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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 17: कलि को दण्ड तथा पुरस्कार  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  1.17.6 
यस्त्वं कृष्णे गते दूरं सहगाण्डीवधन्वना ।
शोच्योऽस्यशोच्यान् रहसि प्रहरन् वधमर्हसि ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
य:—जिससे; त्वम्—तुम दुष्ट; कृष्णे—कृष्ण के; गते—चले जाने से; दूरम्—आँख से ओझल; सह—साथ; गाण्डीव— गाण्डीव नामक धनुष; धन्वना—धारण करनेवाला अर्जुन; शोच्य:—अपराधी; असि—हो; अशोच्यान्—निर्दोष; रहसि— एकान्त स्थान में; प्रहरन्—मारते हुए; वधम्—मारे जाने के; अर्हसि—पात्र हो ।.
 
अनुवाद
 
 अरे धूर्त, क्या तुम इस निर्दोष गाय को मारने का दुस्साहस इसीलिए कर रहे हो कि भगवान् कृष्ण तथा गाण्डीवधारी अर्जुन दृष्टि से बाहर हैं? चूँकि तुम इस निर्दोष को एकान्त स्थान में मार रहे हो, अतएव तुम अपराधी हो और बध किये जाने के योग्य हो।
 
तात्पर्य
 जिस सभ्यता में ईश्वर को देश निकाला दे दिया गया हो और जहाँ अर्जुन जैसा भक्त- योद्धा न हो, वहाँ कलियुग के संगी इस कानून-विहीन राज्य का लाभ उठाकर एकान्त कसाईघरों में गाय जैसे निर्दोष पशुओं का वध करने की व्यवस्था करते हैं। ऐसे पशु-हत्यारें महाराज परीक्षित जैसे पवित्र राजा द्वारा मृत्यु-दण्ड दिये जाने के पात्र हैं। जो अपराधी एकान्त स्थान में पशु का बध करता है, वह पवित्र राजा द्वारा उसी तरह मृत्यु-दण्ड पाने का भागी होता है, जिस तरह एकान्त में अबोध बालक का बध करनेवाला हत्यारा।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥