युद्धक्षेत्र में (जहाँ मित्रतावश श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ रहे थे) भगवान् कृष्ण के लहराते केश घोड़ों की टापों से उठी धूल से धूसरित हो गये थे तथा श्रम के कारण उनका मुख-मण्डल पसीने की बूँदों से भीग गया था। मेरे तीक्ष्ण बाणों से बने घावों से इन अलंकरणों की शोभा उन्हें अच्छी लग रही थी। मेरा मन उन्हीं श्रीकृष्ण के पास चले।
तात्पर्य
भगवान् शाश्वतता, ज्ञान एवं आनन्द स्वरूप हैं। अत: जब भगवान् की दिव्य प्रेममयी सेवा पाँच प्रमुख सम्बन्धों (रसों) अर्थात् शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य में से किसी एक में वास्तविक प्रेम तथा अनुराग से की जाती है, तो भगवान् उसे ग्रहण करते हैं। श्री भीष्मदेव दास्य भाव से भगवान् के महान भक्त हैं। अतएव भगवान् के दिव्य शरीर पर तीक्ष्ण बाणों की वर्षा, किसी अन्य भक्त द्वारा उन पर की गई कोमल गुलाब के पुष्पों की वर्षा के समान है।
ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् के साथ भीष्मदेव ने जो कुछ किया था, उसके लिए वे पश्चात्ताप कर रहे हैं। लेकिन वास्तविक रूप में अपने दिव्य शरीर के कारण, भगवान् को तनिक भी पीड़ा नहीं हुई थी। उनका शरीर पदार्थ नहीं है। साक्षात् वे तथा उनका शरीर दोनों पूर्ण रूप से आध्यात्मिक हैं। आत्मा को न तो छेदा जा सकता है, न जलाया या सुखाया या गीला किया जा सकता है। इसकी विशद व्याख्या भगवद्गीता में की गई है। स्कन्द पुराण में भी ऐसा ही कथन मिलता है। उसमें कहा गया है कि आत्मा सदैव कल्मषहीन तथा अविनाशी है। न तो उसे कष्ट दिया जा सकता है, न ही उसे सुखाया जा सकता है। जब भगवान् विष्णु अवतरित होकर हमारे समक्ष प्रकट होते हैं तब वे बद्धजीवों के समान भौतिक बन्धन से जकड़े हुए लगते हैं, लेकिन वे ऐसा असुरों या अविश्वासियों को मोहित करने के लिए करते हैं, जो भगवान् को उनके अवतार लेने के प्रारम्भ से ही मारने की ताक में रहते हैं। कंस कृष्ण को और रावण राम को मारना चाह रहे थे, क्योंकि मूर्खतावश वे इस तथ्य से अनजान थे कि भगवान् कभी मारे नहीं जा सकते, क्योंकि आत्मा का कभी विनाश नहीं होता।
अतएव भीष्मदेव द्वारा भगवान् कृष्ण के शरीर को बाणों से बेधना, अभक्त नास्तिकों के लिए एक मोहजनक समस्या है, लेकिन जो भक्त या मुक्तात्मा हैं, वे मोहित नहीं होते। भीष्मदेव ने भगवान् की सर्व-करुणामय मुद्रा की प्रशंसा की, क्योंकि उन्होंने अर्जुन को अकेले नहीं छोड़ा, यद्यपि भीष्मदेव के बाणों से वे विचलित थे। न ही उन्हें भीष्म की मृत्युशय्या के निकट आने में कोई संकोच हुआ, यद्यपि भीष्म ने युद्धभूमि में उनके साथ दुर्व्यवहार किया था। इस दशा में भीष्म का पश्चात्ताप तथा भगवान् की करुणामय मुद्रा, दोनों ही अद्वितीय हैं। महान आचार्य तथा भगवान् के माधुर्य रस के भक्त श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने इस सम्बन्ध में बहुत महत्त्व की बात कही है। वे कहते हैं कि भीष्मदेव के तीक्ष्ण बाणों से भगवान् के शरीर में उत्पन्न हुए घाव उन्हें उसी प्रकार आनन्ददायक लग रहे थे, जिस प्रकार प्रबल कामेच्छा से भगवान् के शरीर में प्रेमिका की चुटकी। प्रेमिका द्वारा इस प्रकार चिकोटी काटा जाना, चाहे शरीर में घाव ही क्यों न करे, शत्रुता का प्रतीक नहीं माना जाता। अतएव भगवान् तथा उनके भक्त श्री भीष्मदेव के बीच जो युद्ध हुआ, वह दिव्य आनन्द का आदान-प्रदान था। वह किसी भी प्रकार से संसारी न था। इसके अतिरिक्त, चूँकि भगवान् का शरीर तथा भगवान् अभिन्न हैं, अतएव परम पूर्ण शरीर में घाव होने की कोई सम्भावना नहीं थी। तीव्र बाणों के द्वारा उत्पन्न घाव सामान्य व्यक्ति को चकरानेवाले हैं, लेकिन जिसको थोड़ा भी परम ज्ञान है, वह इसे शौर्य का दिव्य आदान-प्रदान समझेगा। भीष्मदेव के तीक्ष्ण बाणों से उत्पन्न घावों से भगवान् परम प्रसन्न थे। विभिद्यमान शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि भगवान् की त्वचा भगवान् से भिन्न नहीं है। चूँकि हमारी त्वचा हमारे आत्मा से भिन्न है, अतएव हमारे लिए विभिद्यमान अथवा “रगड़ खाया” एवं “कटा” शब्द अत्यन्त उपुयक्त होगा। दिव्य आनन्द कई तरह का होता है और इस जगत में जितने भी कार्य-कलाप हैं, वे दिव्य आनन्द के उल्टे प्रतिबिम्ब मात्र हैं। चूँकि इस संसार की हर वस्तु सांसारिक है, अतएव वह उन्माद से पूर्ण है, लेकिन परम जगत में प्रत्येक वस्तु एक ही परम स्वभाव की होने के कारण वहाँ तरह-तरह के उन्माद से रहित भोग हैं। भगवान् को अपने परम भक्त भीष्मदेव द्वारा उत्पन्न घाव आनन्द प्रदान कर रहे थे और चूँकि भीष्मदेव वीर रस के भक्त हैं, अतएव वे उसी क्षत-विक्षत दशा वाले कृष्ण पर अपना ध्यान स्थिर करते हैं।
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