यह बालक धैर्य में बलि महाराज के समान होगा और प्रह्लाद महाराज के समान कृष्ण का अनन्य भक्त, यह अनेक अश्वमेध यज्ञों को सम्पन्न करनेवाला तथा वृद्ध एवं अनुभवी व्यक्तियों का अनुयायी होगा।
तात्पर्य
बलि महाराज—ये भगवान् की भक्ति के बारह अधिकारियों (महाजनों) में से एक हैं। ये भक्ति के अधिकारी (महान्) इसलिए बने, क्योंकि भगवान् को प्रसन्न करने के लिए इन्होंने सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था और अपने तथाकथित गुरु से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया था, क्योंकि गुरु ने भगवान् की सेवा में सर्वस्व न्यौछावर करने में बाधा उत्पन्न की थी। धार्मिक जीवन की सर्वोच्च सिद्धि, बिना किसी कारण के या किसी प्रकार के सांसारिक व्यवधान के, भगवद्भक्ति की अहैतुकी अवस्था प्राप्त करना है। बलि महाराज भगवान् को प्रसन्न करने के लिए सर्वस्व त्याग देने के लिए कृतसंकल्प थे और उन्होंने किसी प्रकार की अड़चन की परवाह नहीं की। ये भक्ति के अन्य प्रामाणिक अधिकारी (महाजन) प्रह्लाद महाराज के पौत्र थे। बलि महाराज तथा विष्णु वामनदेव के साथ उनके व्यवहार की कथा श्रीमद्भागवत के आठवें स्कंध (अध्याय ११-२४) में वर्णित है।
प्रह्लाद महाराज—वे भगवान् कृष्ण (विष्णु) के परम भक्त थे। अभी वे केवल पाँच वर्ष के ही थे कि उनके पिता हिरण्यकशिपु ने भगवान् का अनन्य भक्त होने के लिए उन्हें कठोर दण्ड दिया। वे हिरण्यकशिपु के प्रथम पुत्र थे और उनकी माता का नाम कयाधु था। प्रह्लाद महाराज महाभागवत थे, क्योंकि उनके पिता का वध भगवान् नृसिंहदेव ने किया था। इससे यह दृष्टान्त प्रस्तुत हुआ था कि यदि भक्ति मार्ग में पिता बाधक बने, तो उसे भी भक्ति के पथ से दूर कर देना चाहिए। उनके चार पुत्र थे। सबसे बड़े पुत्र, विरोचन के पुत्र-रूप में, बलि महाराज हुए जिनका वर्णन ऊपर किया गया है। प्रह्लाद महाराज के कार्यकलापों का वर्णन श्रीमद्भागवत के सातवें स्कंध में मिलता है।
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