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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 9: भगवान् कृष्ण की उपस्थिति में भीष्मदेव का देह-त्याग  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  1.9.43 
सूत उवाच
कृष्ण एवं भगवति मनोवाग्द‍ृष्टिवृत्तिभि: ।
आत्मन्यात्मानमावेश्य सोऽन्त:श्वास उपारमत् ॥ ४३ ॥
 
शब्दार्थ
सूत: उवाच—सूत गोस्वामी ने कहा; कृष्णे—पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण में; एवम्—एकमात्र; भगवति—भगवान् में; मन:—मन से; वाक्—वाणी से; दृष्टि—दृष्टि से; वृत्तिभि:—कार्यों से; आत्मनि—परमात्मा में; आत्मानम्—जीव को; आवेश्य—लीन करके; स:—वे; अन्त:-श्वास:—श्वास खींचकर; उपारमत्—शान्त हो गए ।.
 
अनुवाद
 
 सूत गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार भीष्मदेव ने मन, वाणी, दृष्टि तथा कार्यों से अपने आपको परमात्मा अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण में लीन कर दिया और शान्त हो गये और उनकी श्वास रुक गई।
 
तात्पर्य
 भीष्मदेव द्वारा अपना भौतिक शरीर त्यागते समय प्राप्त की गई अवस्था निर्विकल्प-समाधि कहलाती है, क्योंकि उन्होंने अपने आत्मा को भगवान् का चिन्तन करने में और अपने मन को उनके विभिन्न कार्य-कलापों का स्मरण करने में लीन कर दिया था। उन्होंने भगवान् की महिमा का कीर्तन किया और अपनी दृष्टि से वे अपने समक्ष खड़े साक्षात् भगवान् का दर्शन करते रहे और इस प्रकार उनके सारे कार्य-कलाप अविचल भाव से भगवान् में एकाग्र हो गये। यह सिद्धि की सर्वोच्च अवस्था है और भक्तिमय सेवा का अभ्यास करके हर किसी के लिए इस अवस्था को प्राप्त करना संभव है। भगवान् की भक्ति में नौ सेवा-सिद्धान्त होते हैं। वे हैं— १) श्रवण, २) कीर्तन, ३) स्मरण, ४) चरणकमल की सेवा, ५) पूजा, ६) स्तुति, ७) आज्ञा पालन, ८) सख्य तथा ९) आत्म-समर्पण। इनमें से कोई एक या सभी वांछित फल को देनेवाले हैं, लेकिन किसी दक्ष भगवद्भक्त के पथ-प्रदर्शन में ही इनका निरन्तर अभ्यास करना आवश्यक है। इनमें से प्रथम चरण श्रवण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, अतएव जो व्यक्ति अन्त में भीष्मदेव जैसी अवस्था प्राप्त करना चाहता है, उसके लिए भगवद्गीता का और फिर श्रीमद्भागवत का श्रवण करना आवश्यक है। हमें भी मृत्यु के समय भीष्मदेव को प्राप्त होने वाली अपूर्व स्थिति प्राप्त हो सकती है, भले ही साक्षात् भगवान् कृष्ण उपस्थित न भी हों। भगवद्गीता या श्रीमद्भागवत के भगवान् के शब्द उनसे अभिन्न हैं। वे भगवान् के शब्द अवतार हैं और कोई भी मनुष्य, आठ वसुओं में से एक श्री भीष्मदेव जैसी अवस्था प्राप्त करके इनका लाभ उठा सकता है। प्रत्येक मनुष्य या पशु को एक निश्चित आयु में मरना होता है, लेकिन जो व्यक्ति भीष्मदेव की तरह मरता है, वह पूर्णता प्राप्त करता है और जो प्रकृति के नियमों से बाध्य होकर मरता है, वह पशु की तरह मरता है। मनुष्य तथा पशु में यही अन्तर है। यह मनुष्य जीवन विशिष्ट रूप से भीष्मदेव जैसी मृत्यु के लिए है।
 
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