हे वसुदेव, आप तथा आपकी उत्तम पत्नी देवकी ने कृष्ण को अपने पुत्र रूप में स्वीकार करके उनके प्रति महान् दिव्य प्रेम दर्शाया है। निस्सन्देह आप दोनों भगवान् का सदैव दर्शन तथा आलिंगन करते रहे हैं, उनसे बातें करते रहे हैं, उनके साथ विश्राम करते तथा उठते-बैठते तथा उनके साथ अपना भोजन करते रहे हैं। भगवान् के साथ ऐसे स्नेहपूर्ण तथा घनिष्ठ संग से आप दोनों ने अपने हृदयों को पूरी तरह शुद्ध बना लिया है। दूसरे शब्दों में, आप दोनों पहले से पूर्ण हो।
तात्पर्य
इस श्लोक में आत्मा वां पावित: शब्द अत्यन्त सार्थक हैं। सामान्य बद्धजीवों को भक्तियोग के विधानों का अभ्यास करके तथा यह सीखकर कि भगवान् की सेवा में अपने सारे कर्मों को किस तरह अर्पित किया जाता है, अपने शरीर को शुद्ध करना पड़ता है। किन्तु जो महापुरुष भगवान् की सेवा उनके माता-पिता, सखा, सखी, सलाहकार, पुत्र इत्यादि के रूप में करते हैं, उन पर यह नियामक क्रमिक विधि लागू नहीं की जा सकती। कृष्ण के प्रति अपने पुत्र रूप में वसुदेव तथा देवकी के गहन प्रेम के कारण उन्होंने पहले ही जीवन की सर्वोच्च सिद्धावस्था प्राप्त कर ली थी। यद्यपि पिछले श्लोक में नारद मुनि ने वसुदेव को सूचित किया था कि वे तथा उनकी पत्नी कृष्ण को पुत्र रूप में जन्म देने से यशस्वी बन चुके हैं, किन्तु वसुदेव यह तर्क कर सकते थे कि भगवान् के अन्य निजी संगी, यथा जय तथा विजय ब्राह्मण वर्ग का अपमान करने के कारण नीचे गिर गए थे। इसीलिए नारद ने इस श्लोक में पावित: शब्द का प्रयोग किया है, “आप पूर्णतया शुद्ध हैं अतएव कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ प्रेम होने से अपनी भक्ति में रंचमात्र भी त्रुटि से पूर्णतया मुक्त हैं।”
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर की टीका से यह जाना जाता है कि कृष्ण के लीला-पिता श्री वसुदेव वास्तव में भगवान् के नित्य-सिद्ध संगी हैं। वसुदेव का शरीर कृष्ण की ही तरह आध्यात्मिक है और वे अपने सुन्दर पुत्र श्रीकृष्ण की सेवा करने के लिए भावमग्न रहते हैं। किन्तु नारद यह जान गये कि वसुदेव अतीव विनयशीलता के कारण अपने को सामान्य व्यक्ति मान रहे हैं और भगवद्भक्ति के विषय में दिव्य उपदेश सुनने के लिए उत्सुक हैं। वसुदेव की भावमयी विनयशीलता को स्वीकार करते हुए एवं उन्हें चिन्तामुक्त करने के लिए श्री नारद ने उन्हें भक्तियोग के विषय में, वैसे ही उपदेश दिये, जैसे कि किसी सामान्य व्यक्ति को दिये जाते हैं। किन्तु साथ ही नारद ने यह स्पष्ट कर दिया कि श्री वसुदेव तथा देवकी पहले से यशस्वी हैं, क्योंकि सौभाग्य से उन्हें कृष्ण तथा बलराम जैसे पुत्र प्राप्त हैं। इसीलिए वसुदेव से नारद कह रहे हैं, “हे वसुदेव! आप अपने पद के बारे में किसी तरह भी निरुत्साहित या सशंक मत होएँ। निस्सन्देह, आप शीघ्र ही भगवद्धाम जाने वाले हैं। वस्तुत: आप तथा आपकी पत्नी सर्वाधिक भाग्यशाली हैं।”
निष्कर्ष यह है कि हर एक को अपना सुसुप्त कृष्ण-प्रेम जागृत करके भाग्यशाली बनना चाहिए। ऐसे अनेक भयानक असुरों ने, जिन्होंने कृष्ण का विरोध किया, उनकी संगति से अंतत: सुखमय जीवन प्राप्त किया। अतएव, जो भक्त रात-दिन कृष्ण को ही प्रसन्न करने की सोचते रहते हैं, उन्हें परमानन्द की प्राप्ति में कोई सन्देह नहीं है।
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