हर व्यक्ति को चार आश्रमों में से अपने आश्रम के अुनरूप नियत कर्तव्य करने चाहिए। ये आश्रम हैं—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास। ब्रह्मचारी को विद्यार्थी जीवन में अनेक निम्न कार्य करने होते हैं किन्तु ज्यों ज्यों वह कृष्ण की प्रेमाभक्ति में आगे बढ़ता जाता है उसके गुरुजन उसके आध्यात्मिक पद को मान्यता देते हुए उससे उच्चतर कर्तव्य करने को कहते हैं। गृहस्थ को पत्नी तथा सन्तान के लिए निरन्तर अनगनित कार्य करते रहने से ऊब जाना पड़ता है किन्तु ज्योंही वह कृष्ण की प्रेमाभक्ति में आगे बढ़ पड़ता है उसके भौतिक कार्य घटकर कम से कम होते जाते हैं। वानप्रस्थ आश्रम में रहनेवाले लोगों को भी अनेक कार्य करने होते हैं जिनके स्थान पर कृष्ण की भावमयी प्रेमाभक्ति की जा सकती है। इसी तरह संन्यास आश्रम में भी अनेक प्राकृतिक कठिनाइयाँ हैं जिनमें से प्रमुख है परब्रह्म के निराकार पक्ष का ध्यान करने की प्रवृत्ति। भगवद्गीता (१२.५) में कहा गया है—क्लेशोऽधिकतरस्तेषाम् अव्यक्तासक्तचेतसाम्—जिनके मन भगवान् के अव्यक्त निर्विशेष स्वरूप में आसक्त हैं उनके लिए प्रगति कर पाना अत्यधिक पीड़ाजनक होता है। किन्तु ज्योंही संन्यासी हर नगर तथा हर ग्राम में कृष्ण की महिमा का प्रचार करना शुरू कर देता है, तो उसका जीवन सुन्दर आध्यात्मिक साक्षात्कार की ओर अग्रसर होता हुआ आनन्दमय बन जाता है।
शरद ऋतु में आकाश पुन: प्राकृतिक नीला रंग धारण कर लेता है। बादलों का समाप्त हो जाना ब्रह्मचारी जीवन के कष्टप्रद कर्तव्यों के समाप्त होने जैसा है। चूँकि ग्रीष्म के तुरन्त बाद वर्षा ऋतु आती है इसलिए पशु कभी कभी मूसलाधार वर्षा से विचलित होकर पास-पास ठुँस जाते हैं। किन्तु शरद ऋतु संकेत देती है कि वे अपने अपने क्षेत्रों में जाकर शान्तिपूर्वक रहें। यह गृहस्थ द्वारा पारिवारिक कर्तव्यों की उलझन से छूटकर अपने तथा अपने परिवार के असली लक्ष्य आध्यात्मिक उत्तरदायित्वों में अधिक समय लगाने के तुल्य है। पृथ्वी से कीचड़ हटने की तुलना वानप्रस्थ जीवन की असुविधाओं के हटाये जाने से की जा सकती है और जल का स्वच्छ होना, मैथुन-कामना के बिना, कृष्ण-महिमा के प्रचार द्वारा, संन्यास-जीवन के शुद्धीकरण के तुल्य है।