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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 20: मैत्रेय-विदुर संवाद  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  3.20.2 
क्षत्ता महाभागवत: कृष्णस्यैकान्तिक: सुहृत् ।
यस्तत्याजाग्रजं कृष्णे सापत्यमघवानिति ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
क्षत्ता—विदुर; महा-भागवत:—भगवान् का परम भक्त; कृष्णस्य—श्रीकृष्ण का; एकान्तिक:—एकनिष्ठ भक्त; सुहृत्—मित्र; य:—जो; तत्याज—त्याग दिया; अग्र-जम्—अपने बड़े भाई (राजा धृतराष्ट्र) को; कृष्णे—कृष्ण के प्रति; स-अपत्यम्—अपने सौ पुत्रों सहित; अघ-वान्—अपराधी; इति—इस प्रकार ।.
 
अनुवाद
 
 शौनक ऋषि ने विदुर के बारे में जानना चाहा, जो भगवान कृष्ण का महान भक्त एवं सखा था और जिसने भगवान के लिए ही अपने उस ज्येष्ट भाई का साथ छोड़ दिया था जिसने अपने पुत्रों के साथ मिलकर भगवान की इच्छा के विरुद्ध षड्यंत्र किया थो।
 
तात्पर्य
 यहाँ उस घटना का उल्लेख है जब कि विदुर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र का आश्रय त्याग कर तीर्थस्थानों का भ्रमण करते हुए अन्त में हरद्वार में मैत्रेय से मिले थे। यहाँ पर शौनक ऋषि, विदुर एवं मैत्रेय के बीच हुई वार्ता के विषयों के सम्बन्ध में जिज्ञासा कर रहे हैं। विदुर की विशेषता यह थी कि वे न केवल भगवान् के मित्र थे, वरन् साथ ही महान् भक्त भी थे। श्रीकृष्ण युद्ध बन्द करने और चचेरे भाइयों के बीच अनबन को दूर करने का प्रयास कर रहे थे, किन्तु जब उन्होंने उनकी सलाह नहीं मानी तो क्षत्ता अर्थात् विदुर अत्यन्त अप्रसन्न हुए और उन्होंने उस स्थान को छोड़ दिया। भक्त के रूप में विदुर ने ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया कि जहाँ कहीं भी श्रीकृष्ण का आदर न हो वह स्थान मनुष्यों के रहने योग्य नहीं है। भक्त भले ही अपने निजी हितों के बारे में सहिष्णु बना रहे, किन्तु यदि भगवान् या उनके भक्तों का अनादर हो रहा हो तो उसे सहिष्णु नहीं बने रहना चाहिए। यहाँ पर अघवान् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह सूचित करता है कि धृतराष्ट्र के पुत्र कौरवों की हार इसीलिए हुई, क्योंकि उन्होंने श्रीकृष्ण के उपदेश का उल्लंघन करके पापकर्म किया था।
 
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