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वैष्णव भजन  »  श्री वृन्दावनाष्टकम्‌
 
 
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर       
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न योगिसद्धर्न ममास्तु मोक्षो,
वैकुण्ठलोकेऽपि न पार्षदत्वम्।
प्रेमापि न स्यादिति चेत्तरां तु,
ममास्तु वृन्दावन एव वासः॥1॥
 
 
तार्णं जनुयत्र विधिर्ययाचे,
सद्‌भक्तचूड़ामणिरुद्धवोऽपि।
वीक्ष्यैव माधुर्यधूरां तदस्मिन्‌,
ममास्तु वृन्दावन एव वासः॥2॥
 
 
किं ते कृतं हन्ततपः क्षितीति,
गोप्योऽपि भूमे स्तुवते रस कीर्तिम्।
येनैव कृष्णांघ्रिपदांकितेऽस्मिन्‌,
ममास्तु वृन्दावन एव वासः॥3॥
 
 
गोपांगनालंपटतैव यत्र,
यस्यां रसः पूर्णतमत्वमाप।
यतो रसो वै स इति श्रुतिस्त-न्‌
ममास्तु वृन्दावन एव वासः॥4॥
 
 
भाण्डीर-गोवर्धन-रासपीठै-
स्रीसीमके योजन-पंचकेन।
मिते विभुत्वादमितेऽपि चास्मिन्‌,
मामास्तु वृन्दावन एव वासः॥5॥
 
 
यत्राधिपत्यं वृषभानुपुत्र्या,
येनोदयेत्‌ प्रेमसुखं जनानाम्।
यस्मिन्मपाशा बलवत्यतोऽस्मिन्‌,
ममास्तु वृन्दावन एव वासः॥6॥
 
 
यस्मिन्‌ महारासविलासलीला,
न प्राप यां श्रीरपि सा तपोभिः।
तत्रोल्लसन्मंजु-निकुंजपुंजे,
ममास्तु वृन्दावन एव वासः॥7॥
 
 
सदा रुरु-न्यंकुमुखा विशंकं,
खेलन्ति कूजन्ति पिकालिकीराः।
शिखण्डिनो यत्र नटन्ति तस्मिन्‌,
ममास्तु वृन्दावन एव वासः॥8॥
 
 
वृन्दावनस्याष्टकमेतदुच्चैः,
पठन्ति ये निश्चलबुद्धयस्ते।
वृन्दावनेशांघ्रि-सरोजसेवां,
साक्षाल्लभन्ते जनुषोऽन्त एव॥9॥
 
 
(1) यदि योगसिद्धि मुझे प्राप्त न हो तो इसकी मुझे कोई चिन्ता नहीं है, यदिमेरी मुक्ति न हो तो इससे भी मेरी हानि नहीं है, यदि वैकुण्ठलोक में मुझे पार्षदभाव न मिले तो भी मेरी कोई क्षति नहीं है, और यदि भगवद्‌विषयक विशाल प्रेम भी मेरी कोई क्षति नहीं है, और यदि भगवद्‌विषयक विशाल प्रेम भी मेरे हृदय में न हो तो भी मेरा निवास तो श्रीवृन्दावन में ही होता रहे।
 
 
(2) जिस वृन्दावन के माधुर्य की विशालता को देखकर, जगद्‌गुरु ब्रह्मा एवं श्रेष्ठभक्तों के चूड़ामणि उद्धवने भी, जिस वृन्दावन में तृणसम्बन्धी जन्म की याचना की थी, अतः मेरा निवास तो इस वृन्दावन में ही होता रहे।
 
 
(3) रासलीला में श्रीकृष्ण के अन्तर्हित हो जाने पर, प्रेमकी पताका-रूप-गोपियों ने भी “किं ते कृतं क्षिति!” भा0 (10-30-10) अर्थात्‌ हे वृवीिदेवी! तुमने ऐसा कौन सा अपूर्व तप किया है कि, जिससे तुम वृन्दावन में श्रीकृष्ण के चरणों के स्पर्शरूप उत्सव से पुलकित रोमाञ्चों से सुशोभित हो रही हो, इत्यादि रूप से भूमि के यशकी स्तुति जिस ध्येय से मेरा नित्यनिवास तो श्रीकृष्णचरणचिह्नों से अंकित इस वृन्दावन में ही होता रहे।
 
 
(4) गोपाङ्गनाओं की प्रेममयी आसक्ति ही जिसमें प्रधान है एवं प्रेममयी जिस आसक्ति में ही रसको परिपूर्णता मिली है, क्योंकि “निश्िचित रूप से रस के मूर्तिमान स्वरूप तो रसिशेखर वे नन्दनन्द ही हैं” इस भावको करनेवाली ‘रसो वै स’ इत्यादि रूपवाली श्रुति भी जिसमें प्रमाण है अतः मेरा निवास तो उस वृन्दावन में ही होता रहे।
 
 
(5) मेरा नित्यनिवास तो इस वृन्दावन में ही हाता रहे कि- जो भाण्डीरवट, गोवधर् न एवं रासपीठ इन तीन विशिष्टस्थलों के कारण, तीन सीमावाला है एवं वयापक होने के कारण अपरिमित होकर भी जो पाँच योजन से परिमित है।
 
 
(6) जिस वृन्दावन में श्रीवृषभानुनन्दिनी का आधिपत्य है एवं जिस वृन्दावन के द्वारा भक्तजन मात्र में भगवद्‌सम्बन्धी प्रेमसुख प्रकट हो सकता है तथा जिस वृन्दावन मेरी बलवती आशा है, अतः मेरा नित्यनिवास तो इस वृन्दावन में ही होता रहे।
 
 
(7) महारासविलास की जिस लीला को नारायणपत्नी लक्ष्मीदेवी, अनेक तपस्याओं के द्वारा भी नहीं प्राप्त कर पाईं, वह महारासविलासलीला जिस वृन्दावन में नित्य ही होती रहती है अतः मेा नित्यनिवास तो शोभायमान एवं मनोहर निकुञ्जपुञ्ज से युक्त उस वृन्दावन में ही होता रहे।
 
 
(8) जिस वृन्दावन में रुक (काला मृग), न्यंकु (अनेक सींगोवाला मृग) आदि अनेक मृग, निःशंक खेलते रहते हैं एवं कोयलए भ्रमर, तोता आदि अनेक पक्षी जिसमें गूँजते रहते हैं एवं मयूरगण जिसमें नाचते रहते हैं, उस वृन्दावन में ही मेरा नित्यनिवास होता रहे।
 
 
(9) निश्चलबुद्धि वाले जो वयक्ति वृन्दावन के इस अष्टक का उँचे स्वर से भावपूर्वक पाठ करते हैं, वे वयक्ति वृन्दावनाधीश्वर श्रीराधाकृष्ण के पादपद्मों की सेवा को, इस जन्म के अन्त में ही साक्षात्‌ प्राप्त कर लेते हैं। इस अष्टक में ‘उपजाति’ नामक छन्द है।
 
 
(10)
 
 
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