मनुष्य को किसी न किसी प्रकार से कृष्ण के स्वरूप पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। तब ऊपर बताई गई पाँच विधियों में से किसी एक के द्वारा वह भगवद्धाम वापस जा सकता है। लेकिन राजा वेन जैसे नास्तिक इन पाँचों विधियों में से किसी एक के द्वारा कृष्ण के स्वरूप का चिन्तन करने में असमर्थ होने से मोक्ष नहीं पा सकते। अतएव मनुष्य को चाहिए कि जैसे भी हो, चाहे मित्र बनकर या शत्रु बनकर, वह भगवान् का चिन्तन करे।
तात्पर्य
निर्विशेषवादी तथा नास्तिक कृष्ण के स्वरूप को सदैव तोडऩे-मरोडऩे का प्रयत्न करते हैं। यहाँ तक कि आधुनिक युग के बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ तथा दार्शनिक भी भगवद्गीता से कृष्ण को विलग करना चाहते हैं। फलस्वरूप ऐसे लोगों के लिए कोई मोक्ष नहीं है। लेकिन कृष्ण के शत्रु सोचते हैं “यह रहा मेरा शत्रु कृष्ण! मुझे उसका वध करना है।” वे कृष्ण का चिन्तन उनके वास्तविक रूप में करते हैं, अतएव उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है। अतएव भक्तगण जो कि कृष्ण के स्वरूप का निरन्तर चिन्तन करते हैं, वे तो निश्चित रूप से मुक्ति प्राप्त करते हैं। मायावादी नास्तिकों का एकमात्र धन्धा रह गया है कृष्ण को रूपहीन बनाना। फलस्वरूप कृष्ण के चरणों कमलों में इस घोर अपराध के कारण वे मोक्ष की आशा नहीं कर सकते। इस प्रसंग में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कहते हैं—तेन शिशुपालादिभिन्न: प्रतिकूलभावं दिधीषुर्येन इव नरकं यातीति भाव:। शिशुपाल के अतिरिक्त उन में से किसी को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता हैं, जो विधि-विधानों के विरोधी है। उन्हें तो नरक मिलना ही होता है। विधि-विधान यही है कि सदैव कृष्ण का चिन्तन करो, चाहे मित्र रूप में हो या शत्रु रूप में।
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