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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 52: भगवान् कृष्ण के लिए रुक्मिणी-संदेश  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  10.52.3 
तप:श्रद्धायुतो धीरो नि:सङ्गो मुक्तसंशय: ।
समाधाय मन: कृष्णे प्राविशद् गन्धमादनम् ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
तप:—तपस्या; श्रद्धा—श्रद्धा से; युत:—युक्त; धीर:—गम्भीर; नि:सङ्ग:—भौतिक संगति से विरक्त; मुक्त—स्वतंत्र; संशय:— सन्देहों से; समाधाय—समाधि में स्थिर करके; मन:—अपना मन; कृष्णे—कृष्ण में; प्राविशत्—प्रवेश किया; गन्धमादनम्— गन्धमादन नामक पर्वत पर ।.
 
अनुवाद
 
 भौतिक संगति से परे तथा सन्देह से मुक्त सौम्य राजा तपस्या के महत्व के प्रति विश्वस्त था। अपने मन को कृष्ण में लीन करते हुए वह गन्धमादन पर्वत पर आया।
 
तात्पर्य
 गन्धमादन नाम सुहावनी सुगन्धों का सूचक है । निस्सन्देह, गन्धमादन जंगली फूलों की सुगंध से तथा जंगली शहद से और दूसरी प्राकृतिक सुगन्धों से पूर्ण था।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥