हिंदी में पढ़े और सुनें
श्रीकृष्ण - लीला पुरुषोत्तम भगवान  »  अध्याय 90: भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं का संक्षिप्त विवरण  » 
 
 
 
 
 
श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन स्वयं अध्यात्मलोक की यात्रा से लौटने के उपरान्त अत्यन्त चकित हो गए थे । उन्होनें विचार किया कि यद्यपि वे एक साधारण मानव थे, तथापि श्रीकृष्ण की कृपा से वे अध्यात्मलोक के स्वयं दर्शन करने में समर्थ हुए थे । उन्होनें न के वल अध्यात्मलोक के दर्शन किए थे, अपितु उन्होनें भौतिक सृष्टि के कारण, मूल महाविष्णु के भी स्वयं दर्शन किए थे । कहा जाता है कि श्रीकृष्ण कभी वृन्दावन से बाहर नहीं जाते हैं-वृन्दावनं परित्यज्य न पादमेकं गच्छति । मथुरा में श्रीकृष्ण श्रेष्ठ हैं, द्वारका में श्रेष्ठतर हैं तथा वृन्दावन में वे श्रेष्ठतम हैं ।
द्वारका में श्रीकृष्ण की लीलाओं का प्रदर्शन उनके वासुदेव अंश ने किया है, फिर भी मथुरा व द्वारका में प्रकाशित वासुदेव अंश तथा वृन्दावन में श्रीकृष्ण के मूल प्रकाश में कोई भेद नहीं है । इस पुस्तक के प्रारम्भ में हमने विवेचना की है कि जब श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं तब उनके समस्त अवतार, अंश तथा अंशों के अंश उनके साथ आते हैं ।
इस प्रकार उनकी विभिन्न लीलाओं में से कु छ का प्रकाश स्वयं मूल श्रीकृष्ण के द्वारा न होकर उनके विभिन्न अंशों तथा अवतारों के अंशों द्वारा होता है । अतएव अर्जुन को यह समझ में नहीं आ रहा था कि अध्यात्मलोक में कारणार्णवशायी विष्णु के दर्शन हेतु श्रीकृष्ण किस प्रकार गए । इसकी पूर्ण विवेचना श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकु र की टीका में की गई है ।
महाविष्णु के कथन से समझ में आता है, वे श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए अत्यन्त उत्सुक थे । किन्तु यह कहा जा सकता है कि महाविष्णु ने ब्राह्मणपुत्रों का हरण किया था, अतएव ऐसा करने के लिए वे द्वारका अवश्य ही गए होगंे । अत: उन्होनें वहीं श्रीकृष्ण के दर्शन क्यों नहीं किए ? एक उत्तर यह हो सकता है कि जब तक श्रीकृष्ण की अनुमति न हो तब तक कारणार्णव में शयन करने वाले महाविष्णु भी उनके दर्शन नहींकर सकते हैं । इस प्रकार उनके जन्म के तत्काल बाद, एक के पश्चात् एक ब्राह्मण पुत्रों को महाविष्णु हर ले गए, जिससे कि श्रीकृष्ण स्वयं उन्हें ले जाने के लिए आएँ तब महाविष्णु वहाँ उनके दर्शन कर सकें । यदि ऐसा था तब दूसरा प्रश्न यह है-यदि वे श्रीकृष्ण के दर्शन नहीं कर सकते थे तब महाविष्णु स्वयं क्यों द्वारका आए ? उन्होनें ब्राह्मणपुत्रों का हरण करने के लिए अपने कु छ पार्षदों को क्यों नहीं भेजा ? यह एक उत्तर सम्भव हो सकता है कि श्रीकृष्ण की उपस्थिति में द्वारका के किसी भी नागरिक को कष्ट देना अत्यन्त कठिन है । अतएव महाविष्णु के किसी भी पार्षद के लिए ब्राह्मणपुत्रों का हरण करना असम्भव था, इसलिए वे उन्हें ले जाने के लिए स्वयं आए ।
अन्य एक प्रश्न भी उठाया जा सकता है कि भगवान् को ब्रमण्यदेव के रूप में जाना जाता है, ब्राह्मणों के उपास्यदेव, अत: एक के बाद एक नवें पुत्र के हरण तक, एक ब्राह्मण को ऐसी शोकपूर्ण भयंकर स्थिति में डालने में भगवान् की रुचि क्यों थी ? उत्तर यह है कि भगवान् महाविष्णु श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए इतने उत्सुक थे कि वे एक ब्राह्मण को कष्ट देने में भी नहीं हिचकिचाए । यद्यपि ब्राह्मण को कष्ट देना वर्जित है, तथापि भगवान् विष्णु श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए इतने उत्सुक थे कि वे उनके दर्शन के लिए कु छ भी करने को तत्पर थे । अपने प्रत्येक पुत्र को खोने के पश्चात् ब्राह्मण राजमहल के द्वार पर आकर राजा पर ब्राह्मणों की रक्षा में असमर्थता का आरोप लगा कर, उन्हें राजसिंहासन पर बैठने के अयोग्य ठहराता था । महाविष्णु की योजना थी कि ब्राह्मण क्षत्रियों तथा श्रीकृष्ण पर दोषारोपण करेगा तथा श्रीकृष्ण उसके पुत्रों को ले जाने के लिए आकर उनसे भेंट करने को बाध्य हो जाएँगे ।
और भी एक प्रश्न उठाया जा सकता है-यदि महाविष्णु श्रीकृष्ण का दर्शन नहीं कर सकते हैं तब ब्राह्मणपुत्रों को वापस ले जाने के लिए श्रीकृष्ण उनके सम्मुख आने को किस प्रकार बाध्य हुए ? उत्तर यह है कि श्रीकृष्ण का भगवान् महाविष्णु से भेंट करने जाना, ब्राह्मणपुत्रों को वापस लाने के लिए नहीं, अपितु के वल अर्जुन के लिए था । अर्जुन से उनकी मैत्री इतनी घनिष्ठ थी कि जब अर्जुन अग्नि में प्रवेश करके प्राण देने को तत्पर हो गए तब श्रीकृष्ण उन्हें पूर्ण सुरक्षा प्रदान करना चाहते थे । किन्तु जब तक ब्राह्मण के पुत्र वापस नहीं लाए जाते अर्जुन अग्नि में प्रवेश करने से रुकना अस्वीकार कर रहे थे । अतएव श्रीकृष्ण ने उनको वचन दिया, "मैं ब्राह्मणपुत्रों को वापस लाऊँ गा । तुम आत्महत्या करने का प्रयास न करो ।"
यदि भगवान् श्रीकृष्ण के वल ब्राह्मणपुत्रों को वापस लाने के लिए ही भगवान् विष्णु से भेंट करने जाने वाले होते, तो उन्होनें नवें पुत्र के अपहरण तक प्रतीक्षा न की होती । किन्तु जब भगवान् महाविष्णु के द्वारा नवें पुत्र का अपहरण कर लिया गया तथा इस कारण अर्जुन अग्नि में प्रवेश करने के लिए तत्पर थे, क्योकिं उनका वचन मिथ्या सिद्ध होने वाला था, तब इस गम्भीर परिस्थिति के कारण भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन के साथ महाविष्णु से भेंट करने जाने का निश्चय किया । कहा जाता है कि अर्जुन नर-नारायण के एक शक्त्ावेश अवतार हैं । उन्हें कभी-कभी नरनारायण भी कहा जाता है । नर-नारायण अवतार भी भगवान् विष्णु का स्वांश है । अतएव जब श्रीकृष्ण तथा अर्जुन भगवान् विष्णु के दर्शनार्थ गए तब यह समझना चाहिए कि अर्जुन अपनी नर-नारायण हैसियत से गए थे, जैसे कि जब श्रीकृष्ण ने द्वारका में अपनी लीलाओं का प्रदर्शन किया, तो उन्होनें वासुदेव की हैसियत से कार्य किया था ।
अध्यात्म जगत् की यात्रा करने के उपरान्त अर्जुन ने निष्कर्ष निकाला कि इस भौतिक जगत् अथवा अध्यात्मलोक में व्यक्ति जो कोई भी वैभव प्रदर्शित कर सकता है, वह सब भगवान् श्रीकृष्ण का उपहार है ।
भगवान् श्रीकृष्ण विभिन्न रूपों में प्रकट होते हैं, जैसे विष्णु-तत्त्व के रूप में तथा जीव-तत्त्व के रूप में अथवा अन्य शब्दों में कहें, तो स्वांश के रूप में तथा विभिन्नांश के रूप में । विष्णु-तत्त्व को स्वांश तथा जीव-तत्त्व को विभिन्नांश कहते हैं । अतएव वे स्वांश अथवा विभिन्नांश में, अपनी रुचि के अनुसार विभिन्न दिव्य लीलाओं के द्वारा, स्वयं को प्रदर्शित कर सकते हैं, किन्तु फिर भी वे आदि श्रीभगवान् रहते हैं ।
श्रीकृष्ण की लीलाओं का अन्तिम भाग श्रीमद्भागवत के दशम स्कं ध के नब्बेवें अध्याय में प्राप्त होता है, इस अध्याय में श्रीशुकदेव गोस्वामी यह स्पष्ट करना चाहते थे कि किस प्रकार अपने समस्त ऐश्वर्यों सहित श्रीकृष्ण द्वारका में सुखपूर्वक निवास करते थे । श्रीकृष्ण की शक्ति के ऐश्वर्य का प्रदर्शन पहले ही उनकी विभिन्न लीलाओं में हो चुका है । अब यह प्रदर्शित किया जाएगा कि द्वारका में उनके निवास ने किस प्रकार सम्पत्ति तथा सौन्दर्य के उनके ऐश्वर्यों को प्रदर्शित किया । यह भौतिक जगत् अध्यात्मलोक का ही एक विकृ त प्रतिबिम्ब है । इस भौतिक जगत् में सम्पत्ति तथा सौन्दर्य के ऐश्वर्यों को समस्त ऐश्वर्यों में सर्वोच्च माना जाता है । अतएव जब श्रीभगवान् के रूप में श्रीकृष्ण ने इस लोक में निवास किया तब उस अवधि में सौन्दर्य तथा सम्पत्ति के उनके ऐश्वर्यों की तीनों लोकों में कोई तुलना नहीं थी । श्रीकृष्ण की सोलह हजार सुन्दरी पत्नियाँ थीं तथा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे द्वारका में इन हजारों सुन्दरियों के एक-मात्र पति के रूप में रह रहे थे । इस सम्बन्ध में यह बात अनहोनी नहीं है कि कोई शक्तिशाली राजा कई सौ रानियाँ रखे । यद्यपि ऐसा राजा इतनी सारी पत्नियों का एकमात्र पति हो सकता है, किन्तु वह एक साथ उन सबका भोग नहीं कर सकता है । किन्तु श्रीकृष्ण अपनी समस्त सोलह हजार पत्नियों के साथ एक साथ रहते थे ।
यद्यपि यह कहा जा सकता है कि योगी भी अपने शरीर का कई रूपों में विस्तार कर सकते हैं, किन्तु योगियों द्वारा किया विस्तार तथा भगवान् श्रीकृष्ण का विस्तार एक नहीं हैं । अतएव श्रीकृष्ण को कभी-कभी योगेश्वर अर्थात् समस्त योगियों का स्वामी भी कहा जाता है ।
वैदिक साहित्य से हमें ज्ञात होता है कि योगी सौभरि मुनि ने स्वयं को आठ रूपों में विस्तारित किया था । किन्तु वह विस्तार दू रदर्शन के विस्तार के समान था । दू रदर्शन की प्रतिच्छाया करोड़ों विस्तारों के रूप में प्रकट होती है, किन्तु वे विस्तार भिन्न-भिन्न प्रकार से क्रिया नहीं कर सकते हैं । वे मूल व्यक्ति की प्रतिच्छाया मात्र हैं तथा एकदम मूल व्यक्ति की भाँति ही क्रिया कर सकते हैं । किन्तु श्रीकृष्ण का विस्तार दू रदर्शन अथवा योगी के विस्तार की भाँति भौतिक नहीं है । जब नारदजी श्रीकृष्ण के विभिन्न महलों में गए तब उन्होनें श्रीकृष्ण को अपने विभिन्न विस्तारों में, रानियों के प्रत्येक महल में भिन्न-भिन्न रूप से व्यस्त पाया ।
यह भी कहा गया है, कि द्वारका में श्रीकृष्ण ने श्रीदेवी के पति के रूप में निवास किया था । रानी रुक्मिणी श्रीदेवी हैं तथा अन्य सब रानियाँ उनकी विस्तार हैं । अत: वृष्णि वंश के प्रमुख श्रीकृष्ण ने पूर्ण श्रीदेवी के साथ भोग किया । श्रीकृष्ण की रानियों को नित्य युवती तथा सौन्दर्यमयी कहा गया है । यद्यपि श्रीकृष्ण के पौत्र तथा प्रपौत्र थे, तथापि न तो श्रीकृष्ण न ही उनकी रानियाँ, सोलह अथवा बीस वर्ष से अधिक आयु की दीखती थीं । किशोरी रानियाँ इतनी सुन्दर थीं कि जब वे चलती थीं, तो वे आकाश में चलने वाली चपला के समान प्रतीत होती थीं । वे सदैव ही उत्तम वस्त्राभूषण धारण करती थीं तथा सदैव ही नृत्य, गान अथवा महलों की छत पर कन्दुक क्रीड़ा जैसी क्रीड़ाओं में संलग्न रहती थीं ।
भौतिक जगत् में रानियों का यह कृ त्य तथा कन्दुक क्रीड़ा, मूल भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनकी पत्नियों की मूल लीलाओं की विकृ त प्रतिच्छाया प्रतीत होती है ।
द्वारका नगरी की गलियों में सदैव ही हाथियों, घोड़ों, रथों तथा सैनिकों की भीड़ रहती थी । जब हाथियों से कार्य लिया जाता है, तब उन्हें मदिरा पिलायी जाती है तथा कहा जाता है कि द्वारका के हाथियों को इतनी मदिरा दी जाती थी कि वे उसका एक बड़ा भाग सड़क पर बिखेर देते थे, तथापि वे मत्त हो कर गलियों में चलते थे । गलियों में से जाते हुए सैनिक भली-भाँति स्वर्णाभूषणों से सज्जित होते थे तथा घोड़े एवं स्वर्णमयरथ गलियों में चलते थे । द्वारका नगर में जिस दिशा में भी दृष्टि डालें हरित उद्यान व वाटिकाएँ दृष्टिगोचर होती थीं । प्रत्येक उद्यान फल व पुष्पों से लदे हुए वृक्षों तथा पौधों से युक्त था । इतने अधिक फलों व पुष्पों के वृक्ष होने के कारण, मधुर स्वर में चहचहाते पक्षी तथा गुंजन करते भ्रमर मिल कर मधुर गूँज को जन्म देते थे । इस प्रकार द्वारका नगरी समस्त ऐश्वर्यों का पूर्ण प्रदर्शन करती थी । यदुवंश के वीर अपने को नगर के परम सौभाग्यशाली निवासी मानते थे तथा वास्तव में वे समस्त दिव्य सुविधाओं को भोगते थे ।
श्रीकृष्ण की रानियों के सभी सोलह हजार महल इस सुन्दर द्वारका नगरी में स्थित थे तथा इन समस्त सुविधाओं के परम नित्य भोक्ता भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं को सोलह हजार रूपों में विस्तार दिया था ।
इस प्रकार वे उन सोलह हजार महलों में एक ही समय में भिन्न-भिन्न पारिवारिक कार्यों में व्यस्त रहते थे । उन महलों में से प्रत्येक में उत्तमतापूर्वक सज्जित उद्यान तथा जलाशय थे । जलाशयों के स्फटिक के समान स्वच्छ जल में नील, पीत, श्वेत तथा रक्त वर्ण के अनेक प्रस्फु टित पद्म पुष्प थे । इन कमल पुष्पों का पराग वायु द्वारा चारोंओर ले जाया जाता था । समस्त जलाशय सुन्दर हंसों, बत्तखों तथा बगुलों से पूर्ण थे । ये पक्षी कभी-कभी संगीतमय स्वर में चीत्कार कर उठते थे ।
कभी उन जलाशयों तथा कभी नदियों में अपनी पत्नियों सहित प्रवेश करके , श्रीकृष्ण उनके साथ हर्षपूर्वक जलक्रीड़ा का आनन्द लेते थे ।
कभी भगवान् श्रीकृष्ण की पत्नियाँ, जो सभी श्रीदे वियाँ थीं, स्नान करते अथवा तैरते समय जल में श्रीकृष्ण का आलिंगन करती थीं । तब उन रानियों के स्तनों के सौन्दर्य को सज्जित करने वाला कुंकुम भगवान् के वक्ष को रक्तिम रंग से शोभित करने लगता था ।
निर्विशेषवादी यह विश्वास करने का साहस नहीं कर सकते हैं कि अध्यात्मलोक में इतने विविध प्रकार के भोग हैं । किन्तु अध्यात्मलोक के वास्तविक, नित्य आनन्दमय भोग का प्रत्यक्ष प्रदर्शन करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण इस लोक पर अवतीर्ण हुए थे तथा उन्होनें यह प्रदर्शित किया कि अध्यात्मलोक जीवन की इन सुख-सुविधाओं से रहित नहीं है । भेद के वल यह है कि अध्यात्मलोक में ऐसी सुविधाएँ नित्य तथा अनन्त हैं, जबकि भौतिक जगत् में वे केवल अनित्य, विकृत प्रतिबिम्ब-मात्र हैं ।
जब श्रीकृष्ण इस प्रकार के सुखभोग में व्यस्त रहते थे तब गन्धर्व तथा गायक सुरीले संगीत से उनका यशगान करते थे । उनके गान के साथ मृदंग, दुन्दुभी, नगाड़ा, इकतारा तथा पीतल के बिगुल आदि वाद्य बजते थे तथा समस्त वातावरण किसी महान् उत्सव के समान हर्षोंल्लास से पूर्ण बन जाता था । उत्सव की मन:स्थिति में कभी-कभी भगवान् की पत्नियाँ भगवान् पर पिचकारी से जल की फु हार डालती थीं तथा भगवान् भी स्त्रियों के शरीर को उसी भाँति जल से भिगोते थे । जब श्रीकृष्ण तथा उनकी रानियाँ इस प्रकार की लीलाएँ करते थे तब ऐसा प्रतीत होता था मानो स्वर्गाधिपति यक्षराज अपनी अनेक पत्नियों के साथ इन लीलाओं में व्यस्त हों । (यक्षराज कु बेर के नाम से भी प्रसिद्ध हैं तथा स्वर्गलोक के कोषाधीश माने जाते हैं ।) जब भगवान् श्रीकृष्ण की पत्नियाँ इस प्रकार भीग जाती थीं तब उनके वक्षस्थलों तथा जंघाओं का सौन्दर्य सहस्त्रगुना बढ़ जाता था तथा उन अंगों को सुसज्जित करने के लिए उनकी लम्बी के शराशि खुल कर बिखर जाती थी । उनके के शों में गुंथे हुए सुन्दर पुष्प गिर जाते थे तथा भगवान् द्वारा उन पर जल फें कने से पीड़ित प्रतीत होती रानियाँ उनसे पिचकारी छीनने के लिए उनके समीप जाती थीं । उनका यह प्रयास ऐसी परिस्थिति का निर्माण कर देता था, जिसमें भगवान् स्वेच्छा से समीप आती हुई रानियों का आलिंगन कर सकते थे । आलिंगनबद्ध होने पर भगवान् की पत्नियाँ अपने मुख पर दाम्पत्य प्रेम का स्पष्ट संके त अनुभव करती थीं तथा इससे एक आध्यात्मिक आनन्द के वातावरण का निर्माण हो जाता था ।
जब भगवान् के कं ठ की माला रानियों के वक्षस्थलों का स्पर्श करती थी तब उनका समस्त शरीर पराग-मंडित हो जाता था । अपनी स्वर्गिक लीलाओं में संलग्न होने के कारण रानियों को आत्म-विस्मरण हो जाता था तथा उनके मुक्त के शपाश नदी की सुन्दर लहरों के समान प्रतीत होते थे । जब रानियाँ श्रीकृष्ण के शरीर पर अथवा श्रीकृष्ण रानियों के शरीर पर जल छिड़कते थे तब ऐसा प्रतीत होता था मानो एक गजराज अनेक हथनियों के साथ जलाशय में क्रीड़ा कर रहा हो । परस्पर पूर्ण आनन्द उठाने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण तथा रानियाँ बाहर आती थीं ।
अपने पहने हुए अति मूल्यवान, भीगे वस्त्रों को पहने वे गायकों तथा नर्तकों को दान दे देते थे । ऐसे अवसरों पर राजाओं तथा रानियों द्वारा दिये गए बहुमूल्य वस्त्राभूषणों के पुरस्कार के अतिरिक्त इन गायकों तथा नर्तकों के पास जीवनयापन का अन्य कोई साधन नहीं था । समाज की सम्पूर्ण प्रणाली की योजना इतनी भलीभाँति की गई थी कि अपने विभिन्न पदों पर समाज के समस्त सदस्य जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सरलतापूर्वक अपनी आजीविका अर्जित कर लेते थे । समाज के विभागों के मध्य कोई प्रतियोगिता नहीं थी । जाति प्रथा की मूल धारणा की योजना ऐसी थी कि एक विशेष प्रकार के व्यवसाय में संलग्न व्यक्ति किसी अन्य, भिन्न प्रकार के व्यवसाय में संलग्न व्यक्तियों के समूह से प्रतिस्पर्धा नहीं करते थे इस रीति से भगवान् श्रीकृष्ण अपनी सोलह हजार पत्नियों की संगति का सुख भोग करते थे । भगवान् के जो भक्त दाम्पत्य प्रेम के माधुर्य में श्रीभगवान् से प्रेम करना चाहते हैं, उन्हें श्रीकृष्ण की पत्नी के पद पर पहुँचने का सौभाग्य प्राप्त होता है तथा श्रीकृष्ण भी अपने कृ पालु व्यवहार से उन्हें सदैव स्वयं से संयुक्त रखते हैं । अपनी पत्नियों के साथ श्रीकृष्ण का व्यवहार उनकी चाल, उनका पत्नियों से संलाप, उनकी मुस्कान, उनका आलिंगन तथा प्रेममय पति के समान उनकी अन्य गतिविधियाँ उनकी पत्नियों को सदैव श्रीकृष्ण से संयुक्त रखती थीं । यह जीवन की सर्वोच्च पूर्णता है । यदि कोई सदैव श्रीकृष्ण पर मुग्ध रहता है, तब यह समझना चाहिए कि वह मुक्त है तथा उसका जीवन सफल है । कोई भी भक्त जो अपने हृदय तथा आत्मा से श्रीकृष्ण को प्रेम करता है, उससे श्रीकृष्ण भी इस प्रकार व्यवहार करते हैं कि वह भक्त उन से असम्पृक्त नहीं रह सकता है । श्रीकृष्ण तथा उनके भक्तों के ये पारस्परिक व्यापार इतने आकर्षक हैं कि एक भक्त श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी विषयवस्तु का विचार भी नहीं कर सकता है ।
समस्त रानियों के लिए श्रीकृष्ण उनके एकमात्र आराध्य देव थे । वे सदैव ही कमलनयन साँवले-सलोने भगवान् श्रीकृष्ण के चिन्तन में तल्लीन रहती थीं । कभी-कभी श्रीकृष्ण के चिन्तन में वे मौन रहती थीं तथा भाव तथा अनुभाव के महान् आनन्द में वे कभी-कभी सन्निपात के रोगी की भाँति बड़-बड़ करती थीं । कभी कभी भगवान् श्रीकृष्ण की उपस्थिति में भी वे उनके साथ जलाशय अथवा नदी में की गई लीलाओं का सजीव वर्णन करती थीं । इस प्रकार के कु छ संलापों का वर्णन यहाँ किया जा सकता है ।
एक रानी ने कु ररी पक्षी से कहा, "प्रिय कु ररी ! रात्रि अधिक हो चुकी है । प्रत्येक व्यक्ति निद्रा में लीन है । समस्त जगत् में शान्ति है । यद्यपि उनका ज्ञान किसी भी परिस्थिति में अविचलित रहता है, तथापि इस समय श्रीभगवान् निद्रामग्न हैं । तब तुम क्यों नहीं सो रही हो ? तुम सारी रात इस प्रकार क्यों शोक कर रही हो ? प्रिय सखी ! क्या तुम भी श्रीभगवान् के कमलनयनों, उनकी मधुर मुस्कान तथा उनके आकर्षक वचनों पर उसी प्रकार मुग्ध हो जिस प्रकार मैं मुग्ध हूँ ? क्या श्रीभगवान् की ये भाव-भंगिमाएँ तुम्हारे हृदय में भी उसी प्रकार चुभती हैं जैसे मेरे हृदय में ?
“अहो चक्रवाकी ! तुमने अपने नेत्र क्यों मंूद लिए ? क्या तुम विदेश गए अपने पति को ढूँढ़ रही हो ? तुम इतना करुण विलाप क्यों कर रही हो ? आह ! ऐसा प्रतीत होता है कि तुम अत्यन्त दुखी हो । अथवा तथ्य यह है कि तुम भी श्रीभगवान् की नित्य सेविका बनने की इच्छुक हो ? मेरे विचार में तुम भगवान् के चरणारविन्दों में एक माला चढ़ा कर उसे अपने के शों में धारण करने के लिए उत्सुक हो ।
"हे सागर ! तुम रात-दिन गर्जन क्यों करते रहते हो ? क्या तुम्हें निद्रा नहींआती ? मेरे विचार में तुम्हें अनिद्रा का रोग हो गया है अथवा यदि मैं अनुचित नहीं सोचती हूँ, तो मेरे प्यारे श्यामसुन्दर ने चतुराईपूर्वक तुम्हारे स्वाभाविक गुणों, गम्भीरता तथा सहनशीलता को हर लिया है ।
क्या यह सत्य है कि इसी कारण तुम मेरे समान अनिद्रा से पीड़ित हो ?
मैं यह स्वीकार करती हूँ कि इस रोग का कोई उपचार नहीं है ।
"हे चन्द्रदेव ! मेरे विचार में तुम्हें गम्भीर क्षय रोग हो गया है । इसी कारण तुम दिन-प्रतिदिन क्षीणतर होते जा रहे हो । हे देव ! अब तुम इतने क्षीण हो गए हो कि तुम्हारी किरणें रात्रि के अंधकार को दूर नहीं कर पाती हैं । अथवा तथ्य यह है कि मेरे भगवान् श्यामसुन्दर के रहस्यमय रूप के मधुर शब्दों ने मेरे समान तुम्हें भी मूर्च्छि त कर दिया है । क्या यह सत्य है कि इस गम्भीर उद्विग्नता के कारण ही तुम इतने गम्भीर हो ?
“हे हिमालय पर्वत से आने वाले समीर ! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है कि तुम श्रीकृष्ण से मिलने की मेरी वासना को जाग्रत् करके मुझे तंग कर रहे हो ? क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है कि श्रीभगवान् की कुटिल नीति ने मुझे पहले से ही आहत कर दिया है ? हे हिमालय के समीर ! अब जान लो कि मैं पहले से ही आहत हूँ । मुझे और अधिक आहत करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
"हे सुन्दर मेघ ! तुम्हारी सुन्दर देह का रंग मेरे प्रियतम श्यामसुन्दर के शरीर के वर्ण से एकदम मिलता है । अतएव मेरे विचार में यदुवंश-
शिरोमणि मेरे भगवान् को तुम अत्यधिक प्रिय हो तथा उनके इतने प्रिय होने के कारण मेरे समान तुम भी ध्यानमग्न हो । मैं समझ सकती हूँ कि तुम्हारा हृदय श्यामसुन्दर के लिए उद्विग्न है । तुम उनके दर्शन के लिए अत्यधिक उत्सुक हो तथा इसी कारण मेरे नयनों के समान तुम्हारे नयनों से भी अश्रुबिन्दु बह रहे हैं । हे श्याम मेघ ! हमें स्पष्ट ही यह मानना पड़ेगा कि श्यामसुन्दर से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करने का अर्थ है, घर में सुखपूर्वक रहते हुए भी अनावश्यक उद्विग्नताओं को मोल लेना ।"
साधारणतया कोयल रात्रि के अन्त में अथवा प्रात: कू कती है । जब रानियों ने कोकिल की कू क रात बीतने पर सुनी, तो उन्होनें कहा, "प्रिय कोकिल ! तुम्हारा स्वर अत्यन्त मधुर है । जैसे ही तुम अपना मधुर शब्द करती हो हमें तत्काल श्यामसुन्दर की स्मृति हो आती है, क्योकिं तुम्हारा स्वर बिल्कु ल उनके स्वर के समान है । हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि तुम्हारी वाणी में अमृत है तथा यह इतनी प्राणदायिनी है कि अपने प्रियतम के विरह में मृतप्राय लोगों में यह प्राण संचार करने में समर्थ है । अतएव हम तुम्हारी अत्यन्त ऋणी हैं । यदि हम तुम्हारा कु छ सेवा-सत्कार कर सकते हैं, तो हमें बताना ।"
रानियों ने इसी प्रकार आगे भी वार्तालाप किया । उन्होनें पर्वत को इस प्रकार सम्बोधित किया, "प्रिय पर्वत ! तुम अतिशय उदार हो । तुम्हारे गुरुत्वाकर्षण से ही यह धरातल उचित रूप से बना रहता है । अपने कर्तव्य का भक्तिपूर्वक पालन करने के कारण तुम्हें चलना भी ज्ञात नहीं है । तुम इतने गम्भीर होने के कारण इधर-उधर नहीं जाते तथा कु छ नहीं कहते हो, अपितु तुम सदैव ही चिन्तन में रत प्रतीत होते हो । हो सकता है कि तुम सदैव अत्यन्त गम्भीर तथा महत्त्वपूर्ण विषयवस्तु पर विचार करते रहते हो, किन्तु हम यह अत्यन्त स्पष्ट रूप से अनुमान कर सकती हैं कि तुम क्या सोच रहे हो । हमें विश्वास है कि जिस प्रकार हम श्यामसुन्दर के चरणकमलों को अपने उन्नत वक्षस्थलों पर स्थापित करना चाहती हैं उसी प्रकार तुम भी उनके चरणकमलों को अपने उन्नत शिखरों पर स्थापित करने का विचार कर रहे हो ।
"हे जलहीन नदियो ! हमें ज्ञात है कि ग्रीष्म ऋतु के कारण तुम सूख गई हो तथा तुममें जल नहीं है । तुम्हारा समस्त जल सूख जाने के कारण खिले हुए कमल अब तुम्हारा सौन्दर्य नहीं बढ़ाते हैं । इस क्षण तुम अत्यन्त कृ शकाय हो गई हो, अतएव हम समझ सकती हैं कि तुम्हारी स्थिति ठीक हमारे समान है । श्यामसुन्दर के विछोह के कारण हम अपना सर्वस्व खो चुकी हैं, उनके सुखदायी शब्द हमें सुनाई नहीं पड़ते हैं । हमारा हृदय अब उचित रीति से कार्य नहीं करता है, अतएव हम भी अत्यन्त कृ शकाय हो गई हैं । अतएव हमारे विचार में तुम ठीक हमारे समान हो । मेघों के माध्यम से अपने पति सागर से तुम्हें जल प्राप्त नहीं हो रहा है, अतएव तुम कृ शकाय हो गई हो ।" रानियों द्वारा यहाँ दिया गया दृष्टान्त अत्यन्त युक्तियुक्त है । जब सागर मेघों के माध्यम से जलपूर्ति नहींकरता है, तब नदियाँ शुष्क हो जाती हैं । सागर को नदियों का पति माना जाता है, अतएव उनका भरण-पोषण करना सागर का कर्तव्य है । यदि पति पत्नी के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति न करे, तो वे भी सूखी नदी के समान हो जाती हैं ।
एक रानी ने एक हंस को इस प्रकार सम्बोधित किया, "प्रिय हंस ! यहाँ आओ ! तुम्हारा स्वागत है । कृ पया यहाँ बैठो तथा दुग्ध पान करो । प्रिय हंस ! क्या तुम श्यामसुन्दर का कोई सन्देश लाए हो ? मेरे विचार में तुम श्यामसुन्दर के दूत हो । यदि तुम्हारे पास कोई समाचार है, तो कृ पया मुझे बताओ । हमारे श्यामसुन्दर सदैव ही अत्यन्त स्वाधीन हैं । वे कभी किसी के अधीन नहीं हैं । हम सब उन पर अधिकार जमाने में असफल रही हैं, अतएव हम तुमसे पूछती हैं कि क्या वे सकु शल हैं ?
श्यामसुन्दर अत्यन्त चंचल हैं । उनकी मैत्री सदैव अनित्य होती है, यह तनिक-से विक्षोभ से टूट जाती है । किन्तु कृ पया क्या तुम यह कहोगे कि वे मुझ पर इतने निर्दय क्यों हैं ? पहले उन्होनें कहा था कि मैं ही उनकी एकमात्र प्रियतमा पत्नी हूँ । क्या उन्हें अपने आश्वासन का स्मरण है ? कु छ भी हो, तुम्हारा स्वागत है । कृ पया आसन ग्रहण करो । किन्तु मैं तुम्हारी यह विनय स्वीकार नहीं कर सकती कि मैं श्यामसुन्दर के समीप जाऊँ । जब उन्हें मेरी कोई चिन्ता नहीं है, तब मैं क्यों उनके पीछे पागल बनूँ ? तुम्हें यह जताते हुए मुझे दुःख होता है कि तुम एक क्षुद्र-हृदय व्यक्ति के दूत बने हो । तुम मुझसे श्रीकृष्ण के समीप जाने को कह रहे हो, किन्तु मैं नहीं जाऊँ गी । क्या तुम उनके मेरे समीप आने की चर्चा कर रहे हो ? मैंने उनकी दीर्घकाल तक प्रतीक्षा की है ।
क्या उस प्रतीक्षा को पूर्ण करने के लिए वे यहाँ आने के इच्छुक हैं ?
ठीक है । तुम उन्हें यहाँ ला सकते हो । किन्तु उनकी परमप्रिया श्रीदेवी को उनके साथ मत लाना । क्या तुम्हारे विचार में वे श्रीदेवी से क्षण-भर के लिए भी वियुक्त नहीं हो सकते हैं ? क्या वे लक्ष्मी के बिना यहाँ नहीं आ सकते हैं ? उनका व्यवहार अत्यन्त अप्रसन्न करने वाला है । क्या इसका अर्थ है कि लक्ष्मी के बिना श्यामसुन्दर प्रसन्न नहीं रह सकते हैं ?
क्या वे अन्य किसी पत्नी के साथ सुखी नहीं रह सकते हैं ? क्या इसका यह अर्थ है कि लक्ष्मी के पास उनके प्रति प्रेम का सागर है तथा हममें से किसी की उनके साथ तुलना नहीं की जा सकती है ?"
भगवान् श्रीकृष्ण की समस्त पत्नियाँ उनके विचारों में पूर्ण रूप से लीन थीं । श्रीकृष्ण को समस्त योगियों का स्वामी, योगेश्वर कहा जाता है तथा द्वारका में श्रीकृष्ण की समस्त पत्नियाँ इन योगेश्वर को अपने हृदय में रखती थीं । समस्त यौगिक सिद्धियों में निष्णात बनने का प्रयास करने की अपेक्षा यदि व्यक्ति के वल परम योगेश्वर श्रीकृष्ण को अपने हृदय में रखे, तो अधिक उत्तम होगा । इस प्रकार व्यक्ति का जीवन पूर्ण हो सकता है तथा उसे सरलता से भगवान् के धाम में स्थान प्राप्त हो सकता है । यह समझना चाहिए कि द्वारका में श्रीकृष्ण के साथ निवास करने वाली उनकी पत्नियाँ पूर्वजन्म में अत्यन्त श्रेष्ठ भक्त थीं जो श्रीकृष्ण के साथ दाम्पत्य प्रेम का सम्बन्ध स्थापित करना चाहती थीं । इस प्रकार उन्हें श्रीकृष्ण की पत्नी बन कर उनके साथ निरन्तर प्रेम सम्बन्ध का आनन्द उठाने का अवसर प्राप्त हुआ । वे सब अन्तत: वैकु ण्ठ लोक गईं ।
परम पूर्ण सत्य, श्रीभगवान् कभी भी निराकार नहीं हैं । उनकी विविध साकार गतिविधियों तथा लीलाओं के दिव्य सम्पादन का समस्त वैदिक साहित्य यशगान करता है । कहा जाता है कि वेदों तथा रामायण में के वल भगवान् का विवरण है । वैदिक साहित्य में सर्वत्र उनका ही यशगान है । जैसे ही मृदु हृदय लोग, जैसे नारियाँ भगवान् श्रीकृष्ण की उन दिव्य लीलाओं का श्रवण करती हैं, वे तत्काल उन पर अनुरक्त हो जाती हैं । अतएव मृदुल-हृदय स्त्रियाँ तथा कन्याएँ अत्यन्त सरलता से कृष्णभावनामृत आन्दोलन की ओर आकर्षित हो जाती हैं । जो व्यक्ति इस प्रकार कृष्णभावनामृत आन्दोलन की ओर आकर्षित होता है तथा ऐसी भावना से अपना सतत सम्पर्क बनाए रखने का प्रयत्न करता है, उसे गोलोक वृन्दावन में श्रीकृष्ण के समीप जाने का परम-मोक्ष अवश्य ही प्राप्त होता है । यदि के वल कृष्णभावनामृत का विकास करने से व्यक्ति अध्यात्मलोक जा सकता है, तब यह कल्पना करना सरल है कि भगवान् श्रीकृष्ण की रानियाँ कितनी आनन्दमयी व सौभाग्यवती थीं, जिन्होनंे भगवान् श्रीकृष्ण से स्वयं वार्तालाप किया तथा उनके प्रत्यक्ष दर्शन किए । भगवान् श्रीकृष्ण की पत्नियों के सौभाग्य का सही वर्णन कोई नहीं कर सकता है । वे स्वयं भगवान् की देखभाल करती थीं ।
उनको स्नान कराने, भोजन कराने, प्रसन्न रखने तथा उनकी सेवा करने के द्वारा विविध प्रकार से भगवान् की दिव्य टहल करती थीं । इस प्रकार द्वारका में रानियों की सेवा से किसी के भी तप की तुलना नहीं की जा सकती है ।
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को सूचित किया कि द्वारका में रानियों के द्वारा आत्म-साक्षात्कार के लिए किए गए व्रतों व तपों की कोई तुलना नहीं है । आत्म-साक्षात्कार का एक ही उद्देश्य है- श्रीकृष्ण ।
अतएव, यद्यपि श्रीकृष्ण तथा रानियों के मध्य का व्यापार ठीक साधारण पति-पत्नी के मध्य के व्यापार के समान प्रतीत होता है, किन्तु ध्यान में रखने की मुख्य बात श्रीकृष्ण के प्रति रानियों का अनुराग है । व्रत तथा तप की सम्पूर्ण प्रक्रिया का प्रयोजन व्यक्ति को भौतिक जगत् से विरक्त करना तथा भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति उसके अनुराग में वृद्धि करना है ।
आत्म-साक्षात्कार में उन्नत समस्त लोगों के आश्रय श्रीकृष्ण हैं । एक आदर्श गृहस्थ के रूप में उन्होनें अपनी पत्नियों के साथ निवास किया था । उन्होनें वैदिक संस्कारों का सम्पादन किया जिससे कि अल्पबुद्धि मानवों को यह ज्ञात हो सके कि परमेश्वर कभी-भी निराकार नहीं हैं ।
एक साधारण बद्धात्मा की भाँति श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी तथा सन्तानों सहित समस्त ऐश्वर्यों से युक्त जीवनयापन किया । ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य वास्तव में बद्ध-आत्माओं के समक्ष यह उदाहरण प्रस्तुत करना था कि जब जीवन का के न्द्र श्रीकृष्ण हो, तो व्यक्ति गृहस्थ-जीवन की परिधि में प्रवेश कर सकता है । उदाहरणार्थ, यदुबंशी श्रीकृष्ण के परिवार में निवास करते थे तथा श्रीकृष्ण उनकी समस्त गतिविधियों के के न्द्र थे ।
त्याग का उतना महत्त्व नहीं है जितना श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम में अभिवृद्धि करने का है । कृष्णभावनामृत-आन्दोलन विशेष रूप से इसी प्रयोजन के लिए है । हम इस सिद्धान्त का उपदेश दे रहे हैं कि व्यक्ति चाहे संन्यासी हो अथवा गृहस्थ-इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है । व्यक्ति को के वल श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनुराग में वृद्धि करनी होती है और तब उसका जीवन सफल हो जाता है । भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-चिह्नों पर चल कर व्यक्ति अपने परिवार, समाज अथवा देश में निवास कर सकता है, किन्तु उसका प्रयोजन इन्द्रियतृप्ति न होकर श्रीकृष्ण के प्रति अनुराग में प्रगति करके उनका साक्षात्कार करना होना चाहिए । बद्ध जीवन से मुक्त जीवन तक उत्कर्ष के चार सिद्धान्त हैं, जिन्हें धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष कहा जाता है । यदि व्यक्ति श्रीकृष्ण के परिवारजनों के चरणचिह्नों पर चलते हुए गृहस्थ-जीवन में रहता है, तो वह श्रीकृष्ण को अपनी गतिविधियों का के न्द्र बनाकर इन चारों सिद्धान्तों को एकसाथ प्राप्त कर सकता है ।
हमें यह ज्ञात है कि श्रीकृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियाँ थीं ।
ये समस्त पत्नियाँ श्रेष्ठ मुक्तात्माएँ थीं तथा उनके मध्य रानी रुक्मिणी पटरानी थीं । रुक्मिणी देवी के उपरान्त सात अन्य प्रमुख रानियाँ थीं तथा इन आठ प्रमुख रानियों के पुत्रों के नामों का पहले ही उल्लेख किया जा चुका है । इन आठ रानियों के अतिरिक्त प्रत्येक अन्य रानी से भी श्रीकृष्ण को दस पुत्र थे । इस प्रकार श्रीकृष्ण के समस्त पुत्रों की संख्या 16,108 × 10 थी । यह जान कर चकित नहीं होना चाहिए कि श्रीकृष्ण के इतने अधिक पुत्र थे । हमें सदैव यह स्मरण रखना चाहिए कि श्रीकृष्ण, श्रीभगवान् हैं तथा अनन्त शक्तियों के स्वामी हैं । वे समस्त जीवों को अपनी सन्तान मानते हैं, अतएव यदि उनके अपने सोलह हजार पुत्र भी हों, तो आश्चर्य का कोई कारण न होगा ।
श्रीकृष्ण के अतुल बलशाली पुत्रों में से अठारह पुत्र महारथी थे । सैकड़ों हजारों रथारोहियों, अश्वारोहियों तथा हाथियों से ये महारथी अके ले युद्ध कर सकते थे । इन अठारह पुत्रों की कीर्ति दू र-दू र तक फै ली हुई है तथा लगभग समस्त वैदिक साहित्य में उनका वर्णन है । अठारह महारथी पुत्रों के नाम-प्रद् युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमान्, भानु, साम्ब, मधु, बृहद्वानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि तथा न्यग्रोध कहे गए हैं । श्रीकृष्ण के इन अठारह महारथी पुत्रों में प्रद् युम्न को अग्रणी माना जाता है । प्रद् युम्न रानी रुक्मिणी के ज्येष्ठ पुत्र थे तथा उनके महान् पिता भगवान् श्रीकृष्ण के समस्त गुण उनमें उपस्थित थे । प्रद्युम्न ने अपने मामा रुक्मी की पुत्री से विवाह किया था तथा उस विवाह से अनिरुद्ध का जन्म हुआ था । अनिरुद्ध इतने बलवान् थे कि वे दस हजार हाथियों से युद्ध कर सकते थे । उन्होनें अपनी पितामही रुक्मिणी के भाई रुक्मी की पौत्री से विवाह किया । इनके मध्य का सम्बन्ध अत्यन्त दूर का था, अत: ऐसा विवाह सामान्य था । अनिरुद्ध के पुत्र वज्र थे । जब ब्राह्मण के शाप के कारण सम्पूर्ण यदुवंश का नाश हो गया था, तब के वल वज्र ही जीवित रहे थे ।
वज्र के एक पुत्र था जिसका नाम था प्रतिबाहु । प्रतिबाहु के पुत्र का नाम सुबाहु रखा गया । सुबाहु के पुत्र का नाम शान्तसेन तथा शान्तसेन के पुत्र का नाम शतसेन रखा गया ।
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा है कि समस्त यदुवंशियों की अनेक सन्तानें थीं । जिस प्रकार श्रीकृष्ण के अनेक पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र थे, उसी भाँति यहाँ उल्लिखित प्रत्येक राजा का परिवार भी विस्तृत था । न के वल उनके अनेक सन्तानें थीं, अपितु वे सब असाधारणरूप से सम्पन्न तथा ऐश्वर्यमय थे । उनमें से कोई भी निर्बल अथवा अल्पायु नहीं था तथा सबसे बड़ी बात यह थी कि समस्त यदुबंशी ब्राह्मण-संस्कृ ति के प्रबल भक्त थे । क्षत्रिय राजाओं का कर्तव्य है कि ब्राह्मण सभ्यता को बनाए रखें तथा योग्य ब्राह्मणों की रक्षा करें । इन समस्त राजाओं ने अपने कर्तव्य को भलीभाँति पूर्ण किया । यदुवंश के सदस्यों की संख्या इतनी बड़ी थी कि यदि व्यक्ति के जीवन की अवधि कई हजार वर्ष हो तब भी प्रत्येक का विवरण देना उसके लिए अत्यन्त कठिन होगा । श्रीशुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को बताया कि उन्होनें विश्वस्त सूत्रों से सुना था कि यदुवंश के बालकों को शिक्षा देने के लिए ही 388,00,000
शिक्षक अथवा आचार्य थे । यदि बालकों को शिक्षा देने के लिए इतने अधिक शिक्षकों की आवश्यकता होती थी, तो हम अनुमान लगा सकते हैं कि परिवार के सदस्यों की संख्या कितनी विशाल रही होगी । जहाँ तक उनकी सैन्य शक्ति का प्रश्न है, कहा जाता है कि अके ले राजा उग्रसेन के पास एक नील (1,00,00,00,00,00,000) सैनिक उनके व्यक्तिगत अंगरक्षक के रूप में थे ।
इस ब्रह्माण्ड में श्रीकृष्ण के प्रकट होने के पूर्व देवताओं तथा असुरों के मध्य अनेक युद्ध हुए थे । युद्ध में अनेक असुरों की मृत्यु हुई तथा उन सबको इस पृथ्वी पर उच्च राजवंशों में जन्म लेने का अवसर प्राप्त हुआ । अपने श्रेष्ठ राजकीय पद के कारण ये असुर अत्यन्त गर्वित हो गए तथा उनका एकमात्र कार्य अपने नागरिकों को सताना था । इन सब आसुरी राजाओं का नाश करने के लिए ही श्रीकृष्ण द्वापर युग के अन्त में अवतीर्ण हुए । जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है- परित्राणाय साधूनां विनाशाय च च दुष्कृ ताम्-भक्तों की रक्षा तथा दुष्कर्मियों के संहार के लिए भगवान् आते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं में सहायक होने के लिए कु छ देवताओं को भी पृथ्वी पर प्रकट होने को कहा गया ।
जब श्रीकृष्ण प्रकट हुए तब उनके नित्य पार्षद् उनके साथ थे, किन्तु उनकी सहायता के हेतु देवताओं को भी आने को कहा गया । इस प्रकार इन सबने यदुवंश में जन्म लिया । देश के भिन्न-भिन्न भागों में यदुवंश के एक सौ एक कु ल (उपजातियाँ) थे । इन विभिन्न कु लों के समस्त सदस्य भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य पद के अनुरूप ही आदर करते थे तथा वे सब सम्पूर्ण मन से भगवान् के भक्त थे । इस प्रकार समस्त यदुवंश अत्यन्त ऐश्वर्यवान्, सुखी तथा सम्पन्न था तथा उन्हें कोई दुःख न था । भगवान् श्रीकृष्ण में उनकी भक्ति तथा सम्पूर्ण विश्वास होने के कारण वे कभी-भी किसी अन्य राजा से पराजित नहीं हुए । श्रीकृष्ण के लिए उनका प्रेम इतना तीव्र था कि अपने नित्य कर्मों में जैसे बैठने, सोने, यात्रा करने, वार्तालाप करने, क्रीड़ा करने, सफाई व स्नान करने में भी वे के वल श्रीकृष्ण के विचारों में तल्लीन रहते थे तथा शरीर की आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं देते थे । भगवान् श्रीकृष्ण के लिए विशुद्ध भक्त का यही लक्षण है । जब कोई व्यक्ति किसी विचार में पूर्णतया लीन हो जाता है, तब कभी-कभी उसे अन्य शारीरिक गतिविधियों का विस्मरण हो जाता है । उसी प्रकार यदुबंशी अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के लिए स्वचालित रूप से कार्य करते थे, किन्तु उनका वास्तविक ध्यान सदैव ही श्रीकृष्ण पर के न्द्रित रहता था । उनकी शारीरिक गतिविधियाँ यांत्रिक रूप से की जाती थीं, किन्तु उनके मन सदैव कृष्णभावनामृत में लीन रहते थे ।
श्रील शुकदेव गोस्वामी ने भगवान् की पाँच विशेष विशिष्टताओं को बताते हुए श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के नब्बेवें अध्याय का अन्त किया है । प्रथम विशिष्टता है कि यदुवंश में श्रीकृष्ण के प्रकट होने से पूर्व गंगा नदी को सर्व वस्तुओं में शुद्ध माना जाता था । गंगाजल के स्पर्श मात्र से अशुद्ध वस्तु निर्मल हो जाती थी । गंगाजल की यह परमश्रेष्ठ शक्ति इस कारण थी, क्योकिं गंगाजल भगवान् विष्णु के चरणों से निकला है । किन्तु जब भगवान् श्रीकृष्ण, परम विष्णु, यदुवंश में प्रकट हुए तब उन्होनें स्वयं यदुओं के सम्पूर्ण राज्य की यात्रा की ।
यदुवंश से उनके घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण यदुवंश न के वल अत्यन्त प्रसिद्ध हो गया अपितु यह दूसरों को शुद्ध करने में गंगाजल से भी अधिक प्रभावशाली हो गया ।
भगवान् श्रीकृष्ण के अवतार की दूसरी विशिष्टता यह थी कि यद्यपि प्रकट रूप में वे भक्तों की रक्षा तथा असुरों का संहार करते थे, तथापि भक्तों तथा असुरों को एक समान फल प्राप्त होता था । भगवान् श्रीकृष्ण पाँच प्रकार की मुक्ति प्रदान करने वाले हैं । जिनमें से कं स जैसे असुरों को सायुज्य मुक्ति दी गई थी, जब कि गोपियों को स्वयम् श्रीकृष्ण के साथ संगति का अवसर प्रदान किया गया था । गोपियों ने श्रीकृष्ण की संगति का आनन्द उठाने के लिए अपनी वैयक्तिकता को बनाए रखा था, किन्तु कं स श्रीकृष्ण की निराकार ब्रमज्योति में विलीन हो गया था । दूसरे शब्दों में, असुर तथा गोपियाँ दोनों ही आध्यात्मिक रूप से मुक्त हो गए थे, किन्तु असुर शत्रु थे, अतएव उनका वध किया गया तथा गोपियाँ मित्र थीं, अतएव उनकी रक्षा की गई ।
भगवान् श्रीकृष्ण के प्रादुर्भाव की तीसरी विशिष्टता यह थी कि भगवान् ने गोपियों को श्रीदेवी से अधिक महत्त्व दिया था, तथापि ब्रह्माजी, इन्द्र तथा चन्द्रादि देवताओं के द्वारा वन्दिता श्रीदेवी सदैव भगवान् की सेवा में संलग्न रहीं । श्रीदेवी लक्ष्मीजी ने गोपियों के समान स्तर पर रहने का अथक प्रयास किया, किन्तु वे सफल नहीं हुई । फिर भी वे श्रीकृष्ण के प्रति स्वामिभक्त रहीं । यद्यपि साधारणतया ब्रह्माजी जैसे देवताओं के द्वारा उपासना किए जाने पर भी वे एक स्थान पर नहीं रहती हैं, किन्तु श्रीकृष्ण की सेवा में वे निरन्तर उनके साथ रहीं ।
भगवान् श्रीकृष्ण के प्रादुर्भाव की चौथी विशिष्टता का सम्बन्ध उनके नामों के यश से है । वैदिक साहित्य में कहा गया है कि विष्णु-सहस्र-नाम का जप करने से व्यक्ति को वे ही लाभ प्राप्त होते हैं, जो भगवान् राम के नाम का तीन बार जप करने से प्राप्त होते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण के पावन नाम का एक बार जप करने से ही व्यक्ति को वही लाभ प्राप्त होते हैं । दूसरे शब्दों में, विष्णु तथा राम समेत भगवान् के समस्त नामों में कृष्णनाम सर्वाधिक शक्तिशाली है । अतएव वैदिक साहित्य ने श्रीकृष्ण के पावन नाम के जप पर विशेष रूप से बल दिया है-हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे/ हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे इस युग में श्रीकृष्ण के पवित्र नाम के जप का परिचय भगवान् श्री चैतन्य ने कराया और इस प्रकार मोक्ष को अन्य किसी भी युग से अधिक सरल बना दिया गया । दूसरे शब्दों में, यद्यपि अन्य सभी अवतार समान रूप से श्रीभगवान् हैं, तथापि अपने अन्य किसी भी अवतार से श्रीकृष्ण अधिक श्रेष्ठ हैं ।
भगवान् श्रीकृष्ण के प्रादुर्भाव की पाँचवीं विशिष्टता है कि उन्होनें परम श्रेष्ठ धार्मिक सिद्धान्त की स्थापना भगवद्-गीता में अपने एक कथन से की । वह कथन था कि के वल श्रीकृष्ण की शरण में आने मात्र से व्यक्ति समस्त धार्मिक संस्कारों को सम्पादित कर लेता है । वैदिक साहित्य में बीस प्रकार के धार्मिक सिद्धान्तों का उल्लेख है तथा प्रत्येक का वर्णन भिन्न-भिन्न शास्त्रों में किया गया है । किन्तु इस युग की पतित बद्धात्माओं पर भगवान् श्रीकृष्ण इतने कृ पालु हैं कि वे स्वयं प्रकट हुए तथा उन्होनें प्रत्येक व्यक्ति से सभी प्रकार के धार्मिक संस्कारों को त्याग कर के वल अपनी शरण में आने को कहा । कहा जाता है कि यह कलियुग तीन चौथाई धार्मिक सिद्धान्तों से रहित है । इस युग में कठिनाई से धर्म के एक चौथाई सिद्धान्तों का पालन किया जाता है ।
किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण की दया से कलियुग की यह रिक्तता न के वल पूर्णरूप से भर दी गई है, अपितु धर्म की प्रक्रिया भी अत्यन्त सरल बना दी गई है । इतनी सरल कि के वल भगवान् श्रीकृष्ण के पावन नामों हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे/हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरेके जप के द्वारा भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति करके व्यक्ति धर्म का सर्वोच्च फल प्राप्त कर सकता है । धर्म का सर्वोच्च फल अध्यात्मलोक के सर्वोच्च लोक, गोलोक वृन्दावन में स्थानान्तरण होना है । इस प्रकार व्यक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के प्रादुर्भाव के लाभ का तत्काल अनुमान लगा सकता है तथा यह समझ सकता है अपने प्रदुर्भाव के द्वारा इस जगत् के लोगों को उन्होनें जो शान्ति प्रदान की, वह रंचमात्र भी असामान्य नहीं थी ।
श्रील शुकदेव गोस्वामी भगवान् श्रीकृष्ण के सर्वश्रेष्ठ पद के विवरण को, निम्न प्रकार से भगवान् का यशगान करके समाप्त करते हैं । "हे भगवन् श्रीकृष्ण ! आपकी जय हो । आप सबके हृदय में परमात्मा के रूप में स्थित हैं । अतएव आप “जननिवास” अर्थात् "वह जो प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में निवास करता है" के नाम से विख्यात हैं । जैसाकि भगवद्-
गीता में पुष्टि की गई है- ईश्वर, सवभूतानां हृद्देशेऽजुन तिष्ठति-परमात्मा के रूप में परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में निवास करते हैं । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि श्रीभगवान् के रूप में श्रीकृष्ण का पृथक अस्तित्त्व नहीं है । मायावादी दार्शनिक परब्रम की सर्वव्यापकता के लक्षण को स्वीकार करते हैं, किन्तु जब परब्रम अथवा परमेश्वर प्रकट होते हैं, तब वे विचार करते हैं कि परब्रम भौतिक प्रकृ ति के नियंत्रण में प्रकट होते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण देवकी-सुत के रूप में प्रकट हुए थे, अतएव मायावादी दार्शनिक श्रीकृष्ण को इस भौतिक जगत् में जन्म लेने वाला एक साधारण प्राणी मानते हैं । अतएव श्रीशुकदेव गोस्वामी उनको देवकी-जन्म-वाद के प्रति चेतावनी देते हैं । जिसका अर्थ है कि यद्यपि श्रीकृष्ण देवकी सुत के रूप में प्रसिद्ध हैं, वास्तव में वे परमात्मा अथवा सर्वव्यापी श्रीभगवान् हैं । किन्तु भक्त इस शब्द देवकी-जन्म-वाद को भिन्न रीति से लेते हैं । भक्त समझते हैं कि वास्तव में श्रीकृष्ण माता यशोदा के पुत्र थे । यद्यपि सर्वप्रथम श्रीकृष्ण देवकी के पुत्र के रूप में प्रकट हुए, तत्काल माता यशोदा की गोद में चले गए थे तथा माता यशोदा एवं नन्द महाराज ने उनकी बाल लीलाओं का आनन्द भोग किया था । जब वसुदेवजी ने नन्द महाराज तथा यशोदाजी से कु रुक्षेत्र में भेंट की थी तब स्वयं उन्होनें इस तथ्य को स्वीकार किया था । उन्होनें स्वीकार किया था कि श्रीकृष्ण तथा बलराम जी वस्तुत: माता यशोदा तथा नन्द महाराज के पुत्र थे । वसुदेवजी तथा देवकीजी उनके के वल पिता थे । उनके वास्तविक पिता व माता, नन्द महाराज व यशोदाजी थे । अतएव श्रीशुकदेव गोस्वामी ने भगवान् श्रीकृष्ण को देवकी-जन्म-वाद के रूप में सम्बोधित किया ।
तत्पश्चात् श्रीशुकदेव गोस्वामी ने यदुवरपरिक्षित् यदुवंश की सभा के द्वारा सम्मानित कह कर भगवान् की प्रशंसा की है । वे विभिन्न प्रकार के असुरों के हन्ता के रूप में श्रीकृष्ण का यशगान करते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण अपनी विभिन्न भौतिक शक्तियों के प्रयोग के द्वारा समस्त असुरों का वध कर सकते थे, किन्तु वे उनको मोक्ष प्रदान करने के लिए स्वयं उनका वध करना चाहते थे । असुरों का वध करने के लिए श्रीकृष्ण के इस भौतिक जगत् में आगमन की कोई आवश्यकता नहीं थी । उनके व्यक्तिगत प्रयास के बिना, उनकी इच्छा-मात्र से सैकड़ों हजारों असुरों का वध हो सकता था, किन्तु वस्तुत: वे अपने शुद्ध भक्तों के लिए अवतीर्ण हुए थे, एक बालक के रूप में माता यशोदा तथा नन्द महाराज के साथ क्रीड़ा करने के लिए तथा द्वारकावासियों को सुख देने के लिए । असुरों का वध तथा भक्तों की रक्षा करने के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण ने के वल भगवान् के प्रति प्रेम के वास्तविक धार्मिक सिद्धान्त की स्थापना की । भगवान् के प्रति प्रेम के वास्तविक धर्म-सिद्धान्त का अनुसरण करके , स्थिरचर नाम से प्रख्यात जीव भी समस्त भौतिक प्रदू षणों से मुक्त हो गए तथा अध्यात्मलोक में चले गए । स्थिर का अर्थ है पेड़ पौधे जो चल नहींसकते हैं तथा चर का अर्थ है चलने-फिरने वाले पशु, विशेष रूप से गायें । अपने जीवनकाल में श्रीकृष्ण ने वृन्दावन में तथा द्वारका में अपने दर्शन करने तथा सेवा करने वाले समस्त वृक्षों, वानरों तथा अन्य पौधों व पशुओं को मुक्त कर दिया ।
श्रीभगवान् का सुयश विशेष रूप से गोपियों तथा द्वारका की रानियों को सुख देने के कारण था । श्रीशुकदेव गोस्वामी भगवान् श्रीकृष्ण का यशगान उनकी मोहिनी मुस्कान के लिए करते हैं, जिसके द्वारा श्रीकृष्ण ने न के वल वृन्दावन की गोपियों को मुग्ध कर लिया, अपितु द्वारका में रानियों को भी मोह लिया । इस सम्बन्ध में प्रयुक्त शब्द वर्धयन् कामदेवम् है । वृन्दावन में गोपियों के किशोर सखा के रूप में तथा द्वारका में अनेक रानियों के पति के रूप में श्रीकृष्ण ने उनकी कामेच्छा में अभिवृद्धि की । भगवत्-साक्षात्कार अथवा आत्म-साक्षात्कार के लिए साधारणतया व्यक्ति को हजारों वर्षों तक तपस्या करनी पड़ती है, तब ईश्वर का साक्षात्कार सम्भव होता है । किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के साथ सखा अथवा पति के रूप में आनन्द प्राप्त करने की अपनी कामेच्छा में अभिवृद्धि के द्वारा ही, गोपियों तथा द्वारका की रानियों ने सर्वश्रेष्ठ प्रकार की मुक्ति प्राप्त की ।
गोपियों तथा रानियों के साथ भगवान् श्रीकृष्ण का यह व्यवहार आत्म साक्षात्कार के इतिहास में अपूर्व है । साधारणतया लोग समझते हैं कि आत्मसाक्षात्कार के लिए व्यक्ति को वन अथवा पर्वत में जाकर घोर तपस्या करनी पड़ती है । किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के साथ दाम्पत्य प्रेम में संयुक्त रहकर तथा विलास एवं ऐश्वर्य से पूर्ण तथाकथित विलासितापूर्ण जीवन में भगवान् की संगति का आनन्द उठाने मात्र से, गोपियों तथा रानियों ने ऋषि-मुनियों के लिए भी दुर्लभ, सर्वोच्च मुक्तपद को प्राप्त किया । इसी भाँति कं स, दन्तवक्र, शिशुपाल आदि असुरों को भी दिव्यलोक गमन का सर्वोच्च लाभ प्राप्त हुआ ।
श्रीमद्-भागवत के प्रारम्भ में श्रील व्यासदेव ने परम सत्य, वसुदेव, श्रीकृष्ण को सादर प्रणाम किया है । तदुपरान्त उन्होनें अपने पुत्र श्रीशुकदेव गोस्वामी को श्रीमद्-भागवत का उपदेश देने की शिक्षा दी ।
इसी सम्बन्ध में श्रीशुकदेव गोस्वामी ने "जयति" के रूप में भगवान् की प्रशस्ति की है । श्रील व्यासदेव, श्रीशुकदेव गोस्वामी तथा गुरु-परम्परा में समस्त आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलते हुए जगत् की सम्पूर्ण जनता को श्रीकृष्ण का यशगान करना चाहिए तथा अपने सर्वोत्तम हित के लिए उन्हें कृष्णभावनामृत-आन्दोलन को अपनाना चाहिए । इसकी प्रणाली सरल तथा सहायक है । केवल महामंत्र हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे का जप करना चाहिए । भगवान् श्री चैतन्य ने परामर्श दिया है कि व्यक्ति को भौतिक उतार-चढ़ावों के प्रति ममता-रहित रहना चाहिए ।
भौतिक जीवन अस्थायी है, अतएव जीवन में उतार-चढ़ाव आ सकते हैं । जब वे आते हैं तब व्यक्ति को एक वृक्ष की भाँति सहिष्णु तथा तिनके की भाँति नम्र तथा विनीत होना चाहिए, किन्तु उसे हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे के जप के द्वारा स्वयं को कृष्णभावनामृत में अवश्यमेव संलग्न करना चाहिए ।
समस्त जीवों के परमात्मा, भगवान् श्रीकृष्ण अपनी अहैतुकी दया के कारण अवतीर्ण होते हैं तथा विभिन्न अवतारों में अपनी विभिन्न दिव्य लीलाओं का प्रकाश करते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण के विभिन्न अवतारों की आकर्षक लीलाओं का श्रवण, बद्धात्माओं के लिए मुक्ति का एक अवसर है । स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की अत्यधिक मन्त्रमुग्ध करने वाली तथा सुखकर लीलाएँ और अधिक आकर्षक हैं, क्योकिं भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं सर्वाकर्षक हैं ।
श्रील शुकदेव गोस्वामी के पदचिह्नों पर चलते हुए हमने लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण नामक यह पुस्तक इस युग की बद्धात्माओं के पठन तथा श्रवण के लिए नि:शुल्क प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं के श्रवण द्वारा व्यक्ति की मोक्ष प्राप्ति तथा अपने घर, भगवान् के धाम, लौटना निश्चित है । श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा कि जैसे-जैसे हम भगवान् की दिव्य लीलाओं तथा गतिविधियों का श्रवण करते हैं, हम धीरे -धीरे भौतिक दू षणों की गाँठ को काटते हैं । अतएव कोई भी व्यक्ति यदि भगवान् के दिव्य राज्य में, अनन्तकाल तक, आनन्दमय अस्तित्त्व में भगवान् श्रीकृष्ण का संग प्राप्त करना चाहता है, तब उसे भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं के विषय में श्रवण करना चाहिए तथा हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे महामंत्र का जप करना चाहिए ।
भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं में इतनी शक्ति है कि इस पुस्तक लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के के वल श्रवण, पठन तथा स्मरण करने के द्वारा व्यक्ति का दिव्यलोक में गमन करना निश्चित है, जिस दिव्य लोक को साधारणतया प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है । भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं का विवरण इतना आकर्षक है कि यह स्वयमेव हमें बारम्बार अध्ययन के लिए प्रेरित करता है तथा भगवान् की लीलाओं का हम जितना अधिक अध्ययन करते हैं उतने ही हम उन पर आसक्त होते जाते हैं । श्रीकृष्ण के प्रति यह आसक्ति उनके धाम, गोलोक वृन्दावन जाने की योग्यता प्रदान करती है । जैसाकि हमें पहले अध्याय से ज्ञात होता है भौतिक जगत् के पार जाने का अर्थ भौतिक प्रकृ ति के कठोर नियमों के पार जाना है । भौतिक प्रकृ ति के कठोर नियम उस व्यक्ति की प्रगति को नहीं रोक सकते हैं, जो आध्यात्मिक प्रकृ ति द्वारा आकृ ष्ट है । भगवद्-गीता में स्वयं भगवान् ने इस बात की पुष्टि की है-यद्यपि प्रकृ ति के कठोर नियमों पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है, यदि कोई भगवान् की शरण में जाता है, तो वह अत्यन्त सरलतापूर्वक अज्ञान को पार कर लेता है । आध्यात्मिक जगत् में भौतिक प्रकृ ति का कोई प्रभाव नहीं है । जैसाकि हमें श्रीमद् -भागवत के द्वितीय स्कन्ध से ज्ञात होता है, दिव्य लोक में देवताओं की शासन-शक्ति तथा भौतिक प्रकृ ति के प्रभाव का अभाव है ।
अतएव श्रील शुकदेव गोस्वामी ने द्वितीय स्कं ध के प्रारम्भ में महाराज परीक्षित को परामर्श दिया है कि प्रत्येक बद्धात्मा को भगवान् की दिव्य लीलाओं के श्रवण तथा जप में संलग्न होना चाहिए । श्रील शुकदेव गोस्वामी ने राजा परीक्षित को यह सूचना भी दी कि पहले अनेक अन्य राजा तथा महाराज अपने घर, भगवान् के धाम, लौटने के उद्देश्य से कठोर तपश्चर्या करने के लिए वन में गए थे । भारत में अभी भी यह प्रचलन है कि अनेक उन्नत अध्यात्मवादी गृहस्थ जीवन को त्याग देते हैं तथा पूर्ण रूप से भगवान् की लीलाओं के श्रवण तथा कीर्तन में लगने के लिए वृन्दावन जाते हैं । श्रीमद्-भागवत में इस प्रणाली की सराहना की गई है तथा वृन्दावन के षड्गोस्वामियों ने इसका अनुसरण किया था ।
किन्तु आजकल अनेक कर्मियों तथा पाखण्डी भक्तों ने श्रीशुकदेव गोस्वामी द्वारा सराही गई इस प्रणाली का अनुकरण करने के लिए वृन्दावन के तीर्थ-स्थान में भीड़ कर दी है । कहा जाता है कि पहले अनेक राजा महाराज इस प्रयोजन से वन में गए, किन्तु श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकु र गोस्वामी महाराज उचित समय से पूर्व वृन्दावन में एकान्त जीवन को स्वीकार करने का परामर्श नहीं देते हैं ।
श्रील शुकदेव गोस्वामी के उपदेशों का पालन करने के लिए जो समय से पूर्व वृन्दावन जाता है, वह वृन्दावन में निवास करते हुए भी पुन: माया का शिकार हो जाता है । वृन्दावन में ऐसे लोगों के अवैध वास को रोकने के लिए श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकु र ने एक उत्तम गीत गाया है, जिसका तात्पर्य है, "हे मन ! तुम्हें वैष्णव होने का इतना गर्व क्यों है ? तुम्हारी एकान्त उपासना तथा भगवान् के पावन नाम का जप सस्ती लोकप्रियता की इच्छा पर आधारित है, अतएव तुम्हारे द्वारा भगवन्नाम का जप एक ढोगं मात्र है । सस्ती प्रसिद्धि को ऐसी महत्त्वाकांक्षा की तुलना शूकर के मल से की जा सकती है, क्योकिं ऐसी लोकप्रियता माया के प्रभाव का एक अन्य विस्तार है ।" व्यक्ति सस्ती लोकप्रियता के लिए भी वृन्दावन जा सकता है तथा कृष्णभावनामृत में लीन होने के स्थान पर वह सदैव धन तथा स्त्रियों के विषय में चिन्तन कर सकता है, जो कि सुख का एक अस्थायी स्रोत-मात्र है । उत्तम हो कि मनुष्य अपने पास का सारा धन तथा स्त्रियाँ भगवान् की सेवा में लगाए, क्योकिं इन्द्रिय-भोग बद्धात्माओं के लिए नहीं है ।
इन्द्रियों के स्वामी हृषीके श, भगवान् श्रीकृष्ण हैं । अतएव इन्द्रियों को सदैव उनकी सेवा में लगाना चाहिए । जहाँ तक भौतिक प्रसिद्धि का प्रश्न है, रावण जैसे अनेक असुर भौतिक प्रकृ ति के नियमों के विरुद्ध जाना चाहते थे । किन्तु वे सब असफल रहे । अतएव झूठे मान-सम्मान के लिए भगवान् की सेवा किए बिना वैष्णव होने का दावा करने का आसुरी कर्म नहीं करना चाहिए । किन्तु जब व्यक्ति भगवान् की भक्ति में संलग्न हो जाता है, तब वह स्वयमेव वैष्णव के रूप में प्रसिद्ध हो जाता है । भगवान् के यशों का उपदेश देने में संलग्न भक्तों के प्रति ईर्ष्यालु होने की कोई आवश्यकता नहीं है । वृन्दावन में तथाकथित बाबाजी लोग परामर्श देते हैं कि उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं है तथा वृन्दावन में एकान्त स्थान पर निवास करना अथवा भगवन्नाम का जप करना उत्तम है । हमें इस प्रकार के परामर्श का व्यावहारिक अनुभव है । ऐसे बाबाजी लोगों को यह ज्ञात नहीं है कि यदि कोई व्यक्ति प्रचार-कार्य अथवा श्रीभगवान् के यशगान में संलग्न है, तब एक उपदेशक की सुख्याति स्वयमेव उसका अनुसरण करती है । अतएव व्यक्ति को वृन्दावन जाकर भ्रष्ट जीवन व्यतीत करने के लिए, समय से पूर्व एक गृहस्थ के ईमानदार जीवन का त्याग नहीं करना चाहिए । श्रील शुकदेव गोस्वामी का यह परामर्श कि गृहत्याग करके श्रीकृष्ण की खोज में वनगमन करना चाहिए, अपरिपक्व लोगों के लिए नहीं है ।
महाराज परीक्षित परिपक्व बुद्धि वाले थे । अपने गृहस्थ-जीवन में भी अथवा जीवन के प्रारम्भ से ही उन्होनें भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह की उपासना की थी । अपने बाल्यकाल में उन्होनें भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह की उपासना की तथा बाद में, गृहस्थ-जीवन में भी वे असम्पृक्त थे । अतएव जब उन्हें अपनी मृत्यु की पूर्वसूचना प्राप्त हुई तब तत्काल ही उन्होनें गृहस्थ जीवन से समस्त सम्बन्ध त्याग दिया तथा भक्तों की संगति में गंगा के तट पर श्रीमद्भागवत का श्रवण करने के लिए समासीन हुए ।
 
 
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥