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श्लोक 10.47.67  |
कर्मभिर्भ्राम्यमाणानां यत्र क्वापीश्वरेच्छया ।
मङ्गलाचरितैर्दानै रतिर्न: कृष्ण ईश्वरे ॥ ६७ ॥ |
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शब्दार्थ |
कर्मभि:—सकाम कर्मों द्वारा; भ्राम्यमाणानाम्—घुमाये जाने वालों का; यत्र क्व अपि—जहाँ कभी भी; ईश्वर—भगवान् की; इच्छया—इच्छा से; मङ्गल—शुभ; आचरितै:—कार्यों से; दानै:—दान से; रति:—आसक्ति; न:—हमारी; कृष्णे—कृष्ण में; ईश्वरे—भगवान् ।. |
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अनुवाद |
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भगवान् की इच्छा से हमें अपने सकाम कर्मों के फलस्वरूप इस संसार में जहाँ भी घूमना पड़े हमारे सत्कर्म तथा दान हमें सदा भगवान् कृष्ण का प्रेम प्रदान करें। |
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