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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 9: भगवान् कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का देह-त्याग  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  1.9.30 
तदोपसंहृत्य गिर: सहस्रणी-
र्विमुक्तसङ्गं मन आदिपूरुषे ।
कृष्णे लसत्पीतपटे चतुर्भुजे
पुर:स्थितेऽमीलितद‍ृग्व्यधारयत् ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
तदा—उस समय; उपसंहृत्य—हटाकर; गिर:—वाणी; सहस्रणी:—भीष्मदेव (जो हजारों विद्याओं तथा कलाओं में निष्णात थे); विमुक्त-सङ्गम्—अन्य सारी बातों से पूर्ण रूप से मुक्त; मन:—मन; आदि-पूरुषे—आदि भगवान्; कृष्णे— कृष्ण में; लसत्-पीत-पटे—पीताम्बर से सुशोभित; चतुर्-भुजे—चार भुजाओं वाले आदि नारायण में; पुर:—समक्ष; स्थिते—खड़े; अमीलित—खुले हुए; दृक्—दृष्टि; व्यधारयत्—स्थिर कर लिया ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् वह व्यक्ति, जो हजारों अर्थों से युक्त विभिन्न विषयों पर बोलता था तथा हजारों युद्धों में लड़ चुका था और हजारों व्यक्तियों की रक्षा कर चुका था, उसने बोलना बन्द कर दिया। उसने समस्त बन्धन से पूर्ण रूप से मुक्त होकर, अन्य सभी वस्तुओं से अपना मन हटाकर, अपने खुले नेत्रों को उन आदि भगवान् श्रीकृष्ण पर टिका दिया, जो उनके समक्ष खड़े थे, जो चार भुजाओं वाले थे और जगमग करते एवं चमचमाते हुए पीत वस्त्र धारण किये थे।
 
तात्पर्य
 अपना भौतिक शरीर त्यागते समय, भीष्मदेव ने मनुष्य-जीवन के महत्त्वपूर्ण कार्य से सम्बन्धित यशस्वी उदाहरण प्रस्तुत किया। मरते हुए व्यक्ति को जो विषय जितना आकर्षित करता है, वह उसके अगले जीवन का शुभारम्भ बनता है। अतएव यदि कोई परमेश्वर श्रीकृष्ण के विचारों में लीन रहता है, तो इसमे कोई सन्देह नहीं है कि उसके लिए भगवान् के धाम में वापस जाना निश्चित है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (८.५-१५) में हुई है।

५. और मृत्यु के समय जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरन्त मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है। इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं है।

६. शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है।

७. अतएव हे अर्जुन, तुन्हें सदैव कृष्ण-रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के अपने कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए। अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके, तुम निश्चित रूप से मुझे पा सकोगे।

८. हे पार्थ (अर्जुन), जो व्यक्ति अपने मन को मेरा स्मरण करने में निरन्तर लगाये रखकर, अविचल भाव से भगवान् के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह अवश्य मेरे पास पहुँच जाता है।

९. मनुष्य को चाहिए कि परम पुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियन्ता, लघुतर से लघुतम, सबों के पालक, समस्त भौतिक बुद्धि से परे, अचिन्त्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे। वे सूर्य की भाँति तेजस्वी हैं और दिव्य होने के कारण इस भौतिक प्रकृति से परे हैं।

१०. मृत्यु के समय जो व्यक्ति अविचलित मन से योग-शक्ति द्वारा, अपने प्राण को भौंहों के मध्य में स्थिर कर लेता है और पूर्ण भक्ति के साथ परमेश्वर के स्मरण में अपने को लगाता है, वह निश्चित् रूप से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को प्राप्त होता है।

११. जो वेदों के ज्ञाता हैं, जो ॐकार का उच्चारण करते हैं, और जो संन्यास-आश्रम के महान् मुनि हैं, वे ब्रह्म में प्रवेश करते हैं। ऐसी सिद्धि की इच्छा करने वाले को ब्रह्मचर्य-व्रत का आचरण करना होता है। अब मैं तुम्हें वह विधि बताऊँगा, जिससे कोई व्यक्ति मुक्ति-लाभ कर सकता है।

१२. समस्त इन्द्रिय-क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति (योगधारण) कहा जाता है। इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बन्द करके तथा मन को हृदय में और प्राण वायु को सिर के ऊपरी भाग में स्थापित करके मनुष्य अपने आप को योग में स्थापित करता है।

१३. इस योग में स्थित होकर तथा अक्षरों के परम संयोग, ॐकार का उच्चारण करते हुए, यदि कोई पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का चिन्तन करता है और अपने शरीर का त्याग करता है, तो वह निश्चित रूप से भगवद्धाम को जाता है।

१४. हे पृथापुत्र, जो अनन्य भाव से निरन्तर मेरा स्मरण करता है, उसके लिए मैं सुलभ हूँ, क्योंकि वह मेरी भक्ति में निरन्तर प्रवृत्त रहता है।

१५. महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, मुझे प्राप्त करने के पश्चात् कभी भी इस दुखों से पूर्ण क्षणिक जगत में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है।

श्री भीष्मदेव को इच्छानुसार शरीर त्याग करने की सिद्धि प्राप्त थी और मृत्यु के समय अपने समक्ष अपने अभीष्ट श्रीकृष्ण को पाकर वे धन्य थे। अत: उन्होंने अपने खुले हुए नेत्र उन पर टिका दिये। वे अपने प्रगाढ़ प्रेम के कारण श्रीकृष्ण को दीर्घ काल तक देखना चाह रहे थे। चूँकि वे शुद्ध भक्त थे, अतएव उन्हें योग की विशद् क्रियाओं की आवश्यकता नहीं थी। सिद्धि के लिए सरल भक्तियोग पर्याप्त है। अतएव भीष्मदेव की हार्दिक इच्छा भगवान् कृष्ण को साक्षात् देखने की थी, जो परम प्रेय थे और भगवत्कृपा से श्री भीष्मदेव को अपनी अन्तिम सास लेते समय यह सुअवसर प्राप्त हुआ।

 
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