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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 23: ब्राह्मण-पत्नियों को आशीर्वाद  »  श्लोक 43-44
 
 
श्लोक  10.23.43-44 
नासां द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावपि ।
न तपो नात्ममीमांसा न शौचं न क्रिया: शुभा: ॥ ४३ ॥
तथापि ह्युत्तम:श्लोके कृष्णे योगेश्वरेश्वरे ।
भक्तिर्दृढा न चास्माकं संस्कारादिमतामपि ॥ ४४ ॥
 
शब्दार्थ
—न तो; आसाम्—इनका; द्विजाति-संस्कार:—समाज के द्विज कहलाने वाले वर्ग के संस्कार; —न; निवास:—निवास; गुरौ—गुरु के आश्रम में (अर्थात् ब्रह्मचारी रूप में प्रशिक्षण); अपि—भी; —न तो; तप:—तपस्या; —न; आत्म- मीमांसा—आत्मा की वास्तविकता के विषय में दार्शनिक जिज्ञासा; —नहीं; शौचम्—स्वच्छता का अनुष्ठान; —नहीं; क्रिया:—कर्मकाण्ड; शुभा:—शुभ; तथा अपि—फिर भी; हि—निस्सन्देह; उत्तम:-श्लोके—जिनका यशगान उच्च कोटि के वैदिक मंत्रों द्वारा किया जाता है; कृष्णे—कृष्ण के लिए; योग-ईश्वर-ईश्वरे—योग के समस्त स्वामियों का परम स्वामी; भक्ति:—शुद्ध भक्ति; दृढा—दृढ़; —नहीं; —दूसरी ओर; अस्माकम्—हम सब की; संस्कार-आदि-मताम्—ऐसे संस्कारों इत्यादि वाले; अपि—यद्यपि ।.
 
अनुवाद
 
 इन स्त्रियों ने न तो द्विजों के शुद्धीकरण संस्कार कराये हैं, न ही किसी आध्यात्मिक गुरु के आश्रम में ब्रह्मचारियों का जीवन बिताया है, न इन्होंने कोई तपस्या की है या आत्मा के विषय में मनन किया है या स्वच्छता की औपचारिकताओं का निर्वाह अथवा पावन अनुष्ठानों में अपने को लगाया है। तो भी इनकी दृढ़ भक्ति उन भगवान् कृष्ण के प्रति है जिनका यशोगान वैदिक मंत्रों द्वारा किया जाता है और जो योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं। और दूसरी ओर हम हैं जिन्होंने भगवान् की कोई भक्ति नहीं की यद्यपि हमने इन सारी विधियों को सम्पन्न किया है।
 
तात्पर्य
 श्रील श्रीधर स्वामी के अनुसार, पतियों को इसका ज्ञान न था कि उनकी पत्नियाँ कभी कभी वृन्दावनवासियों से, यथा फूल बेचने वाली मालिनियों के मुख से कृष्ण के सौन्दर्य तथा गुणों के विषय में सुनती रहती थी। ये ब्राह्मण अपनी पत्नियों की कृष्ण-भक्ति को देखकर चकित थे। उन्हें इसका पता ही नहीं था कि यह भक्ति भगवान् के शुद्ध भक्तों की संगति में भगवान् के विषय में श्रवण और कीर्तन करने का फल है।
 
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