तत्पश्चात् शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी समझ गई कि पति, मित्रों तथा सम्बन्धियों का सांसारिक साथ प्याऊ में यात्रियों की संगति के समान है। भगवान् की माया से समाज के सम्बन्ध, मित्रता तथा प्रेम ठीक स्वप्न की ही भाँति उत्पन्न होते हैं। कृष्ण के अनुग्रह से देवयानी ने भौतिक जगत की अपनी काल्पनिक स्थिति छोड़ दी। उसने अपने मन को पूरी तरह कृष्ण में स्थिर कर दिया और स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों से मोक्ष प्राप्त कर लिया।
तात्पर्य
मनुष्य को आश्वस्त होना चाहिए कि वह परब्रह्म कृष्ण का अंश दिव्य आत्मा है, किन्तु न जाने किस तरह वह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार से रचित स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर के भौतिक आवरण में बन्दी हो गया है। मनुष्य को जान लेना चाहिए कि समाज का साथ, मित्रता, प्रेम, राष्ट्रीयता, धर्म इत्यादि माया की सृष्टियाँ हैं। मनुष्य का एकमात्र व्यापार कृष्णभक्त बनना और यथासम्भव कृष्ण की अधिकाधिक सेवा करना है। इस तरह मनुष्य भवबन्धन से छूटता है। कृष्ण के अनुग्रह से देवयानी को यह स्थिति अपने पति के उपदेशों से प्राप्त हुई।
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