-गीता के चौथे अध्याय में वे अर्जुन को सूचित करते हैं कि वे तथा अर्जुन दोनों ही अनेक बार इस भौतिक जगत् में प्रकट हो चुके हैं, किन्तु केवल श्रीकृष्ण ही भूत, भविष्य तथा वर्तमान की ऐसी समस्त गतिविधियों को स्मरण रखते हैं ।
इसका अर्थ है कि उनकी कभी मृत्यु नहीं होती है । विस्मृति का कारण मृत्यु है । जब हमारी मृत्यु होती है, तब हम अपना शरीर परिवर्तित करते हैं । वही विस्मृति है । किन्तु श्रीकृष्ण को कभी-भी विस्मृति नहीं होती है । वे भूतकाल में घटित प्रत्येक घटना का स्मरण कर सकते हैं । अन्यथा वे यह कैसे स्मरण कर सकते थे कि उन्होंने भगवद्-गीता में योग-प्रणाली का उपदेश प्रथम सूर्यदेव विवस्वान् को दिया था ? अतएव उनकी कभी भी मृत्यु नहीं होती है, न ही वे कभी वृद्ध प्रतीत होते । श्रीकृष्ण किसी भी पाप के द्वारा दूषित नहीं हो सकते हैं, श्रीकृष्ण की कभी मृत्यु नहीं होती है, श्रीकृष्ण कभी वृद्ध नहीं होते हैं तथा कभी भी शोक के भागी नहीं होते हैं । श्रीकृष्ण को कभी क्षुधा अथवा तृष्णा नहीं सताती है । वे जिस किसी वस्तु की भी इच्छा करते हैं, वह पूर्णत: नियमानूकूल है तथा वे जो कुछ भी निश्चय करते हैं उसे कोई परिवर्तित नहीं कर सकता है । ये श्रीकृष्ण के दिव्य गुण हैं । इसके अतिरिक्त श्रीकृष्ण योगेश्वर के नाम से भी विख्यात हैं । वे समस्त ऐश्वर्यों अथवा सिद्धियों के स्वामी हैं, जैसे कि अणिमा-सिद्धि अर्थात् सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म बनने की शक्ति । ब्रह्म-संहिता में कहा गया है कि श्रीकृष्ण ने अणु में भी प्रवेश किया है, अण्डान्तरस्थपरमाणु चयान्तरस्थम्/ इसी के समान गर्भोंदकशायी विष्णु के रूप में श्रीकृष्ण विशाल ब्रह्माण्ड में हैं तथा वे कारण समुद्र में महाविष्णु के रूप में इतने विशाल शरीर में शयन कर रहे हैं कि जब उच्छ्वास लेते हैं तब उनके शरीर से करोड़ों अरबों ब्रह्माण्ड निकलते हैं । इसे महिमा सिद्धि कहते हैं । श्रीकृष्ण लघिमा सिद्धि के भी स्वामी हैं । वे सर्वाधिक अल्प भार वाले बन सकते हैं । भगवद्-गीता में कहा गया है कि श्रीकृष्ण इस ब्रह्माण्ड तथा अणुओं में प्रवेश करते हैं, इसी कारण समस्त ग्रह वायु में तैर रहे हैं । भारहीनता की यही व्याख्या है । श्रीकृष्ण प्राप्ति नामक सिद्धि के भी स्वामी हैं-वे अपनी इच्छा होने पर कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं । इस भाँति उन्हें ईशिता अथवा नियंत्रण की शक्ति भी प्राप्त है । उन्हें परम नियन्ता, परमेश्वर कहा जाता है । इसके साथ-साथ श्रीकृष्ण किसी को भी अपने वश में कर सकते हैं । इसे वशिता कहते हैं । श्रीकृष्ण समस्त ऐश्वर्यों, दिव्य गुणों तथा सिद्धियों से युक्त हैं । किसी भी साधारण मानव की तुलना उनसे नहीं की जा सकती है । अतएव मायावादियों का यह सिद्धान्त कि परमात्मा तथा जीवात्मा एकसमान हैं, एक मिथ्या बुद्धि-मात्र है । अतएव निष्कर्ष यह है कि श्रीकृष्ण उपास्य हैं तथा अन्य समस्त जीव केवल उनके दास हैं । यह ज्ञान ही आत्म-साक्षात्कार कहलाता है । कहा जाता है कि जीव को श्रीभगवान् के बराबर बनने का प्रयास करने का आदेश देना माया का अन्तिम जाल है । मायावादी दार्शनिक ईश्वर के बराबर होने का दावा करता है, किन्तु वह इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता है कि वह भौतिक बन्धन में किस प्रकार पतित हुआ । यदि वह परमेश्वर है, तब यह किस प्रकार हुआ कि वह पापों में फँस गया और इस कारण कर्म के नियम के दुखों का विषय बना ? जब मायावादियों से यह प्रश्न किया जाता है, तब वे इसका उचित उत्तर नहीं दे पाते हैं । यह तर्क कि जीव श्रीभगवान् के बराबर है, पापमय जीवन का एक अन्य लक्षण है । जब तक व्यक्ति समस्त पापों से मुक्त नहीं होता है, तब तक वह कृष्णभावनामृत ग्रहण नहीं कर सकता । यह तथ्य कि मायावादी परमेश्वर से एकाकार होने का दावा करते हैं बताता है कि वह अभी पापपूर्ण कर्मों के फल से मुक्त नहीं हुआ । भगवद्-गीता के अनुसार ऐसे व्यक्ति अविशुद्ध बुद्धया हैं-इसका अर्थ है कि वे मिथ्या ही स्वयं को मुक्त समझते हैं, यद्यपि उसी के साथ वे स्वयं को परम सत्ता के बराबर भी मानते हैं । उनकी बुद्धि निर्मल नहीं है ।
मूर्तिमान् वेदों ने कहा कि यदि योगी तथा ज्ञानी स्वयं को पापेच्छाओं से मुक्त नहीं करते हैं, तब उनकी आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया कदापि सफल नहीं होगी । मूर्तिमान् वेदों ने आगे कहा, "प्रिय भगवन् ! यदि सन्त जन पापेच्छाओं को पूर्णत: निर्मूल करने की सावधानी नहीं बरतते हैं, तब यद्यपि परमात्मा जीवात्मा के साथ-साथ प्रतिष्ठित है, तथापि वे परमात्मा का अनुभव नहीं कर सकते हैं । समाधि अथवा ध्यान का अर्थ है कि व्यक्ति को अपने अन्दर परमात्मा को प्राप्त करना होता है । जो पापों से मुक्त नहीं है, वह परमात्मा के दर्शन नहीं कर सकता है । यदि कोई गले में रत्नजटित लॉकेट धारण करता है, किन्तु रत्न को विस्मृत कर देता है, तब यह लगभग वैसा ही है जैसे कि उसके पास रत्न हो ही नहीं । उसी भाँति यदि एक जीवात्मा समाधि लगाता है, किन्तु वस्तुत: अपने अन्दर में परमात्मा की उपस्थिति को नहीं देख पाता, तब उसे परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ है । अतएव जिन व्यक्तियों ने आत्म-साक्षात्कार के मार्ग को अपनाया है उन्हें माया के प्रभाव से अदूषित रहने के लिए अत्यधिक सावधान रहना चाहिए । श्रील रूप गोस्वामी का कथन है कि एक भक्त को समस्त प्रकार की भौतिक इच्छाओं से पूर्णतया मुक्त होना चाहिए । भक्त को कर्म तथा ज्ञान के फलस्वरूप होने वाले कर्मों से प्रभावित नहीं होना चाहिए । व्यक्ति को केवल श्रीकृष्ण को समझ कर उनकी इच्छाओं का पालन करना चाहिए । वही शुद्ध भक्ति की अवस्था है । कभी-भी इन्द्रियतृप्ति की दूषित इच्छाओं से युक्त योगी अपने प्रयास में सफल नहीं हो सकते हैं । न ही वे जीवात्मा के अन्दर परमात्मा का साक्षात्कार ही कर सकते हैं । इस प्रकार मानसिक तर्कवितर्क अथवा सीमित सिद्धियों के प्रदर्शन के द्वारा विभिन्न प्रकार की इन्द्रियतृप्ति में अपना समय नष्ट करने वाले योगी तथा ज्ञानी कभी भी बद्ध जीवन से मुक्त नहीं होंगे तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ेंगे । ऐसे व्यक्तियों के लिए यह जीवन तथा अगला जीवन दोनों ही दुःख के स्रोत बनते हैं । ऐसे पापी व्यक्ति इस जीवन में तो दुःख भोग ही रहे हैं और आत्म-साक्षात्कार में पूर्ण न होने के कारण वे अगले जीवन में और भी दुखों से व्यथित होंगे । पूर्णता प्राप्त करने के समस्त प्रयत्न करने पर भी इन्द्रियतृप्ति की इच्छाओं से दूषित ऐसे योगी इस जीवन तथा अगले जीवन में भी दुःख भोगते रहेंगे ।
इस सम्बन्ध में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने टिप्पणी की है कि संन्यासी तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए गृह त्याग करने वाले व्यक्ति भगवान् की भक्ति में संलग्न न हो कर यदि परोपकार के कार्यों से आकर्षित हो जाते हैं तब उन्हें केवल कष्ट ही प्राप्त होता है । भगवान् की सेवा न करके शिक्षा-संस्थान, अस्पताल अथवा मठ, चर्च एवं देवताओं के मन्दिर आदि खोलने के परोपकारी कर्म करने वाले संन्यासियों को भी ऐसे कार्यों से इस जन्म तथा अगले जन्म में भी केवल कष्ट ही प्राप्त होता है । जो इस जीवन का लाभ उठा कर श्रीकृष्ण से साक्षात्कार का प्रयास नहीं करते हैं, वे संन्यासी संन्यास-आश्रम के अधिकार क्षेत्र से बाहर की गतिविधियों में केवल अपना समय तथा शक्ति ही नष्ट करते हैं । किन्तु एक भक्त यदि भगवान् विष्णु के मन्दिर के निर्माण में अपनी शक्ति लगाता है, तब ऐसी गतिविधियों में व्यय की गई उसकी शक्ति कभी-भी व्यर्थ नहीं होती है । ऐसे कर्मों को कृष्णार्थ अखिल चेष्टा कहा जाता है । ये वे कर्म हैं, जो श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए किए जाते हैं । एक परोपकारी का स्कूल खोलना तथा एक भक्त का एक मन्दिर का निर्माण करना एक ही स्तर के कार्य नहीं हैं । यद्यपि परोपकारी के द्वारा एक शिक्षण संस्थान खोलना एक पुण्यकर्म हो सकता है किन्तु यह कर्म के नियमों के अन्तर्गत आता है, जबकि श्रीविष्णु के लिए मन्दिर का निर्माण करना भक्ति है ।
भक्ति कभी भी कर्म के नियम के अन्तर्गत नहीं आती है । भगवद्-गीता में कहा गया है कि भक्त भौतिक प्रकृति की प्रतिक्रिया से ऊपर होते हैं तथा ब्रम-साक्षात्कार के मंच पर अवस्थित होते हैं-ब्रमभूयाय कल्पते/ भगवद्गीता में कहा गया है, स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते-श्रीभगवान् के भक्त भौतिक प्रकृति के त्रिगुणों की प्रतिक्रिया से ऊपर उठ जाते हैं तथा वे दिव्य ब्रम-मंच पर स्थित होते हैं । भक्त इस जन्म तथा अगले जन्म दोनों में ही मुक्त होते हैं । इस भौतिक जगत् में यज्ञ, विष्णु अथवा श्रीकृष्ण के निमित्त किया गया कोई भी कार्य मुक्त कर्म समझा जाना चाहिए । किन्तु अच्युत श्रीभगवान् से सम्बन्धित न होने पर कर्म के नियम के प्रतिफल को रोकने की कोई सम्भावना नहीं है । कृष्णभावनामृत का जीवन मुक्ति का जीवन है । निष्कर्ष यह है कि भगवान् की कृपा से एक भक्त इस जीवन तथा अगले जीवन दोनों ही में मुक्त होता है, जबकि कर्मी, ज्ञानी तथा योगी इस जीवन अथवा अगले जीवन में कभी भी मुक्त नहीं होते हैं ।
मूर्तिमान् वेदों ने आगे कहा, "प्रिय भगवन् ! जिस किसी ने भी आपकी कृपा से आपके चरणकमलों के यश को समझ लिया है, वह भौतिक सुख-दुःख के प्रति निर्मम रहता है । जब तक हम इस भौतिक जगत् में हैं तब तक भौतिक दुःख अपरिहार्य है, किन्तु एक भक्त पुण्य तथा पापकर्मों के फल रूपी ऐसी क्रिया प्रतिक्रिया की ओर अपना ध्यान नहीं जाने देता है । न ही सामान्यतया लोगों की प्रशंसा अथवा निन्दा के द्वारा भक्त अत्यन्त विचलित अथवा प्रसन्न होता है । कभी-कभी अपनी दिव्य गतिविधियों के कारण भक्त जनसमुदाय के द्वारा अत्यधिक प्रशंसित होता है तथा कभी-कभी निन्दा का कारण न होने पर भी उसकी आलोचना की जाती है । साधारण लोगों के द्वारा की गई प्रशंसा अथवा निन्दा के प्रति शुद्ध भक्त सदैव ही निर्मम होता है । वस्तुत: भक्त की गतिविधियाँ दिव्य स्तर पर होती हैं । भौतिक गतिविधियों में संलग्न लोगों के द्वारा की गई स्तुति अथवा निन्दा में उसकी कोई रुचि नहीं होती है । इस प्रकार यदि भक्त अपनी दिव्य स्थिति को बनाए रखता है, तब श्रीभगवान् के द्वारा इस जीवन तथा अगले जीवन में उसका मोक्ष निश्चित है । इस भौतिक जगत् में भक्त को दिव्य स्थिति बनाए रखने के लिए उसे शुद्ध भक्तों की संगति की आवश्यकता होती है । विभिन्न युगों तथा विभिन्न अवतारों में भगवान् द्वारा की गई यशस्वी गतिविधियों (लीलाओं) के श्रवण-मात्र से भक्त अपनी दिव्य स्थिति को बनाए रखने में सक्षम होता है ।"
कृष्णभावनामृत-आन्दोलन इसी सिद्धान्त पर आधारित है । श्रील नरोत्तम दास ठाकुर ने गाया है, "प्रिय भगवन् ! जैसाकि पहले के आचार्यों ने इंगित किया है, मुझे अपनी दिव्य प्रेमा-भक्ति में संलग्न कर लीजिए, मुझे शुद्ध भक्तों की संगति में रहने दीजिए । जन्म-जन्मांतर से मेरी यही इच्छा है ।" दूसरे शब्दों में, वह मुक्त होता है अथवा नहीं, भक्त को इसकी चिन्ता नहीं होती है, किन्तु वह केवल भक्ति के लिए उत्सुक होता है । भक्ति का अर्थ है कि व्यक्ति आचार्यों की अनुमति से स्वतंत्र कुछ भी नहीं करता है । कृष्णभावनामृत के कार्यों का निर्देश पहले के आचार्यों ने दिया है, जिनमें से प्रमुख श्रील रूप गोस्वामी हैं । इन सिद्धान्तों का अनुसरण करने वाले भक्तों की संगति में भक्त अपनी दिव्य स्थिति को आदर्श रूप से बनाए रखने में समर्थ होता है ।
भगवद्-गीता में भगवान् कहते हैं कि उनको पूर्ण रूप से जानने वाला भक्त उन्हें अत्यन्त प्रिय है । चार प्रकार के पुण्यात्मा भक्ति को अंगीकार करते हैं । यदि कोई व्यक्ति पुण्यात्मा है, तब विपत्ति में वह अपने दुःख की शान्ति के लिए भगवान् के समीप जाता है । यदि पुण्यात्मा व्यक्ति को भौतिक सहायता की आवश्यकता होती है, तब भी वह इस सहायता के लिए भगवान् की प्रार्थना करता है । यदि कोई पुण्यात्मा व्यक्ति वास्तव में भगवद्विज्ञान के विषय में जिज्ञासु होता है, तब भी वह भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में जाता है । इसी भाँति केवल श्रीकृष्ण-विज्ञान को जानने के लिए उत्सुक पुण्यात्मा व्यक्ति भी परमेश्वर के समीप जाता है । मनुष्यों के इन चार वर्गों में से अन्तिम की प्रशंसा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भगवद्-गीता में की है । परमेश्वर के वैज्ञानिक ज्ञान में निपुण पूर्ण आचार्यों के चरणचिह्नों का अनुसरण करने से जो व्यक्ति पूर्ण ज्ञान तथा भक्ति के साथ श्रीकृष्ण को समझने का प्रयास करता है, वह प्रशंसनीय है । ऐसा भक्त यह समझ सकता है कि जीवन की अनुकूल तथा प्रतिकूल समस्त दशाएँ भगवान् की परम इच्छा द्वारा निर्मित हैं । जब वह परमेश्वर के चरणकमलों की शरण में पूर्णतया चला जाता है, तब उसे इस बात की चिन्ता नहीं रहती है कि उसके जीवन की परिस्थिति अनुकूल है अथवा प्रतिकूल । एक भक्त प्रतिकूल परिस्थति को भी श्रीभगवान् का विशेष अनुग्रह मानता है । वस्तुत: भक्त के लिए कोई प्रतिकूल परिस्थिति है ही नहीं । भगवान् की इच्छा से आने वाली प्रत्येक वस्तु को वह अनुकूल ही समझता है तथा जीवन की किसी भी परिस्थिति में वह केवल अपनी भक्ति के सम्पादन के लिए उत्सुक रहता है । इस भक्ति की प्रवृत्ति को भगवद्-गीता में स्पष्ट किया गया है-एक भक्त जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में कभी शोकाकुल नहीं होता है, न ही वह अनुकूल परिस्थितियों में अति प्रसन्न होता है । भक्ति के उच्चतर स्तरों में भक्त विधि-निषेधों की सूची से भी कोई सम्बन्ध नहीं रखता है । ऐसी दशा केवल आचार्यों के चरणचिह्नों का अनुसरण करके ही प्राप्त की जा सकती है । शुद्ध भक्त आचार्यों के चरणचिह्नों का अनुसरण करता है, अतएव भक्ति के सम्पादनार्थ जो भी कर्म करता है उसे दिव्य स्तर का समझना चाहिए । अतएव भगवान् श्रीकृष्ण हमें उपदेश देते हैं कि एक आचार्य आलोचनाओं से ऊपर होता है । एक नव-भक्त को स्वयं को आचार्य के स्तर का नहीं समझाना चाहिए । हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि आचार्य उसी स्तर पर हैं जिस स्तर पर श्रीभगवान् हैं और नव-भक्तों को श्रीकृष्ण की अथवा उनके प्रतिनिधि आचार्यों की किसी प्रकार की प्रतिकूल आलोचना नहीं करनी चाहिए ।
इस प्रकार मूर्तिमान् वेदों ने विभिन्न प्रकार से श्रीभगवान् की उपासना की । स्तुति करने के द्वारा श्रीभगवान् की उपासना करने का अर्थ है उनके दिव्य गुणों, लीलाओं तथा गतिविधियों का स्मरण करना । किन्तु भगवान् की लीलाएँ तथा गुण अनन्त हैं । हम लोगों के लिए भगवान् के समस्त गुणों का स्मरण करना सम्भव नहीं है । अतएव मूर्तिमान् वेदों ने अपने पूर्ण सामथ्रय भर भगवान् की उपासना की तथा अन्त में उन्होंने निम्न प्रकार से कहा ।
"प्रिय भगवन् ! यद्यपि उच्चतम लोक, ब्रम लोक के अधिष्ठाता देवता ब्रह्मा, स्वर्ग लोक के अधिष्ठाता देवता राजा इन्द्र, एवं सूर्य तथा चन्द्रलोकों के अधिष्ठाता देवता सभी इस भौतिक जगत् के विश्वस्त निर्देशक हैं, तथापि उन्हें आपके विषय में अत्यन्त अल्प ज्ञान है । फिर साधारण मानवों तथा चिन्तकों का तो कहना ही क्या ? भगवन् ! आपके अनन्त दिव्य गुणों की गणना करना किसी के लिए सम्भव नहीं है । उच्चतर लोकों के देवताओं तथा चिन्तकों सहित कोई भी आपके आकार एवं लक्षणों की लम्बाई, चौड़ाई का वास्तविक अनुमान लगाने में समर्थ नहीं है । भगवन् ! हमारे विचार में आपको स्वयं भी अपने दिव्य गुणों का पूर्ण ज्ञान नहीं है । इसका कारण यह है कि आप अनन्त हैं । यद्यपि आपके विषय में यह कहना कि आप स्वयं को नहीं जानते हैं योग्य नहीं दिखता है । किन्तु फिर भी इस बात को समझना व्यावहारिक है कि आपके गुण अनन्त हैं, शक्तियाँ अनन्त हैं तथा आपका ज्ञान भी अनन्त है, इस कारण आपके ज्ञान तथा आपकी शक्तियों के प्रकाश के मध्य प्रतिस्पर्धा है ।"
यहाँ पर धारणा यह है कि भगवान् तथा उनका ज्ञान दोनों ही अनन्त हैं, अतएव जैसे ही भगवान् को अपनी कुछ शक्तियों का ज्ञान होता है, वे देखते हैं कि उनकी और भी अधिक शक्तियाँ हैं । इस रीति से उनकी शक्तियों तथा उनके ज्ञान दोनों में ही वृद्धि होती है । यह दोनों ही अनन्त हैं, अतएव न तो शक्तियों का कोई अन्त हैं न ही मूर्तिमान् वेदों द्वारा स्तुति ज्ञान का कोई अन्त है, जिससे कि शक्तियों को समझा जा सके । भगवान् निस्सन्देह सर्वज्ञ हैं, किन्तु मूर्तिमान् वेदों का कथन है कि स्वयं भगवान् को भी अपनी सम्पूर्ण शक्तियों का पूर्ण ज्ञान नहीं है । इसका यह अर्थ नहीं है कि भगवान् सर्वज्ञ नहीं हैं । जब कोई वास्तविक तथ्य किसी विशेष व्यक्ति को ज्ञात नहीं होता है, तब उसे अज्ञान कहते हैं । यह बात भगवान् के विषय में लागू नहीं होती है, क्योंकि वे स्वयं को पूर्णरूपेण जानते हैं, किन्तु फिर भी उनकी शक्तियों तथा गतिविधियों में वृद्धि होती रहती है । अतएव वे इनको समझने के लिए अपने ज्ञान में भी वृद्धि करते हैं । दोनों की ही अनन्त रूप से वृद्धि होती रहती है और इसका कोई अन्त नहीं है । इसी अर्थ में कहा जा सकता है कि स्वयं भगवान् भी अपनी शक्तियों तथा गुणों की सीमा को नहीं जानते हैं ।
कोई बुद्धिमान तथा गम्भीर जीव इस बात का मोटा अनुमान लगा सकता है कि किस प्रकार अपनी शक्तियों एवं गतिविधियों में भगवान् अनन्त हैं । वैदिक साहित्य में कहा गया है कि जब अपनी योगनिद्रा में महाविष्णु उच्छास लेते हैं तब अंसख्य ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति होती है तथा जब वे पुनः श्वास लेते हैं तब अंसख्य ब्रह्माण्ड उनके शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं । हमें इस बात की कल्पना करनी होगी कि हमारे सीमित ज्ञान के अनुसार ये ब्रह्माण्ड असीम रूप से विस्तृत हैं । ये इतने विशाल हैं कि इनकी स्थूल सामग्री अर्थात् भूमि, जल, अग्नि, आकाश तथा वायु नामक सृष्टि के पंचभूत न केवल ब्रह्माण्ड के अन्दर हैं, अपितु वे सात कोशों में ब्रह्माण्ड को आच्छादित किए हुए हैं । इन सात कोशों में प्रत्येक अपने से पहले के कोश से दस गुना बड़ा है । इस रीति से प्रत्येक ब्रह्माण्ड भलीभाँति बँधा हुआ है तथा ब्रह्माण्ड अगणित हैं । महाविष्णु के दिव्य शरीर के अगणित रोमकूपों में ये समस्त ब्रह्माण्ड तैर रहे हैं । कहा गया है कि जिस प्रकार पक्षियों के साथ वायु में परमाणु तथा धूल के कण तैर रहे हैं तथा उनकी संख्या की गणना नहीं की जा सकती है, उसी प्रकार भगवान् के दिव्य शरीर के रोमकूपों में असंख्य ब्रह्माण्ड तैर रहे हैं । इसी कारणवश वेद कहते हैं कि भगवान् हमारे ज्ञान की क्षमता से परे हैं । अवांमनसगोचर-भगवान् के विस्तार को समझना हमारे मानसिक चिन्तन के अधिकार-क्षेत्र के बाहर है । अतएव वास्तव में जो विद्वान तथा बुद्धिमान व्यक्ति है, वह भगवान् होने का दावा नहीं करता है, अपितु आत्मा तथा पदार्थ के मध्य भेद करते हुए भगवान् को समझने का प्रयास करता है । इस प्रकार सावधानीपूर्वक किए गए भेद के द्वारा व्यक्ति को यह तथ्य स्पष्ट रूप से समझ में आ सकता है कि परमात्मा प्रकृति तथा अपरा प्रकृति दोनों से ही ऊपर है । यद्यपि भगवान् का दोनों प्रकृतियों से ही सीधा सम्पर्क है, तथापि वे दोनों से ऊपर हैं । भगवद्-गीता में भगवान् ने स्पष्ट किया है कि यद्यपि प्रत्येक वस्तु उनकी शक्ति पर आश्रित है, तथापि वे उस शक्ति से अलग अथवा भिन्न हैं ।
प्रकृति तथा जीव को कभी-कभी क्रमश: प्रकृति एवं पुरुष भी कहा जाता है । समस्त सृष्टि प्रकृति एवं पुरुष का एक मिश्रण ही है । प्रकृति समग्रीभूत कारण है तथा जीव फलोत्पादक कारण हैं । यदि दोनों कारण एकसाथ संयुक्त होते हैं, तो उसका परिणाम यह सृष्टि है । जब कोई व्यक्ति सौभाग्यवश इस सृष्टि तथा इसनें होने वाली प्रत्येक वस्तु के विषय में ठीक निष्कर्ष पर पहुँच जाता है, तब उसे ज्ञात हो जाता है कि इसका कारण प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से श्रीभगवान् स्वयं ही हैं । अतएव ब्रम-संहिता में यह निष्कर्ष निकाला गया है-
ईश्वरःपरमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः ।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् । ।
जब अत्यधिक चिन्तन तथा विचार के उपरान्त व्यक्ति को ज्ञान की पूर्णता प्राप्त हो जाती है, तब वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि श्रीकृष्ण अथवा भगवान् समस्त कारणों के मूल कारण हैं । भगवान् की नाप-तौल के विषय में अनुमान लगाने कि वे इतने लम्बे हैं, इतने चौड़े हैं-अथवा दार्शनिक चिन्तन करने के स्थान पर व्यक्ति को ब्रम-संहिता के निष्कर्ष पर आ जाना चाहिए- सर्वकारणकारणम्-"श्रीकृष्ण अथवा भगवान् समस्त कारणों के कारण हैं ।" यही ज्ञान की पूर्णता है । इस प्रकार यह वेद-स्तुति, मूर्तिमान् वेदो द्वारा गर्भोंदकशायी विष्णु को अर्पित की गई स्तुति, गुरु-परम्परा में सर्वप्रथम सनन्दन ने अपने भाइयों को सुनाया । ये सभी भाई ब्रह्मा की सन्तान थे । प्रारम्भ में चारों कुमार ब्रह्माजी की प्रथम सन्तान थे, अतएव उन्हें पूर्वजात के नाम से भी जाना जाता है । भगवद्-गीता में कहा गया है कि परम्परा-प्रणाली अथवा गुरु-परम्परा का प्रारम्भ स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण से होता है । इसी भाँति, यहाँ मूर्तिमान् वेदों की स्तुति में गुरु-परम्परा प्रणाली का प्रारम्भ भगवान् श्रीनारायण ऋषि से समझना चाहिए । हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इस वेदस्तुति को कुमार सनन्दन सुना रहे हैं तथा उस कथन की पुनरावृत्ति श्रीनारायण ऋषि बद्रिकाश्रम में कर रहे हैं । कठोर तपश्चर्या के द्वारा आत्म-साक्षात्कार का मार्ग हमें दिखाने के लिए श्रीकृष्ण के अवतार श्रीनारायण ऋषि ने भक्ति के पथ को प्रदर्शित किया है । इस युग में भगवान् चैतन्य ने एक शुद्ध भक्त की भूमिका में अपने को रखकर प्रेमाभक्ति का मार्ग प्रदर्शित किया । इसी भाँति विगत युग में श्रीनारायण ऋषि श्रीकृष्ण के अवतार थे जिन्होंने हिमालय पर घोर तपस्या की थी । नारद मुनि उनसे वेद-स्तुति का श्रवण कर रहे थे । इस प्रकार कुमार सनन्दन के जिसका वेद-स्तुति के रूप में कथन किया था तथा जिसे श्रीनारायण ऋषि नारद मुनि को सुना रहे थे, उस कथन में यह स्पष्ट समझ में आ जाता है कि भगवान् एकमेव परम सत्ता हैं तथा अन्य सब उनके सेवक अथवा पार्षद हैं ।
श्रीचैतन्यचरितामृत में यह कहा गया है कि एकला ईश्वर कृष्ण-“श्रीकृष्ण एकमात्र परमेश्वर हैं । और सब भ्रत्य-"अन्य सब उनके सेवक हैं ।” जारे जाइच्छे नाचाय, से तैच्छे करे नृत्य-अपनी इच्छा के अनुसार परमेश्वर समस्त जीवों को विभिन्न गतिविधियों में संलग्न कर रहे हैं और इस प्रकार वे (जीव) अपनी विभिन्न प्रवृत्तियों तथा प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहे हैं । इस प्रकार श्रीभगवान् तथा जीवों के मध्य सम्बन्ध के विषय में यह वेद-स्तुति मौलिक उपदेश है । जीव के लिए साक्षात्कार का चरम स्तर इस भक्ति-जीवन की प्राप्ति है । जब तक व्यक्ति भौतिक दूषणों से पूर्णतया मुक्त नहीं हो जाता है, वह भक्ति-जीवन अथवा कृष्णभावनामृत में संलग्न नहीं हो सकता है । श्रीनारायण ऋषि ने नारदमुनि को सूचित किया कि वेदों तथा (चारों वेद, उपनिषद, पुराण आदि) वैदिक साहित्य का सार हमें भगवान् की प्रेमपूर्ण सेवा करने की शिक्षा देता है । इस सन्दर्भ में श्रीनारायण ऋषि ने एक विशेष शब्द रस का उपयोग किया है । भक्ति में यह रस जीव तथा भगवान् के मध्य सम्बन्धों के आदान-प्रदान का साधन अथवा आधारभूत सिद्धान्त है । रस का वर्णन वेदों में ईशावास्य के रूप में भी किया गया है-"परमेश्वर समस्त सुखों के सागर हैं ।" पुराण, वेद, उपनिषद तथा वेदान्त-सूत्र आदि समस्त वैदिक साहित्य जीवों को यही शिक्षा देते हैं कि किस प्रकार रस की स्थिति को प्राप्त किया जाए । भागवत में भी कहा गया है कि महापुराण (श्रीमद्-भागवत) के कथनों में समस्त वैदिक साहित्य के रसों का सार निहित है । निगमकल्परोर्गलितं फलसू/ वैदिक साहत्यि के वृक्ष में भागवत परिपक्व फल का सार है ।
हमें ज्ञात है कि श्रीभगवान् के श्वास के साथ चारों वेद निकले हैं । ये चारों वेद हैं । ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद । वेदों के साथ ही इतिहास, जैसे महाभारत तथा समस्त पुराणों का भी उद्भव हुआ । इन्हें विश्व का इतिहास भी माना जाता है । पुराणों तथा महाभारत जैसे वैदिक इतिहासों को पंचम वेद भी कहा जाता है । वेदस्तुति के श्लोकों को समस्त वैदिक ज्ञान का सार मानना चाहिए । चारों कुमार तथा अन्य समस्त प्रामाणिक ऋषियों को यह भलीभाँति ज्ञात है कि कृष्णभावनामृत में भक्ति ही समस्त वैदिक साहित्य का सार है । वे बाह्य अन्तरिक्ष में यात्रा करते हुए विभिन्न लोकों को इसी का उपदेश दे रहे हैं । यहाँ कहा गया है कि नारदमुनि सहित ऐसे ऋषि कदाचित् ही भूमि पर यात्रा करते हैं, वे निरन्तर अन्तरिक्ष में यात्रा कर रहे हैं ।
नारद तथा कुमार जैसे ऋषिगण ब्रह्माण्ड-भर में बद्धात्माओं को शिक्षित करने तथा उन्हें यह दिखाने के लिए यात्रा करते रहते है कि जगत् में उनका कार्य इन्द्रियतृप्ति नहीं है, अपितु श्रीभगवान् की भक्तिसेवा के अपने मौलिक पद पर अपनी पुन:प्रतिष्ठा है । अनेक स्थानों पर यह कहा गया है कि जीव अग्नि के स्फुलिंगों की भाँति हैं तथा श्रीभगवान् स्वयं अग्नि के समान हैं । किसी भाँति जब अग्निकण अग्नि से बाहर गिर जाते हैं तब वे अपनी स्वाभाविक प्रभा खो देते हैं । इस प्रकार यह पुष्टि की गई है कि जीव इस भौतिक जगत् में ठीक उसी भाँति आते हैं जिस भाँति एक विशाल अग्नि से अग्निकण गिरते हैं । जीव श्रीकृष्ण का अनुकरण करना चाहता है तथा वह भौतिक प्रकृति पर प्रभुता प्राप्त करने का प्रयास करता है । इस प्रकार वह अपनी मौलिक स्थिति को भूल जाता है और उसकी प्रकाशित होने की शक्ति, उसकी आध्यात्मिक पहचान समाप्त हो जाती है । किन्तु यदि कोई जीव कृष्णभावनामृत को अंगीकार कर लेता है, तब वह अपने पूर्व पद पर पुन: प्रतिष्ठित कर दिया जाता है । नारद तथा कुमारों जैसे ऋषि-मुनि लोगों को शिक्षा देते हुए समस्त ब्रह्माण्ड में यात्रा कर रहे हैं । वे अपने शिष्यों को भी भक्ति की इस प्रणाली का उपदेश देने को प्रोत्साहित करते हैं जिससे कि समस्त बद्धजीव अपनी मौलिक चेतना अथवा कृष्णभावनामृत को पुनर्जीवित करने में समर्थ हो सकें और इस प्रकार भौतिक जीवन की दुःखमय दशा से मुक्ति पा सकें । श्रीनारद मुनि नैष्टिक-ब्रह्मचारी हैं । ब्रह्मचारी चार प्रकार के होते हैं । प्रथम प्रकार के ब्रह्मचारी को सावित्र ब्रह्मचारी कहते हैं । यह वे ब्रह्मचारी होते हैं जिनके लिए दीक्षा तथा यज्ञोपवीत संस्कार के उपरान्त कम से कम तीन दिवस तक ब्रमचर्य का पालन आवश्यक होता है । अगले ब्रह्मचारी को प्रजापत्य ब्रह्मचारी कहते हैं, जिनके लिए दीक्षा के उपरान्त कम से कम एक वर्ष तक पूर्ण ब्रमचर्य का पालन करना आवश्यक होता है । अगले ब्रह्मचारी को ब्रम-ब्रह्मचारी कहते हैं, जो दीक्षा के समय से वैदिक साहित्य के अध्ययन के पूर्ण होने तक ब्रमचर्य का पालन करते हैं । अगले स्तर के ब्रह्मचारी नैष्ठिक कहलाते हैं । ये वे ब्रह्मचारी होते हैं, जो अपने सम्पूर्ण जीवन में ब्रमचर्य पालन करते हैं । इनमें से प्रथम तीन को उपक्रम कहते हैं, जिसका अर्थ है कि ब्रमचर्य-काल के समाप्त होने के पश्चात् ब्रह्मचारी बाद में विवाह कर सकता है । किन्तु नैष्ठिक ब्रह्मचारी रुत्री-सम्बन्ध से पूर्णतया विमुख होते हैं, अतएव कुमारों तथा नारदमुनि को नैष्टिक ब्रह्मचारी कहा जाता है । जीवन में ब्रह्मचारीप्रणाली इसलिए विशेष रूप से लाभप्रद है, क्योंकि यह स्मृति तथा दृढ़निश्चय की शक्ति में वृद्धि करती है । इस सम्बन्ध में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि नैष्टिक ब्रह्मचारी होने के कारण नारदमुनि अपने गुरु से जो भी सुनते थे वह उन्हें स्मरण रहता था । वे उसे कभी भी भूलते नहीं थे । वह व्यक्ति जो निरन्तर प्रत्येक वस्तु को स्मरण रख सकता है “श्रुतधर" कहलाता है । एक श्रुतधर ब्रह्मचारी समस्त सुनी हुई बातों को बिना लिखे अथवा पुस्तकों में देखे शब्दश: दुहरा सकता है । महर्षि नारद के पास यह गुण है, अतएव श्रीनारायण ऋषि से उपदेश ले कर वे भक्ति के दर्शन का प्रसार समस्त जगत् में करने में संलग्न हैं । ऐसे महर्षियों को प्रत्येक बात का स्मरण रहता है । इस प्रकार अपने गुरु श्रीनारायण ऋषि का उपदेश सुन कर महर्षि नारद पूर्ण ज्ञानी बन गए । वे सत्य में स्थित तथा इतने प्रसन्न हो गए कि उन्होंने श्रीनारायण ऋषि की निम्न प्रकार से स्तुति की ।
एक नैष्टिक ब्रह्मचारी को वीर-व्रत भी कहा जाता है । नारद मुनि ने श्रीनारायण ऋषि को श्रीकृष्ण का अवतार कह कर सम्बेधित किया तथा उन्हें विशेष रूप से बद्धात्माओं का परम हितैषी कहा । भगवद्-गीता में कहा गया है कि भगवान् श्रीकृष्ण प्रत्येक युग में भक्तों की रक्षा तथा अभक्तों के संहार के लिए भी अवतरित होते हैं । श्रीकृष्ण का अवतार होने के कारण श्री नारायण ऋषि को भी बद्धात्माओं का हितैषी कह कर सम्बोधित किया गया है । जैसाकि भगवद्-गीता में कहा गया है, प्रत्येक व्यक्ति को यह ज्ञात होना चाहिए कि श्रीकृष्ण के समान हितैषी और कोई भी नहीं है । प्रत्येक प्राणी को यह समझना चाहिए कि श्रीकृष्ण सबके हितचिन्तक हैं तथा सबको श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करनी चाहिए । इस प्रकार यह जानते हुए कि उसका कोई ऐसा हितैषी है, जो उसे सर्व सुरक्षा प्रदान कर सकता है, व्यक्ति पूर्णतया विश्वस्त तथा सन्तुष्ट हो जाता है । स्वयं श्रीकृष्ण, उनके अवतार तथा स्वांश बद्धजीवों के परम शुभेच्छु हैं, किन्तु कृष्ण असुरों के भी हितैषी हैं, क्योंकि उन्होंने अपने को मारने के लिए वृन्दावन आए हुए समस्त असुरों का उद्धार करके उन्हें मोक्ष प्रदान किया । अतएव श्रीकृष्ण के कल्याण-कार्य पूर्ण हैं, क्योंकि चाहे वे एक असुर का संहार करते हों या एक भक्त को सुरक्षा प्रदान करते हों, उनकी गतिविधियाँ एकसमान ही हैं । कहा गया है कि असुरिनी पूतना को श्रीकृष्ण की माता के समान उच्च स्थान दिया गया था । जब श्रीकृष्ण है । किन्तु भगवान् एक शुद्ध भक्त की सदैव ही रक्षा करते हैं । अपने गुरु को प्रणाम करने के उपरान्त नारद मुनि व्यासदेव के आश्रम में गए और सम्पूर्ण कथा अपने शिष्य को सुनाई । वहाँ पहुँचने पर व्यास देव ने अपने आश्रम में नारद मुनि का समुचित सत्कार किया तथा उन्हें सुखपूर्वक बैठाया । सुखपूर्वक आसीन होने के उपरान्त नारद मुनि ने श्रीनारायण ऋषि से श्रवण किया हुआ पूर्ण वृतान्त कहना प्रारम्भ किया ।
इस प्रकार राजा परीक्षित के वेदों के ज्ञान के सार तथा वेदों के अनुसार जीवन के चरम लक्ष्य सम्बन्धी प्रश्नों का श्रीशुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया । जीवन का परम लक्ष्य श्रीभगवान् के दिव्य आशीर्वाद को प्राप्त करना और इस प्रकार भगवान् की प्रेमसेवा में संलग्न हो जाना है । व्यक्ति को श्रीशुकदेव गोस्वामी तथा गुरु-परम्परा में स्थित समस्त वैष्णवों के चरणचिह्नों पर चलना चाहिए तथा भगवान् श्रीकृष्ण अर्थात् भगवान् श्रीहरि को सादर प्रणाम करना चाहिए । वैष्णव गुरु-परम्परा के चारों सम्प्रदाय-रामानुज सम्प्रदाय, मध्व सम्प्रदाय, विष्णुस्वामी सम्प्रदाय तथा निम्बार्क सम्प्रदाय-समस्त वैदिक निष्कर्षों के अनुरूप इस बात पर एकमत हैं कि व्यक्ति को श्रीभगवान् की शरण में जाना चाहिए ।
वैदिक साहित्य के दो भाग किए गए हैं-श्रुतियाँ तथा स्मृतियाँ । चारों वेदऋक्,साम, अथर्व तथा यजुः तथा उपनिषद् श्रुतियाँ हैं । भगवद्-गीता सहित महाभारत तथा पुराण स्मृतियाँ हैं । इन सबका निष्कर्ष यही है कि व्यक्ति को श्रीभगवान् के रूप में श्रीकृष्ण का ज्ञान होना चाहिए । वे परम-पुरुष अथवा श्रीभगवान् हैं जिनके निरीक्षण में भौतिक प्रकृति कार्य करती है, उसका निर्माण, पालन व संहार होता है । सृष्टि की रचना के उपरान्त परमेश्वर ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के रूप में अवतरित होते हैं । ये तीनों भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों का कार्यभार सँभालते हैं, किन्तु परम निर्देशन भगवान् विष्णु के हाथ में ही रहता है । त्रिगुणों के अन्तर्गत भौतिक प्रकृति की सम्पूर्ण गतिविधियों का संचालन भगवान् श्रीकृष्ण के निर्देशन में हो रहा है । इसकी पुष्टि भगवद्-गीता, न्यादर्शन तथा वेदों में की गई है ।
नास्तिक सांख्यवादी दार्शनिक अपना तर्क प्रस्तुत करते हैं की भौतिक सृष्टि प्रकृति तथा पुरुष के कारण होती है । उनका तर्क है कि प्रकृति तथा भौतिक शक्ति भौतिक कारण तथा सार्थक कारण बनते हैं । किन्तु श्रीकृष्ण समस्त कारणों के कारण हैं । वे समस्त समग्रीभूत कारण तथा सार्थक कारणों के कारण हैं । प्रकृति एवं पुरुष अन्तिम कारण नहीं हैं । ऊपरी तौर पर ऐसा प्रतीत होता है कि माता-पिता के संयोग से शिशु का जन्म होता है, किन्तु माता तथा पिता के भी अन्तिम कारण श्रीकृष्ण हैं । अतएव वे ही मूल कारण हैं अथवा जैसाकि ब्रम-सहित) में कहा गया है वे समस्त कारणों के कारण हैं ।
भौतिक प्रकृति में परमेश्वर तथा जीव दोनों ही प्रवेश करते हैं । अपने एक अंश के द्वारा परमेश्वर श्रीकृष्ण, क्षीरोदकशायी विष्णु तथा कारण-सागर में शयन करने वाले विशालकाय विष्णु रूप, महाविष्णु के रूप में प्रकट होते हैं । तत्पश्चात् महाविष्णु के विशाल रूप में से गर्भोंदकशायी विष्णु प्रत्येक ब्रह्माण्ड में विस्तार करते हैं । उनसे ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का विस्तार होता है । विष्णु प्रत्येक जीव के हृदय तथा साथ ही साथ अणु सहित प्रत्येक भौतिक तत्त्व में प्रवेश कर जाते हैं । ब्रह्मसंहिता में कहा गया है-अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थसम /वे इस ब्रह्माण्ड के अन्दर हैं तथा प्रत्येक अणु में भी हैं ।
विभिन्न योनियों तथा रूपों से प्राप्त जीव का एक क्षुद्र भौतिक शरीर होता है, उसी के समान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड श्रीभगवान् का भौतिक शरीर ही है, अन्य कुछ नहीं । शास्त्रों में इस शरीर को विराट रूप कहा गया है । जैसे एक विशेष जीव अपने विशेष शरीर का पालन करता है, वैसे ही श्रीभगवान् सम्पूर्ण सृष्टि तथा इसमें की प्रत्येक वस्तु का पालन करते हैं । जैसे ही जीव भौतिक शरीर का त्याग करता है, वैसे ही शरीर का नाश हो जाता है । इसी भाँति जैसे ही भगवान् विष्णु सृष्टि का त्याग करते हैं वैसे ही हर वस्तु का नाश हो जाता है । जब जीव श्रीभगवान् की शरण ग्रहण करता है, तब ही भौतिक अस्तित्त्व से उसकी मुक्ति निश्चित होती है । इस तथ्य की पुष्टि भगवद्-गीता में भी की गई है- मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेता तरन्ति ते/ अतएव श्रीभगवान् की शरण में जाना ही मुक्ति का एकमात्र कारण है, अन्य कुछ नहीं । जीव भगवान् की शरण में जाने के पश्चात् किस प्रकार भौतिक प्रकृति के गुणों से मुक्त होता है, यह एक कमरे में सो रहे व्यक्ति के उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है । जब एक व्यक्ति शयन कर रहा होता है, तब प्रत्येक व्यक्ति देखता है कि वह कमरे में उपस्थित है, किन्तु वास्तव में वह व्यक्ति स्वयं उस शरीर में नहीं होता है, क्योंकि सुप्तावस्था में व्यक्ति अपने दैहिक अस्तित्त्व को भूल जाता है । यद्यपि अन्य लोग उसके शरीर की उपस्थिति को देख सकते हैं, किन्तु सोया हुआ व्यक्ति स्वयं शारीरिक अस्तित्त्व को भूल जाता है । इसी के समान भगवान् की भक्ति में संलग्न एक मुक्त व्यक्ति को अन्य लोग भौतिक जगत् के गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों में संलग्न देख सकते हैं । किन्तु उस भक्त की भावना पूर्णरूपेण श्रीकृष्ण में केन्द्रित है, अतएव वह इस जगत् में निवास नहीं करता है । उसके कार्यकलाप ठीक उसी प्रकार से जगत् के अन्य लोगों के कार्यकलापों से भिन्न हैं, जिस प्रकार सुप्त व्यक्ति के कार्यकलाप उसके शरीर के कार्यकलापों से भिन्न हैं । भगवद्-गीता में इस बात की पुष्टि की गई है कि भगवान् की दिव्य प्रेमा-भक्ति में सदैव संलग्न एक भक्त ने पहले से ही भौतिक प्रकृति के त्रिगुणों के प्रभाव पर विजय प्राप्त कर ली है । यद्यपि वह सशरीर अथवा इस भौतिक जगत् में निवास करता प्रतीत होता है, तथापि वह पहले से ही अध्यात्म-ज्ञान के ब्रम-पद पर स्थित है ।
इस सम्बन्ध में श्रील रूप गोस्वामी ने भक्तिरसामृत-सिंधु में कहा है कि जिस व्यक्ति की एकमात्र इच्छा श्रीभगवान् की सेवा करने की होती है, वह भौतिक जगत् में चाहे किसी भी दशा में रहे, उसे जीवन्मुक्त समझना चाहिए । इसका अर्थ है कि भौतिक जगत् अथवा शरीर में रहते हुए भी उसे मुक्त मानना चाहिए । अतएव निष्कर्ष यह निकलता है कि कृष्णभावनामृत में पूर्णरूपेण संलग्न व्यक्ति मुक्त व्यक्ति है । ऐसे व्यक्ति को भौतिक जगत् से कोई सरोकार नहीं होता है । जो लोग कृष्णभावनामृत में स्थित नहीं हैं उन्हें कर्मी अथवा ज्ञानी कहा जाता है । वे शारीरिक अथवा मानसिक स्तर पर भटकते रहते हैं तथा मुक्त नहीं होते हैं । इस स्थिति को कैवल्य-निरस्तयोनि कहा जाता है । दिव्य मंच पर स्थित व्यक्ति जीवन-मरण की पुनरावृत्ति से मुक्त हो जाता है । इसकी पुष्टि भगवद्-गीता के चौथे अध्याय में भी की गई है । श्रीभगवान् के दिव्य स्वभाव के ज्ञान-मात्र से व्यक्ति जन्म-मरण की पुनरावृत्ति के बन्धन से मुक्त हो जाता है तथा वर्तमान शरीर को त्यागने के उपरान्त वह अपने घर, भगवान् के धाम, लौट जाता है । समस्त वेदों का यही निष्कर्ष है । इस प्रकार मूर्तिमान् वेदों द्वारा की गई स्तुति को समझने के उपरान्त व्यक्ति को भगवान् श्रीकृष्ण के पदारविन्दों की शरण में जाना चाहिए । |