सूत गोस्वामी ने कहा : शुकदेव गोस्वामी से आत्मा के सत्य के विषय में बातें सुनकर, उत्तरा के पुत्र महाराज परीक्षित ने आस्थापूर्वक अपना ध्यान भगवान् कृष्ण में लगा दिया।
तात्पर्य
सतीम् शब्द अत्यन्त सार्थक है। इसके दो अर्थ हैं ‘निष्ठावान’ तथा ‘संयत’। ये दोनों ही आशय महाराज परीक्षित पर पूर्ण रूप से लागू होते हैं। सारा वैदिक अध्यवसाय मनुष्य के ध्यान को पूर्णत: भगवान् कृष्ण के चरणकमलों की ओर आकृष्ट करना है, जैसाकि भगवद्गीता (१५.१५) मेंं निर्दिष्ट है। सौभाग्यवश महाराज परीक्षित अपनी माता के गर्भ में अपना शरीर धारण करके प्रारम्भ से ही भगवान् के प्रति आकृष्ट हो चुके थे। जब वे अपनी माता के गर्भ में थे तभी अश्वत्थामा द्वारा छोड़े गये ब्रह्मास्त्र या परमाणु बम से उन पर प्रहार हुआ था किन्तु भगवत्कृपा, से वे उस अग्नि-अस्त्र से जलने से बच गये थे। तबसे ही उन्होंने अपना मन भगवान् कृष्ण पर एकाग्र कर रखा था जिससे वे भक्ति में पूर्ण रूप से संयत हो गये। अतएव स्वाभाविक रुप से वे भगवान् के संयत शुद्ध भक्त थे तथा जब उन्होंने श्रील शुकदेव गोस्वामी से सुना कि उन्हें भगवान् के अतिरिक्त अन्य किसी की पूजा नहीं करनी चाहिए, चाहे सकाम भाव से हो या निष्काम भाव से, तो कृष्ण के प्रति उनका सहज प्रेम और भी दृढ़ हो गया। हम इन विषयों को पहले ही बता चुके हैं।
भगवान् कृष्ण का शुद्ध भक्त बनने के लिए दो बातें अत्यावश्यक हैं—भक्त-कुल में जन्म लेना तथा प्रामाणिक गुरु का आशीष प्राप्त होना। भगवान् कृष्ण की कृपा से महाराज परीक्षित को ये दोनों सुअवसर प्राप्त थे। वे पाण्डवों-जैसे भक्त कुल में उत्पन्न हुए थे और भगवान् ने पाण्डव वंश को बनाये रखने तथा उन पर विशेष कृपा दिखाने के कारण ही महाराज परीक्षित को बचा लिया था जिन्हें बाद में ब्राह्मण बालक ने शाप दिया और फिर शुकदेव गोस्वामी जैसे गुरु का सान्निध्य प्राप्त हो सका। चैतन्य- चरितामृत में कहा गया है कि गुरु तथा भगवान् कृष्ण की कृपा से भाग्यशाली व्यक्ति को ही भक्ति का मार्ग प्राप्त होता है। यह महाराज परीक्षित पर पूरी तरह लागू होता है। भक्त कुल में जन्म लेने के कारण वे स्वत: कृष्ण के सम्पर्क में आ सके और इस तरह सम्पर्क में रहने से वे भगवान् का निरन्तर स्मरण करते रहे। फलस्वरूप भगवान् कृष्ण ने उन्हें भगवान् के सर्वोच्च भक्त तथा आत्मज्ञान में पूर्ण शुकदेव गोस्वामी से परिचित कराकर भक्ति का विकास करने के लिए आगे भी अवसर प्रदान किया। कालक्रम से प्रामाणिक गुरु से श्रवण करके वे अपने शुद्ध मन को भगवान् कृष्ण पर एकाग्र कर सके।
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