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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 35: कृष्ण के वनविहार के समय गोपियों द्वारा कृष्ण का गायन  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  10.35.1 
श्रीशुक उवाच
गोप्य: कृष्णे वनं याते तमनुद्रुतचेतस: ।
कृष्णलीला: प्रगायन्त्यो निन्युर्दु:खेन वासरान् ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; गोप्य:—गोपियाँ; कृष्णे—कृष्ण के; वनम्—वन को; याते—जाने पर; तम्—उसके; अनुद्रुत—पीछा करते; चेतस:—जिनके मन; कृष्ण-लीला:—कृष्ण की दिव्य लीलाएँ; प्रगायन्त्य:—जोर जोर से गाती हुई; निन्यु:—बिताया; दु:खेन—दुख के साथ; वासरान्—दिन ।.
 
अनुवाद
 
 शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब भी कृष्ण वन को जाते थे तो गोपियों के मन उन्हीं के पीछे भाग जाते थे और इस तरह युवतियाँ उनकी लीलाओं का गान करते हुए खिन्नतापूर्वक अपने दिन बिताती थीं।
 
तात्पर्य
 यद्यपि गोपियाँ रात्रि के समय रासनृत्य में कृष्ण के प्रत्यक्ष संग का आनन्द लेती थीं किन्तु दिन में कृष्ण अपना सामान्य कार्य करने में—जंगल में गौवें चराने में—लगे रहते थे। उस समय गोपियों के मन उनके साथ चले जाते किन्तु उन बेचारियों को गाँव में रहकर अपने गृहकार्य करने पड़ते थे। इस तरह वियोग की पीड़ा सहते हुए वे कृष्ण की दिव्य लीलाओं का गायन करती रहती थीं।
 
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