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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 19: राजा ययाति को मुक्ति-लाभ  »  श्लोक 27-28
 
 
श्लोक  9.19.27-28 
सा सन्निवासं सुहृदां प्रपायामिव गच्छताम् ।
विज्ञायेश्वरतन्त्राणां मायाविरचितं प्रभो: ॥ २७ ॥
सर्वत्र सङ्गमुत्सृज्य स्वप्नौपम्येन भार्गवी ।
कृष्णे मन: समावेश्य व्यधुनोल्लिङ्गमात्मन: ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
सा—देवयानी; सन्निवासम्—साथ में रहते हुए; सुहृदाम्—मित्रों तथा सम्बन्धियों के; प्रपायाम्—प्याऊ में; इव—सदृश; गच्छताम्— एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करने वालों का; विज्ञाय—जानकर; ईश्वर-तन्त्राणाम्—प्रकृति के कठोर नियमों के अन्तर्गत; माया-विरचितम्—माया द्वारा लागू नियमों को; प्रभो:—भगवान् के; सर्वत्र—इस जगत में सब जगह; सङ्गम्—साथ; उत्सृज्य— छोडक़र; स्वप्न-औपम्येन—स्वप्न के सदृश; भार्गवी—शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी; कृष्णे—कृष्ण में; मन:—पूर्ण ध्यान; समावेश्य—स्थिर करके; व्यधुनोत्—त्याग दिया; लिङ्गम्—स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को; आत्मन:—आत्मा के ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी समझ गई कि पति, मित्रों तथा सम्बन्धियों का सांसारिक साथ प्याऊ में यात्रियों की संगति के समान है। भगवान् की माया से समाज के सम्बन्ध, मित्रता तथा प्रेम ठीक स्वप्न की ही भाँति उत्पन्न होते हैं। कृष्ण के अनुग्रह से देवयानी ने भौतिक जगत की अपनी काल्पनिक स्थिति छोड़ दी। उसने अपने मन को पूरी तरह कृष्ण में स्थिर कर दिया और स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों से मोक्ष प्राप्त कर लिया।
 
तात्पर्य
 मनुष्य को आश्वस्त होना चाहिए कि वह परब्रह्म कृष्ण का अंश दिव्य आत्मा है, किन्तु न जाने किस तरह वह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार से रचित स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर के भौतिक आवरण में बन्दी हो गया है। मनुष्य को जान लेना चाहिए कि समाज का साथ, मित्रता, प्रेम, राष्ट्रीयता, धर्म इत्यादि माया की सृष्टियाँ हैं। मनुष्य का एकमात्र व्यापार कृष्णभक्त बनना और यथासम्भव कृष्ण की अधिकाधिक सेवा करना है। इस तरह मनुष्य भवबन्धन से छूटता है। कृष्ण के अनुग्रह से देवयानी को यह स्थिति अपने पति के उपदेशों से प्राप्त हुई।
 
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