हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 1: महाराज प्रियव्रत का चरित्र  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  5.1.4 
संशयोऽयं महान् ब्रह्मन् दारागारसुतादिषु ।
सक्तस्य यत्सिद्धिरभूत्कृष्णे च मतिरच्युता ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
संशय:—सन्देह; अयम्—यह; महान्—महान्; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण; दार—स्त्री; आगार—घर; सुत—बच्चे; आदिषु—इत्यादि के प्रति; सक्तस्य—अनुरक्त पुरुष का; यत्—क्योकिं; सिद्धि:—सिद्धि; अभूत्—हो गया; कृष्णे—श्रीकृष्ण में; —भी; मति:— आसक्ति; अच्युता—अविचल ।.
 
अनुवाद
 
 राजा ने आगे पूछा, हे विप्रवर, मेरा सबसे बड़ा सन्देह यही है कि राजा प्रियव्रत जैसे व्यक्ति के लिए, जो अपनी पत्नी, सन्तान तथा घर के प्रति इतने आसक्त थे, कृष्ण-भक्ति में सर्वोच्च अविचल सिद्धि प्राप्त कर पाना कैसे सम्भव हो सका?
 
तात्पर्य
 राजा परीक्षित को आश्चर्य हुआ कि जो व्यक्ति पत्नी, बच्चों तथा घर के प्रति इतना अनुरक्त हो वह किस प्रकार परम कृष्णभक्त हो सकता है। प्रह्लाद महाराज ने कहा है—मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्। एक गृहव्रत अर्थात् जिसने गृहकार्यों के पालन का व्रत ले रखा हो कभी कृष्णभक्त नहीं हो सकता, क्योंकि अधिकांश गृहव्रत इन्द्रियतुष्टि में लगे रहते हैं, अत: वे भौतिक जगत के अन्धतम स्थानों में गिर जाते हैं (अदान्त-गोभिर्विशतां तमिस्रम् )। भला ऐसे व्यक्ति कृष्णभक्ति में किस प्रकार पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं? महाराज परीक्षित ने शुकदेव गोस्वामी से इस सन्देह को दूर करने की प्रार्थना की।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.
   
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥