यदि जीव का विकास कृष्णभक्ति में होता है और वह अन्यों पर दयालु होता है, यदि उसका आत्म-साक्षात्कार का आध्यात्मिक ज्ञान पूर्ण होता है, तो उसे संसार के बन्धन से अविलम्ब मोक्ष प्राप्त हो जाएगा।
तात्पर्य
इस श्लोक में दया जीवेषु का अर्थ है “अन्य जीवों के प्रति दया” जिससे सूचित होता है कि यदि जीव आत्म-साक्षात्कार में प्रगति करने का इच्छुक है, तो उसे अन्य जीवों के प्रति दयालु होना चाहिए। इसका यह अर्थ हुआ कि उसे अपने आप पूर्ण बनकर तथा कृष्ण के चिर दास के रूप में अपनी स्थिति को समझने के बाद इस ज्ञान का उपदेश करना चाहिए। इसका उपदेश करना ही जीवों के प्रति वास्तविक दया दिखाना है। अन्य प्रकार के मानव-कल्याणकारी कार्य शरीर के लिए क्षणिक लाभप्रद हो सकते हैं, किन्तु जीव के आत्मा होने से मनुष्य वास्तविक दया तभी दिखा सकता है जब वह उसे आध्यात्मिक स्थिति का ज्ञान करा दे। जैसाकि चैतन्य महाप्रभु ने कहा है—जीवेर “स्वरूप” हय—कृष्णेर ‘नित्यदास’—प्रत्येक जीव स्वाभाविक रूप से कृष्ण का दास है। मनुष्य को इसका अनुभव करना चाहिए और जनसमूह में इसका उपदेश देना चाहिए। यदि कोई यह अनुभव कर लेता है कि वह कृष्ण का नित्य दास है, किन्तु इसका उपदेश नहीं देता तो उसका साक्षात्कार अधूरा है। अत: श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर गाते हैं—दुष्ट मन, तुमि किसेर वैष्णव? प्रतिष्ठार तरे, निर्जनेर घरे, तवहरिनाम केवल कैतव—हे मेरे मन! तुम कैसे वैष्णव हो? तुम झूठी प्रतिष्ठा तथा भौतिक ख्याति के लिए एकान्त स्थान में हरे कृष्ण मंत्र का जप कर रहे हो। इस प्रकार जो लोग उपदेश नहीं देते उनकी आलोचना की जाती है। वृन्दावन में ऐसे अनेक वैष्णव हैं, जो उपदेश करना पसन्द नहीं करते। वे हरिदास ठाकुर की नकल करते हैं। एकान्त स्थान में उनके तथाकथित जप का वास्तविक फल यह होता है कि वे सोते हैं और स्त्री तथा धन का चिन्तन करते हैं। इसी प्रकार जो मन्दिर में पूजा करता है और जनसमूह के हितों को नहीं देखता अथवा भक्तों को नहीं पहचानता वह कनिष्ठ अधिकारी कहलाता है—
अर्चायामेव हरये पूजां य: श्रद्धयेहते।
न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्त: प्राकृत: स्मृत: ॥
(भागवत ११.२.४७)
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