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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 29: रासनृत्य के लिए कृष्ण तथा गोपियों का मिलन  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  10.29.16 
न चैवं विस्मय: कार्यो भवता भगवत्यजे ।
योगेश्वरेश्वरे कृष्णे यत एतद् विमुच्यते ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
न च—न तो; एवम्—इस प्रकार का; विस्मय:—आश्चर्य; कार्य:—किया जाना चाहिए; भवता—आपके द्वारा; भगवति— भगवान्; अजे—अजन्मा; योग-ईश्वर—योग के स्वामियों के; ईश्वरे—परम स्वामी; कृष्णे—कृष्ण के विषय में; यत:—जिनसे; एतत्—यह (संसार); विमुच्यते—मुक्ति प्राप्त करता है ।.
 
अनुवाद
 
 आपको योगेश्वरों के अजन्मा, ईश्वर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण के विषय में इस तरह चकित नहीं होना चाहिए। अन्तत: भगवान् ही इस जगत का उद्धार करने वाले हैं।
 
तात्पर्य
 परीक्षित महाराज को इतना चकित नहीं होना चाहिए था कि भगवान् कृष्ण के तथाकथित प्रेमालाप समस्त ब्रह्माण्ड को मुक्त कराने के निमित्त हैं। आखिर, यही तो भगवान् का उद्देश्य है कि आनन्द तथा ज्ञानमय जीवन के लिए समस्त बद्धात्माओं को अपने धाम वापस बुलायें। गोपियों के प्रति कृष्ण के माधुर्य व्यापार उक्त योजना के साथ बहुत ही अच्छी तरह से मेल खाते हैं क्योंकि भौतिक चेतना में वास्तविक रूप में आसक्त हम सभी उनके विषय में सुनकर शुद्ध तथा मुक्त हो सकते हैं।

श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध (१.५.३३) में नारदमुनि कहते हैं—

आमयो यश्च भूतानां जायते येन सुव्रत।

तदेव ह्यामयं द्रव्यं न पुनाति चिकित्सितम् ॥

“हे पवित्र आत्मा! जिस वस्तु से कोई रोग उत्पन्न होता है, क्या उसीको औषधि के रूप में लगाने से वह रोग ठीक नहीं हो जाता?” अत: कृष्ण के प्रेम-व्यापार शुद्ध आध्यात्मिक कर्म होने के कारण उन लोगों के भौतिक कामवासना के रोग को दूर कर देंगे जो उनका श्रवण करते हैं।

 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥