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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 90: भगवान् कृष्ण की महिमाओं का सारांश  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  10.90.25 
श्रीशुक उवाच
इतीद‍ृशेन भावेन कृष्णे योगेश्वरेश्वरे ।
क्रियमाणेन माधव्यो लेभिरे परमां गतिम् ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—शुकदेव गोस्वामी ने कहा; इति—इस तरह कहते हुए; ईदृशेन—ऐसे; भावेन—भावपूर्ण प्रेम से; कृष्णे— कृष्ण के लिए; योग-ईश्वर—योग के स्वामियों के; ईश्वरे—स्वामी; क्रियमाणेन—आचरण करते हुए; माधव्य:—माधव की पत्नियों ने; लेभिरे—प्राप्त किया; परमाम्—चरम; गतिम्—गन्तव्य, लक्ष्य ।.
 
अनुवाद
 
 शुकदेव गोस्वामी ने कहा : योग के समस्त ईश्वरों के ईश्वर भगवान् कृष्ण के ऐसे भावमय प्रेम में बोलती तथा कार्य करती हुईं, उनकी प्रिय पत्नियों ने जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त किया।
 
तात्पर्य
 आचार्य श्रील गोस्वामी के अनुसार यहाँ पर शुकदेव गोस्वामी क्रियमाणेन शब्द को वर्तमान काल में यह सूचित करने के लिए प्रयुक्त करते हैं कि भगवान् की रानियों ने तुरन्त ही बिना विलम्ब उनके नित्य धाम को प्राप्त किया। इस अन्तर्दृष्टि से आचार्य इस झूठी कल्पना का निराकरण करते हैं कि इस लोक से कृष्ण के चले जाने पर कुछ आदिकालीन ग्वालों ने उनकी पत्नियों का तब अपहरण कर लिया, जब वे अर्जुन के संरक्षण में थीं। वस्तुत: जैसाकि स्वरूपसिद्ध वैष्णव टीकाकारों ने अन्यत्र व्याख्या की है भगवान् कृष्ण स्वयं ही उन चोरों के वेश में प्रकट हुए थे, जिन्होंने रानियों का अपहरण किया था। इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए श्रीमद्भागवत (१.१५.२०) के श्रील प्रभुपाद द्वारा लिखित तात्पर्य को देखना चाहिए।

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती की टिप्पणी है कि इन भद्र महिलाओं ने जो चरम गति प्राप्त की वह निर्विशेष योगियों की मुक्ति नहीं थी अपितु प्रेम-भक्ति की पूर्ण दशा थी। निस्सन्देह, चूँकि वे प्रारम्भ से दिव्य भगवत्प्रेम से ओतप्रोत थीं, अतएव उन्हें सच्चिदानन्द विग्रह प्राप्त था, जिसमें वे भगवान् की अन्तरंग मधुर लीलाओं के आदान-प्रदान का आनन्द प्राप्त कर सकती थीं। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती के मतानुसार, उनका भगवत्प्रेम भावोन्माद में बदल चुका था, जिस तरह गोपियों के प्रेम के साथ हुआ था, जब कृष्ण उनके रासनृत्य के बीच से ही अदृश्य हो गये थे। उस समय गोपियों ने पूर्ण भावोन्माद का अनुभव किया था, जिसको उन्होंने जंगल के विविध जन्तुओं से पूछताछ करते हुए तथा इन शब्दों द्वारा कृष्णोऽहं पश्यत गतिम् (मैं कृष्ण हूँ। देखो न, मैं कितने गौरव से चल रही हूँ।” (भागवत १०.३०.१९) व्यक्त किया था। इसी तरह भगवान् द्वारकाधीश की प्रमुख पत्नियों के प्रेम-भाव या विलास ने उनमें प्रेमवैचित्र्य के लक्षण उत्पन्न किये, जिसे वे यहाँ प्रकट कर रही हैं।

 
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