भगवद्गीता (४.१०) में भगवान् कहते हैं— वीतरागभयक्रोधा मन्माया मामुपाश्रिता:।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता: ॥
“आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त होकर मुझमें पूर्णतया लीन होकर तथा मेरी शरण ग्रहण करके भूतकाल में अनेकानेक व्यक्ति मेरे ज्ञान से पवित्र बन गये हैं और इस तरह उन्होंने मेरे प्रति दिव्य प्रेम प्राप्त किया है।” कृष्ण के विषय में निरन्तर चिन्तन करते रहने के दो ढंग हैं—एक तो भक्त के रूप में और दूसरा शत्रु के रूप में। भक्त अपने ज्ञान तथा तपस्या से भय तथा क्रोध से मुक्त होकर शुद्ध भक्त बन जाता है। इसी तरह शत्रु यद्यपि कृष्ण के विषय में शत्रु भाव से सोचता है, किन्तु निरन्तर सोचते रहने से वह भी शुद्ध बन जाता है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (९.३०) में अन्यत्र की गई है जहाँ भगवान् कहते हैं—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग् व्यवसितो हि स: ॥
“यदि कोई अत्यन्त गर्हित कर्म भी करे किन्तु यदि वह भक्ति में लगा रहता है, तो उसे साधु समझना चाहिये, क्योंकि वह उचित ठीक तरह से स्थित है।” भक्त निस्सन्देह मनोयोग से भगवान् की पूजा करता है। इसी प्रकार यदि एक शत्रु (सुदुराचार:) सदैव कृष्ण का चिन्तन करता है, तो वह भी शुद्ध भक्त बन जाता है। यहाँ पर उस कीट का दृष्टान्त दिया गया है, जो उस मधुमक्खी (भृंगी) का निरन्तर चिन्तन करने के कारण जो उसे छेद में जबरदस्ती प्रविष्ट करा देती है, मधुमक्खी (भृंगी) बन जाता है। भयवश सदैव मधुमक्खी का चिन्तन करते रहने से कीड़ा मक्खी बनने लगता है। यह एक व्यावहारिक उदाहरण है। भगवान् कृष्ण इस भौतिक जगत में दो प्रयोजनों से प्रकट होते हैं—परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्—भक्तों की रक्षा करने तथा असुरों का संहार करने हेतु। साधुगण तथा भक्तगण सदैव भगवान् का चिन्तन करते रहते हैं, लेकिन कंस तथा शिशुपाल जैसे असुर या दुष्कृती भी कृष्ण का चिन्तन उन्हें मारने के उद्देश्य से करते हैं। कृष्ण का चिन्तन करने से असुर तथा भक्त दोनों ही माया के पाश से मुक्त हो जाते हैं।
इस श्लोक में माया-मनुजे शब्द आया है। जब भगवान् कृष्ण अपनी मूल आध्यात्मिक शक्ति में प्रकट होते हैं (सम्भवाम्यात्ममायया ) तो उन्हें भौतिक प्रकृति के द्वारा निर्मित स्वरूप ग्रहण करने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता। अतएव भगवान् को ईश्वर अथवा माया का नियंत्रक कह कर सम्बोधित किया गया है। वे माया द्वारा नियंत्रित नहीं होते। जब कोई असुर शत्रुतावश उनका लगातार चिन्तन करता है, तो वह अपने जीवन के पापों से निश्चित रूप से मुक्त हो जाता है। कृष्ण के विषय में किसी भी रूप में चिन्तन करना, चाहे वह उनके नाम, स्वरूप, गुण, साज-सामान या उनसे सम्बन्धित अन्य किसी रूप में हो, हर एक के लिए लाभप्रद होता है। शृण्वतां स्वकथा: कृष्ण: पुण्यश्रवणकीर्तन:। कृष्ण का चिन्तन, कृष्ण के पवित्र नामों का श्रवण या कृष्ण की लीलाओं का श्रवण—ये सभी शुद्ध बनाने वाले हैं और तत्पश्चात् मनुष्य भक्त बन जाता है। अतएव हमारा कृष्णभावनामृत आन्दोलन हर एक को किसी न किसी प्रकार कृष्ण के पवित्र नाम को सुनने तथा कृष्ण का प्रसाद ग्रहण करने के लिए प्रेरित करने का प्रयास कर रहा है। इस तरह मनुष्य धीरे-धीरे भक्त बन जाएगा और उसका जीवन सफल हो सकेगा।