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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 23: ब्राह्मण-पत्नियों को आशीर्वाद  »  श्लोक 42
 
 
श्लोक  10.23.42 
अहो पश्यत नारीणामपि कृष्णे जगद्गुरौ ।
दुरन्तभावं योऽविध्यन्मृत्युपाशान् गृहाभिधान् ॥ ४२ ॥
 
शब्दार्थ
अहो पश्यत—देखो तो सही; नारीणाम्—इन स्त्रियों की; अपि—भी; कृष्णे—भगवान् कृष्ण में; जगत्-गुरौ—सकल ब्रह्माण्ड के गुरु; दुरन्त—असीम; भावम्—भक्ति; य:—जिसने; अविध्यत्—तोड़ डाला है; मृत्यु—मृत्यु के; पाशान्—बन्धनों को; गृह- अभिधान्—गृहस्थ जीवन के नाम से विख्यात् ।.
 
अनुवाद
 
 जरा इन स्त्रियों के असीम प्रेम को तो देखो जो इन्होंने अखिल विश्व के आध्यात्मिक गुरु भगवान् के प्रति उत्पन्न कर रखा है। इस प्रेम ने गृहस्थ जीवन के प्रति उनकी आसक्ति—मृत्यु के बन्धन—को छिन्न कर दिया है।
 
तात्पर्य
 एक तरह पति, पिता, ससुर इत्यादि उन महिलाओं के गुरु या शिक्षक थे किन्तु वे स्त्रियाँ कृष्ण-भक्ति में पूर्ण हो चुकी थीं जबकि पुरुष अज्ञान के गर्त में गिर चुके थे।

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के अनुसार घर लौटने पर इन महिलाओं में दिव्य भावों के लक्षण प्रकट होने लगे—यथा शरीर कम्प, अश्रुपात, रोमांच, विवर्णता, “मेरे जीवन के आनन्दरूप कृष्ण” कहकर प्रलाप, गला रुँधना इत्यादि।

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर यहाँ तक कह डालते हैं कि कोई भले ही यह विरोध करे कि अपने पति के अतिरिक्त स्त्री को अन्य किसी पुरुष से प्रेम करना उचित नहीं किन्तु यहाँ तो पतिगण ही यह इंगित कर रहे हैं कि वे जगद्गुरु कृष्ण के बनावटी गुरु हैं, जो सारे ब्रह्माण्ड के शिक्षक और आध्यात्मिक गुरु हैं। पतियों ने देखा कि उनकी पत्नियों में कृष्ण के प्रति दिव्य अनुराग के कारण घर, पति, सन्तान इत्यादि के लिए रंच-भर भी अनुरक्ति नहीं रह गई है। इसलिए उसी दिन से उन पतियों ने उन स्त्रियों को अपना आध्यात्मिक पूज्य गुरु मान लिया और उन्हें पत्नियों या सम्पत्ति के रूप में मानना बन्द कर दिया।

 
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