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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 16: कृष्ण द्वारा कालिय नाग को प्रताडऩा  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  10.16.10 
तं नागभोगपरिवीतमद‍ृष्टचेष्ट-
मालोक्य तत्प्रियसखा: पशुपा भृशार्ता: ।
कृष्णेऽर्पितात्मसुहृदर्थकलत्रकामा
दु:खानुशोकभयमूढधियो निपेतु: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उनको; नाग—सर्प की; भोग—कुंडली के भीतर; परिवीतम्—घिरा हुआ; अदृष्ट-चेष्टम्—किसी प्रकार की गति न दिखलाते हुए; आलोक्य—देखकर; तत्-प्रिय-सखा:—उनके प्रिय सखा; पशु-पा:—ग्वाले; भृश-आर्ता:—अत्यधिक विचलित; कृष्णे—कृष्ण को; अर्पित—अर्पित किया; आत्म—स्वयं को; सु-हृत्—अपने सम्बन्धी; अर्थ—सम्पत्ति; कलत्र— पत्नियाँ; कामा:—तथा सारी भोग्य वस्तुएँ; दु:ख—पीड़ा से; अनुशोक—पश्चात्ताप; भय—तथा डर; मूढ—मोहित; धिय:— बुद्धि; निपेतु:—भूमि पर गिर पड़े ।.
 
अनुवाद
 
 जब ग्वाल समुदाय के सदस्यों ने, जिन्होंने कृष्ण को अपना सर्वप्रिय मित्र मान रखा था, उन्हें नाग की कुण्डली में लिपटा हुआ और गतिहीन देखा तो वे अत्यधिक विचलित हो उठे। उन्होंने कृष्ण को अपना सर्वस्व—अपने आप को, अपने परिवार, अपनी सम्पत्ति, अपनी पत्नियाँ तथा सारे आनन्द—अर्पित कर रखा था। भगवान् को कालिय सर्प के चंगुल में देखकर उनकी बुद्धि शोक, पश्चात्ताप तथा भय से भ्रष्ट हो गई और वे पृथ्वी पर गिर पड़े।
 
तात्पर्य
 श्रील सनातन गोस्वामी बतलाते हैं कि ग्वालबाल, कुछ गोप तथा आस-पास के किसान जो कृष्ण के भक्त थे वे भूमि पर इस प्रकार गिर पड़े मानों जड़ से कटे हुए वृक्ष हों।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥